
विश्व खाद्य कार्यक्रम (World Food Programme) के मुताबिक, दुनिया में करीब 69 करोड़ लोग ऐसे हैं जिन्हें रात का भोजन नहीं मिल पाता. भूखमरी की यह समस्या, मध्यम और निम्न आय वाले देशों (जिन्हें अल्प विकसित देश या LDC कहा जाता है) में ज्यादा है. और कोविड-19 की महामारी, जिसकी वजह से कई देशों के लोगों को अपनी आजीविका से हाथ धोना पड़ा है, के कारण यह समस्या और अधिक बढ़ (Global Food Crisis) गई है. अब यूक्रेन युद्ध की वजह से ये हालात और भी बदतर हो रहे हैं.
खाद्य उत्पादों की बढ़ती कीमतों का असर विकासशील देशों में सबसे अधिक पड़ा है, यहां महंगाई तेजी से बढ़ रही है, जिसकी वजह से गरीब और मध्यम वर्ग के लोग बुरी तरह से प्रभावित हो रहे हैं. भारत के पड़ोसी देशों की बात की जाए तो श्रीलंका और पाकिस्तान में यह असर सबसे अधिक देखने को मिल रहा है, वहीं बाकी दुनिया की बात करें तो अफ्रीका सबसे अधिक प्रभावित है.
वैश्विक खाद्य महंगाई क्या है?
बीते पंद्रह सालों में दुनिया तीसरी बार खाद्य महंगाई का सामना कर रही है. साल 2008 में, अलनिनो के प्रभाव और खेती की जमीन को गन्ने के अधिक से अधिक उत्पादन में लगाए जाने की वजह से, ताकि वैकल्पिक ईंधन के रूप में एथेनॉल का उत्पादन किया जा सके, पूरी दुनिया में खाद्य उत्पादों की महंगाई बढ़ी थी. हालांकि बाद में अनुकूल मौसम और 2008 की वैश्विक मंदी से उत्पन्न हुई कम मांग के कारण हालात नियंत्रण में आए. इसी तरह 2011 में भी खाद्य संकट पैदा हुआ था, तब इसकी वजह यूक्रेन और रूस में सूखा पड़ना था. लेकिन इस संकट के पीछे खराब मौसम का हाथ था, पर मौजूदा खाद्य संकट पूरी तरह से इंसानों द्वारा खड़ा किया गया है.
कोरोना महामारी के कारण श्रीलंका में करीब दो सालों से पर्यटन का कारोबार ठप पड़ा है, जिससे वहां का सरकारी खजाना खाली हो गया है और यह देश कई तरह के खाद्य पदार्थ, जिन्हें उसे आयात करना पड़ता है, नहीं खरीद पा रहा है. हालात तब और खराब हो गए, जब राजपक्षे वंश की अगुवाई वाली टूटी-फूटी सरकार ने रासायनिक उर्वरक के आयात को रोक दिया और जैविक कृषि को अनिवार्य कर दिया, इस कदम से यहां खाद्य उत्पादन आधा हो गया और इसके कारण इस देश को भारत और चीन की उदारता पर निर्भर होना पड़ रहा है.
पाकिस्तान के हालात भी कम बुरे नहीं हैं, लेकिन यहां की हालिया राजनीतिक घटनाओं ने संकट से ध्यान हटा दिया है. यही हाल अफगानिस्तान का है, जहां दस लाख बच्चे भुखमरी की कगार पर हैं. विशेषज्ञों का कहना है कि कई देशों में अर्ध-भुखमरी के परिणामस्वरूप बच्चों की एक पूरी पीढ़ी का विकास रुक जाएगा. जब तक कि एचआईवी या इबोला का मामला ना हो अफ्रीका पर दुनिया की नजर नहीं जाती, लेकिन यहां के हालात एशियाई देशों की तुलना में अधिक भयानक हैं.
यूनिसेफ के अनुसार, 90 फीसदी अफ्रीकी बच्चे न्यूनतम आवश्यक आहार के मानदंडों को पूरा नहीं करते, 60 फीसदी बच्चों को न्यूनतम भोजन की फ्रीक्वेंसी (यानि दिन में समय-समय पर मिलने वाला भोजन) नहीं मिलता और 2017 में भोजन की बर्बादी की वजह से वहां 14 मिलियन बच्चे प्रभावित हुए थे. पूरी दुनिया में, भूख के कारण हर तीन सेकेंड में एक बच्चे की मौत हो जाती है, जो रोजाना 10 हजार बच्चों की मौतों के बराबर है. निम्न और मध्यम आय वाले देशों में, पांच वर्ष से कम आयु के बच्चों की मृत्यु दर में बाल कुपोषण का करीब 45 फीसदी योगदान है. अफ्रीका में एक तिहाई बच्चों की मौत माइक्रोन्यूट्रिएंट्स की कमी के कारण होती है. रूस-यूक्रेन के बीच जारी युद्ध ने ऐसे बच्चों की स्थिति में सुधार की किसी उम्मीद को लगभग खत्म कर दिया है.
