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राज्यलेख

नदी का जीवन

admin
Last updated: सितम्बर 28, 2024 4:10 अपराह्न
By admin 16 Views
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7 Min Read
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नदी का जीवन

विजय गर्ग

हाल ही में खबर आई कि चेन्नई देश का प्रथम शहर हो गया है जहां भूमिगत जल बिल्कुल खत्म हो गया है। पानी के घटते स्रोत ने हमारे द्वारा किए गए अंधाधुंध विकास पर जो अट्टहास किया, उससे हम सभी एकबारगी सूख गए हैं। एक समय था जब गांव-गांव पानी के सोते बारह महीने बहते रहते थे। नदियां बहती रहती थीं, लेकिन अब स्थिति विपरीत है। बारिश रुकी नहीं कि सोते, नदियां भी अपनी कलकल बंद कर देते हैं । नदी क्षेत्र देश का छब्बीस फीसद भूभाग है और लगभग तैंतालीस फीसद आबादी इससे जुड़ी है। एक शोध के मुताबिक, पानी में आक्सीजन की मात्रा गिरने से नदी के भीतर चल रहा पारिस्थितिकी तंत्र मरने लगता है। एक हद के बाद वैज्ञानिक भाषा में नदी को मृत घोषित कर दिया जाता है। एक बार कोई नदी मर जाए, तो उसे फिर स्वस्थ करने में कम से कम तीस से चालीस वर्ष का वक्त लगता है। अठारहवीं और उन्नीसवीं शताब्दी में औद्योगिकीकरण की वजह से यूरोप की कई नदियां यह हाल देख चुकी है। कुछ नदियों में तो आज तक जीवन पूरी तरह नहीं लौट सका है।
भारत की नदियां मुख्य रूप से वर्षा जल से पोषित होती हैं । फिर वे साल भर, यहां तक कि सूखे मौसमों में भी कैसे बहती हैं ? जवाब है, वनों के कारण। बारिश का मौसम खत्म होने के बाद भी बारहमासी नदियां बहती रहें, इसमें पेड़ों की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। नदियां जीवनदायिनी हैं। हमारी प्राचीन सभ्यता और संस्कृति नदियों के समीप ही विकसित हुई थी। देश के सांस्कृतिक सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था का आधार ये नदियां ही हैं । मगर विचित्र है कि देश में 521 नदियों के पानी की निगरानी करने वाले प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के मुताबिक देश की 198 नदियां ही स्वच्छ हैं। इनमें अधिकांश छोटी नदियां हैं। देश की बड़ी-बड़ी नदियां किसी न किसी रूप में अपना अस्तित्व बचाए हुए हैं, लेकिन उनको जल की आपूर्ति करने वाली करीब चार हजार पांच सौ से अधिक छोटी-छोटी नदियां सूख कर विलुप्त हो गई हैं। डब्लूआरआइ के मुताबिक, जल संकट के मामले में भारत विश्व में तेरहवें स्थान पर है। भारत के लिए इस मोर्चे पर चुनौती बड़ी है, क्योंकि उसकी आबादी जल संकट का सामना कर रहे अन्य समस्याग्रस्त 16 देशों से तीन गुना ज्यादा है।
नदी की परिभाषा कहती है कि ‘हिम, भूजल स्रोत और वर्षा के जल को उद्गम से संगम तक स्वयं प्रवाहित रखती हुई जो अविरलता निर्मलता और स्वतंत्रता से बहती हैं और सदियों से सूरज, वायु और धरती का आजादी से स्पर्श करती हुई जीव- सृष्टि से परस्पर पूरक और पोषक नाता जोड़कर जो प्रवाहित है, वह नदी है।’ देश की सत्तर फीसद नदियां प्रदूषित हैं और मरने के कगार पर हैं। इनमें गुजरात की अमलाखेड़ी, साबरमती और खारी, आंध्र प्रदेश की मुंसी, दिल्ली में यमुना, महाराष्ट्र की भीमा, हरियाणा की मारकंडा, उत्तर प्रदेश की काली और हिंडन नदी सबसे ज्यादा प्रदूषित हैं। गंगा, नर्मदा, ताप्ती, गोदावरी, कृष्णा, कावेरी, महानदी, ब्रह्मपुत्र, सतलुज, रावी, व्यास, झेलम और चिनाब भी बदहाल स्थिति में हैं ।
इंसान और प्रकृति दोनों एक दूसरे के पर्याय हैं। न्यूजीलैंड की संसद ने वहां की तीसरी सबसे बड़ी नदी वांगानुई को एक व्यक्ति की तरह अधिकार दिए । यह कुछ अजीब लग सकता है, लेकिन न्यूजीलैंड ही नहीं, भारत के आदिवासी भी अपने आसपास की नदियों को अपना पूर्वज मानते हैं और उनकी पूजा, आराधना करते हैं। इसके बाद दुनिया के अलग-अलग हिस्सों, जैसे कि कोलंबिया, आस्ट्रेलिया और अमेरिका वगैरह में भी ऐसे ही कानून बनाए गए थे।
अपने देश में प्रतिवर्ष लगभग चार हजार अरब घन मीटर पानी वर्षा के जल के रूप में प्राप्त होता है, लेकिन उसका लगभग आठ फीसद पानी ही हम संरक्षित कर पाते हैं। शेष पानी नदियों और नालों के माध्यम से बह कर समुद्र में चला जाता है । हमारी सांस्कृतिक परंपरा में वर्षा के जल को संरक्षित करने पर विशेष ध्यान दिया गया था, जिसके चलते जगह- जगह पोखर, तालाब, बावड़ी और कुआं आदि निर्मित कराए जाते । उनमें वर्षा का जल एकत्र होता था और वह वर्ष भर जीव-जंतुओं सहित मनुष्यों के लिए भी उपलब्ध होता था। आज स्थितियां विकट होती जा रही हैं, लेकिन हमारा मुख्य ध्यान और कहीं है। अधिकांश राजनीतिक दलों के घोषणा पत्रों में नदी बहुत कम दिखाई देती है और यह हमारी राजनीतिक चेतना के अभाव का सूचक है।
देश की सबसे पवित्र कहलाने वाली गंगा नदी के बारे में कहा जाता है कि ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के जहाज जब यात्रा के लिए चलते थे तो पीने के लिए गंगाजल लेकर चलते थे जो इंग्लैंड पहुंच कर भी खराब नहीं होता था । ब्रिटिश सेना भी युद्ध के समय गंगाजल अपने साथ रखती थी, जिससे घायल सिपाही के घाव को धोया जाता था। इससे घाव में संक्रमण नहीं होता था । ज्ञान की परंपरा में गंगा नदी सर्वोच्च थी। मानवीय रोगाणुओं को गंगाजल में नष्ट करने की क्षमता थी, जिससे सत्रह तरह के रोगाणु नष्ट हो जाते थे । आज हालात ऐसे हैं कि गंगा का पानी कई जगह पीने योग्य नहीं है। हमें अपनी भावनाओं के साथ कर्मों को भी धरातल पर रखकर विकास को फिर से परिभाषित करने की आवश्यकता है। सनद रहे कि नदियां हमारा भविष्य तय करने वाली हैं।

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