कृषि उत्पाद में दखल का बाजार
अमेरिकी दबाव के बावजूद भारत अपने कृषि उत्पाद का बाजार खोलने के पक्ष में नहीं दिख रहा है। दरअसल, भारत की सत्तर करोड़ से अधिक आबादी कृषि उपज, दुग्ध उत्पादन, मछली पालन और अन्य समुद्री उत्पाद पर आश्रित है। हालांकि भारत सरकार इनकी आर्थिक स्थिति मजबूत बनाने की दृष्टि से मुफ्त अनाज, खाद्य सबसिडी और किसानों को छह हजार रुपए प्रतिवर्ष अनुदान के रूप में देती है। भारत की सत्तर फीसद अर्थव्यवस्था का मूल आधार कृषि और उससे जुड़े उत्पाद हैं। अब अमेरिका इस परिप्रेक्ष्य में भारत पर द्विपक्षीय बातचीत का दबाव बना रहा है। अमेरिका चाहता | है कि कृषि उत्पाद के लिए भारतीय बाजार खुले और उन पर शुल्क भी कम हो। अगर भारत ऐसा कोई समझौता करता है, तो ब्रिटेन और यूरोपीय संघ भी मुक्त व्यापार समझौते (एफटीए) के लिए दबाव बनाएंगे। यूरोपीय संघ ‘चीज’ और अन्य दुग्ध उत्पाद पर शुल्क कटौती की इच्छा जता चुका है। । मगर भारत के लिए कृषि में बाहरी दखल एक संवेदनशील मसला है, क्योंकि हमारे किसान विदेशी पूंजीपतियों से प्रतिस्पर्धा करने की स्थिति में नहीं हैं। भारत में कृषि केवल आर्थिक गतिविधि नहीं, बल्कि जीवन जीने का एक सांस्कृतिक तरीका भी है। जबकि अमेरिका और यूरोपीय देश कृषि को मुनाफे का उद्योग मानते हैं। एक रपट के अनुसार 2024 में अमेरिका का कृषि निर्यात 176 अरब डालर था, जो उसके कुल व्यापारिक निर्यात का लगभग दस फीसद है। बड़े पैमाने पर मशीनीकृत खेती और भारी सरकारी सबसिडी के साथ अमेरिका और अन्य विकसित देश भारत को अपने निर्यात का विस्तार करने के लिए आकर्षक बाजार के रूप में देखते हैं। जबकि भारत अपने कृषि क्षेत्र को मध्यम से उच्च शुल्क की कल्याणकारी योजनाओं द्वारा संरक्षित किए हुए है, ताकि किसानों को अनुचित प्रतिस्पर्धा से बचाया जा सके कृषि क्षेत्र को मुक्त बाजा बाजार बनाने का मतलब है, आयात प्रतिबंधों और शुल्कों को कम करना। कृषि को बाहरी सबसिडी वाले विदेशी आयातों के लिए खोलने का अर्थ होगा, सस्ते खाद्य उत्पादों का भारत में आना। यह खुलापन भारतीय किसानों की आय और आजीविका को गंभीर रूप से प्रभावित करेगा।
ऐसा ही दबाव भारत पर विश्व व्यापार संगठन (डब्लूटीओ) ने 2022 हुई जेनेवा बैठक में बनाया था। यहां तक कि अमेरिका और अन्य यूरोपीय देशों ने भारतीय किसानों को दी जाने वाली कृषि सबसिडी का जबर्दस्त विरोध किया था। ये देश चाहते हैं कि किसानों को जो सालाना छह हजार रुपए की आर्थिक मदद और न्यूनतम समर्थन मूल्य पर अनाज खरीदने की सुविधा दी जा रही है, भारत उसे तत्काल बंद करे। दरअसल, देशों का मानना है कि सबसिडी की वजह से ही भारतीय किसान चावल और गेहूं का भरपूर उत्पादन करने में सक्षम हुए हैं और भारत इनके
अग्रणी देश बन गया है। बांग्लादेश, श्रीलंका, संयुक्त अरब अमीरात, इंडोनेशिया, फिलीपींस और नेपाल के अलावा 68 देश भारत से गेहूं आयात करते हैं। भारत दुनिया के डेढ़ सौ देशों को चावल का निर्यात करता है। अमेरिका को भारत की यह समृद्धि फूटी आंख नहीं सुहा रही है।
