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थोड़े में बहुत

थोड़े में बहुत
हमारे जीवन में हमको ऐसे अनेकों प्रसंग से प्रेरणा मिलती है जो
हमको थोड़े में ही बहुत कुछ बता देती हैं । शरीर से ज्यादा मांग
हमारे इस मन की ही होती है । शरीर तो थोड़े में तृप्त हो जाता है पर मन की मांग सदा रोती रहती है ।मन कभी सामग्री से सन्तुष्ट नहींहोता है । पुष्ट व संतुष्ट उसका पात्र तो कभी भरता ही नहीं
हैं । ऐसा ढीठ व जिद्दी वह होता है जो आंख दिखाने से भी नहीं डरता हैं । इसे तो बड़े प्यार-दुलार से हमको समझना होगा।इसे मानने केलिए तो धीरे – धीरे इसके बहुत करीब जाना होगा।जब
आवश्यकता और आकांक्षा में अंतर हमको समझ आएगा। तब ही हमारी असंग्रह वृति सजग जागेगी । गुरुवर्य फरमाते अहिंसा परमोधर्म: से पहले मानो अपरिग्रह परमो धर्म: हिंसा का मूल है परिग्रह।जहा लाहो तहा लोहो । लाभ बढ़ेगा उतना बढ़ता जाएगा लोभ। मनचाहा न मिलने पर जागेगा क्षोभ। इच्छाओ आगास समा अणन्तया । क्योंकि हमारी आवश्यकताएं तो पूरी हो सकती हैं लेकिनआकांक्षाएं नहीं। इसलिये हम संतोषवृति को अपनाएं वह जीवन को सुखी बनायें। कहते है कि हर पल समय बीत रहा है साथ मेंपरिवर्तन भी चल रहा हैं । जो इस परिवर्तन के साथ अपने जीवन में चला उसने शाश्वत सत्य को पहचान लिया है ।हर पल बदल रही हैयह हमारी उम्र , अनुभव , बड़प्पन , रुप , आदि जिन्दगी में । इस जीवन में हमारे कभी छांव है तो कभी धूप भी हमको मिलती हैं । इसजीवन का हर पल
यहाँ हम जी भरके अध्यात्म से परिपूर्ण रहते हुए जिये व आनन्द में रहे । इस तरह थोड़े में बहुत कुछ हमारा जीवन समाहित हो जाता हैं ।
प्रदीप छाजेड़
( बोंरावड़ )

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