गेहूं और रूस-यूक्रेन संघर्ष
यूक्रेन और रूस गेहूं के दो प्रमुख निर्यातक देशों में से हैं, विश्व गेहूं व्यापार में रूस की हिस्सेदारी 18 फीसदी है, जबकि यूक्रेन की ओर से दुनिया को 10 फीसदी की आपूर्ति होती है. मिस्र जैसे करीब 25 देशों को अपनी मौजूदा जरूरत से आधे से अधिक गेहूं इन दोनों देशों से प्राप्त होता है. सप्लाई में दिक्कत होने के कारण गेहूं की कीमतों में पहले ही 42 फीसदी की वृद्धि हो चुकी है और बढ़ोतरी 50 फीसदी तक जा सकती है. ऐसे में जबकि आयात करने वाले अधिकतर देश विकासशील देश हैं, कीमतों में हुई यह बढ़ोतरी गरीबों पर भारी पड़ सकती है.
हालांकि, यूक्रेन संघर्ष का तात्कालिक प्रभाव खाद्य कीमतों पर देखने को मिला है, लेकिन इसके मध्य और दीर्घकालिक प्रभाव भी उतने ही हानिकारक हो सकते हैं. गैर-यूरोपीय देशों के लिए, जो अभी इस संघर्ष से भले ही दूर हैं, लेकिन आपसी रूप से संबंध इस दुनिया में लगभग प्रत्येक देश इस तरह की विनाशकारी घटना से प्रभावित होगा.
रूस-यूक्रेन युद्ध के कारण रूस के खिलाफ प्रतिबंधों के साथ दुनिया का तेल, गैस और कोयला व्यापार बाधित हो गया है, क्योंकि रूस जीवाश्म ईंधन के मुख्य निर्यातकों में से एक है. जीवाश्म ईंधन की कीमतों में होने वाली बढ़ोतरी से भारत और अधिकांश अल्प विकसित देशों में खाद्य महंगाई बढ़ेगी, क्योंकि इन देशों को पूरी तरह से आयात पर निर्भर रहना पड़ता है.
उर्वरकों की हो सकती है कमी
इन सभी से महत्वपूर्ण बात, यह है कि दुनिया का कृषि उत्पादन गंभीर खतरे में है. इसकी वजह यूक्रेन युद्ध ही है. रूस उर्वरकों का दुनिया का सबसे बड़ा निर्यातक है और हालांकि उर्वरकों के रूसी निर्यात पर पाबंदी नहीं लगी है लेकिन युद्ध के कारण सप्लाई चेन बाधित हो रही है, जिससे वैश्विक उर्वरक बाजार में समस्या खड़ी हो रही है.
वर्जीनिया के The Fertilizer Institute, Arlington के आंकड़ों के अनुसार, रूस से अमोनिया एक्सपोर्ट 23 फीसदी, यूरिया एक्सपोर्ट 14 फीसदी, फॉस्फेट निर्यात 10 फीसदी और पोटाश निर्यात 21 फीसदी होता है. रूस से उर्वरकों के मुख्य खरीदारों में, ब्राजील (21 फीसदी), चीन (10 फीसदी), अमेरिका (9 फीसदी) और भारत (4 फीसदी) शामिल हैं. इसके अलावा, इस युद्ध में रूस का सहयोगी, बेलारूस, पोटाश का एक प्रमुख निर्यातक देश है. 2020 में भारत ने यूरेशियन देशों से 290 मिलियन डॉलर मूल्य के पोटाश खरीदे थे.
रूस से सप्लाई चेन में बाधा का उर्वरक की कीमतों पर भले ही मामूली असर पड़ने की संभावना है, लेकिन व्यापारियों द्वारा कीमतों में वृद्धि करना निश्चित है. बंदरगाहों पर उर्वरकों के आगमन में देरी से बुआई और बुआई के तहत रकबे में कमी होने की संभावना है. जिससे इस सीजन और अगले रबी सीजन के दौरान उत्पादन कम हो सकता है. लिहाजा, कोविड के कारण पहले से आजीविका पर पड़े बुरे असर के बाद भारत में खाद्य महंगाई और बढ़ सकती है.
भारत के लिए आगे का रास्ता?
वैसे तो हाल के दो-तीन वर्षों में भारत में मानसून अच्छा रहा है. कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने कहा है कि 2021-22 के दूसरे अग्रिम अनुमान के अनुसार, देश में कुल खाद्यान्न उत्पादन 316 मिलियन टन रहने का अनुमान है, जो कि एक रिकॉर्ड होगा. दलहन, तिलहन और बागवानी फसलों का उत्पादन भी रिकॉर्ड स्तर को छू सकता है. और पिछले हफ्तों के दौरान, भारत ने जरूरतमंद देशों को गेहूं उपलब्ध कराया है, और अगर डब्ल्यूटीओ प्रतिबंधों को हटाया जाता है, तो निर्यात की भी संभावना है. लेकिन कच्चे माल की सप्लाई में पड़ने वाली बाधा को देखते हुए अगले साल के हालात अलग हो सकते हैं.
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