दरअसल, सकल फसल उत्पाद मूल्य की दस फीसद सबसिडी का निर्धारण 1986-88 की अंतरराष्ट्रीय कीमतों के आधार पर किया गया था। बीते साढ़े तीन दशक में मंहगाई ने कई गुना छलांग लगाई है। इसलिए इस सीमा का भी पुनर्निर्धारण जरूरी है। यही वह दौर था, जब भूमंडलीय आर्थिक उदारवाद की अवधारणा ने बहुत कम समय में यह प्रमाणित कर दिया कि वह उपभोक्तावाद को बढ़ावा देकर अधिकतम मुनाफा बटोरने का उपाय भर है। टीएफए की सबसिडी संबंधी शर्त, औद्योगिक देश और उनकी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के इसी मुनाफे में और इजाफा करने की दृष्टि लगाई गई है, ताकि लाचार आदमी की आजीविका के संसाधनों को दरकिनार कर उपभोक्तावादी वस्तुएं खपाई जा सकें। नवउदारवाद की ऐसी ही इकतरफा और विरोधाभासी नीतियों का नतीजा है कि अमीर और गरीब के बीच खाई लगातार बढ़ती जा रही है। दरअसल, देशी और विदेशी उद्योगपति पूंजी का निवेश दो ही क्षेत्रों में करते हैं। एक, उपभोक्तावादी उपकरणों के निर्माण और वितरण में, , दूसरे प्राकृतिक संपदा के दोहन में यही दो क्षेत्र धनार्जन के अहम स्रोत हैं।
अमेरिका जैसे विकसित देश भारत में किसानों को खाद और बिजली पर दी जाने वाली सबसिडी का भी विरोध कर रहे हैं। ये देश भारत के मछली पालन और उसके मांस के निर्यात में लगातार हो रही बढ़ोतरी से भी परेशान हैं। मछली पालकों को आर्थिक मदद मिलने से इसके उत्पादन में इजाफा हुआ है और मछली पालक वैश्विक बाजार में मांस निर्यात की प्रतिस्पर्धा में विकसित देशों के मुकाबले में बराबरी करने लगे हैं। यही कारण है कि अमेरिका भारतीय मछुआरों को मिलने वाली सबसिडी को प्रतिबंधित करना चाहता है।
अमेरिका और यूरोपीय देशों की निगाह भारतीय दूध और दुग्ध उत्पाद व्यापार पर भी टिकी है। दुनिया की दूध का कारोबार करने वाली सबसे बड़ी कंपनी फ्रांस की लैक्टेल है। इसने हैदराबाद की ‘तिरुमाला डेयरी’ को खरीद लिया है। भारत की तेल कंपनी आयल इंडिया भी इसमें प्रवेश कर रही है, क्योंकि दूध का यह कारोबार 16 फीसद की दर से हर साल बढ़ रहा है। अमेरिका भी अपने देश में बने दूध के सह उत्पाद भारत में खपाने की तिकड़म में है। । हालांकि फिलहाल उसे सफलता नहीं मिली है। दरअसल, भारत के कृषि और डेयरी उद्योग को काबू लेना अमेरिका की प्राथमिकताओं में शामिल है, ताकि यहां बड़े और बुनियादी जरूरत वाले बाजार पर उसका कब्जा हो जाए। इसलिए जीएम प्रौद्योगिकी से जुड़ी कंपनियां और धन के लालची चंद कृषि वैज्ञानिक भारत समेत दुनिया में बढ़ती आबादी और खाद्य तेलों में आत्मनिर्भर हो जाने का बहाना बनाकर इस तकनीक की मार्फत खाद्य सुरक्षा की गारंटी का भरोसा जताते हैं। पर इस परिप्रेक्ष्य में भारत को सोचने की जरूरत है कि बिना जीएम बीजों का इस्तेमाल किए ही पिछले ढाई दशक में हमारे खाद्यान्न उत्पादन में पांच गुना बढ़ोतरी हुई है। मध्यप्रदेश में बिना जीएम बीजों के अनाज और फल-सब्जियों का उत्पादन बेतहाशा बढ़ा है। इसीलिए मध्यप्रदेश को पिछले कई साल से लगातार कृषि कर्मण सम्मान से सम्मानित किया जा रहा है। जाहिर है, हमारे परंपरागत बीज हा उन्नत किस्म के हैं और वे भरपूर फसल पैदा करने में सक्षम हैं। इसीलिए अब कपास के परंपरागत बीजों से खेती करने के लिए किसानों को कहा जा रहा है। आनुवंशिक परिवर्धित बीजों से खेती करने के बजाय, ह भंडारण की समुचित व्यवस्था करने की जरूरत है।’ ऐसा न होने के कारण हर साल लाखों टन खाद्यान्न खुले में पड़ा रहने से सड़ जाता है। इन सब तथ्यों को रेखांकित करते हुए स्वामीनाथन ने कहा था कि तकनीकी अपनाने से पहले उसके नफा-नुकसान को ईमानदारी से आंकने की जरूरत है। बहरहाल, अमेरिका की भारतीय कृषि और दुग्ध कारोबार को हड़पने की दुर्भावनापूर्ण मंशा से बचने की जरूरत है।
विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल मलोट पंजाब