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अक्षय तृतीया (आखा तीज)_, [वैशाख ]

अक्षय तृतीया (आखा तीज)_, [वैशाख ]

भगवान ऋषभ के समय काल में परिवर्तन के साथ व्यवस्थाओं में भी बदलाव आया था । श्रम करो,शांति से जीओ आदि का नारा पा अनेक नोजवानों ने हाथ आगे बढ़ाया था। उस समय कल्पवृक्ष ने फल देना बंद कर दिया था तब भगवान ऋषभ ने लोगो को कृषि कर्म करना सिखाया था । खेतों में अनाज बोने से हर चीज़ होगी उत्पन्न आदि हर कार्य विधि बहुत सावधानी से बतायी थी ।
परन्तु लोगों के बौद्धिक विकास के अभाव में जितना उनको बताया जाता था उतना ही वे समझ पाते थे उससे आगे करने की विवेक समझ लोगों में नहीं थी ।बैलों को घुमाकर अनाज निकालने की विधि में भूखे बैल ही अनाज सारा खा जाते थे ।तब
चिंतित यौगलिक मिलकर भगवान ऋषभ के पास आएं तो उनको भगवान ऋषभ ने घास की रस्सियों की छींकी बैलों को कैसे लगाए वो समझा दी ।एक दाना भी फालतू नही गया यह सोच किसानों के चेहरे मुस्कुरा गयें । परन्तु भूखें बैलों के सामने रखा
चारा वो भी नहीं खा पाने से वो बहुत विकुलाये।यह सोच लोग वापिस भगवान के पास गये और बोले की ऐसे तो भूख से बैल मर जायेंगे यह कहते हुए इतने व्याकुल हृदय होकर उन्होंने अपनी बात भगवान ऋषभ को बतायी । बैलों के छींकी खोलने की बात से बिल्कुल अनजान किसान सही से समाधान पा हर्षविभोर हो गये ।असि, मसि,कृषि कर्म सिखाने के साथ दंड,सेवा,वर्ण,ग्राम व्यवस्था आदि का दायित्व भी भगवान ने बखूबी निभाया । भगवान ऋषभ ने अपने जीवन के चौरासी लाख पूर्व में से तिरासी लाख पूर्व का समय समाज और राजनीति के लिए ही बिताया। एक लाख पूर्व का लगभग आयुष्य भगवान ऋषभ का बचा था तो
पांचवें देवलोक के नौ लौकांतिक देवों ने भगवान ऋषभ को धर्मतीर्थ की स्थापना करने का निवेदन सुनाया था । उसके बाद
देवों की उपस्थिति में चार हज़ार व्यक्तियों के साथ स्वयं भगवान ऋषभ ने पंचमुष्ठि लोच से अपना दीक्षा महोत्सव सजाया। अपने
साधु जीवन की शुरुआत के साथ ही भगवान के अंतराय कर्मों का विपाकोदय का समय आ गया था ।भिक्षा विधि से अनजान लोगों ने हाथी-घोड़ें,रथ,आभूषण आदि चीजों का निवेदन भगवान को गोचरी के लिये करवाया ।राजा को खाद्य-पदार्थों का आग्रह कौन करें । अन्न दाता को अन्न देने की बात कौन कहे । ऐसी अनेकों कठिनाइयों को पाकर शुद्ध आहार की खोज में बारह मास बीत गए कभी गवेषणा तो कभी ध्यान में लीन प्रभु रहते थे ।
वैशाखी तृतीया की पिछली रात्रि में भगवान के प्रपौत्र श्रेयांश कुमार को एक शुभ स्वप्न आया था । सपने में स्वयं के द्वारा श्यामल बने मेरु गिरी को सींचने से उसके कांतिमान बनने की बात श्रेयांश कुमार समझ नहीं पाये । श्रेयांश कुमार ऐसे सोच ही रहे थे की तभी परदादा ऋषभ उसे नज़र आये । जातिस्मरण ज्ञान से प्रभु के निर्दोष आहार की खोज को वह जान पाये। तत्काल भगवान के पास जाकर उनके चरणों मे विधिवत वंदन कर प्रासुक आहार की श्रेयांश कुमार ने भावना भाई । शुध्द आहार में इक्षु रस के एक सौ आठ घड़े भरे होने की बात भगवान को बताई।
राजकुमार श्रेयांश ने उल्लसित भावना से इक्षुरस का दान दिया था । भगवान ऋषभ ने भी दोनों हथेलियों को सटाकर मुख से इक्षुरस को लगा लिया था । अपने पूर्व में बंधे अंतराय कर्मों के उदय का विपाक इस तरह से सामने में आया था । अनजाने में बारह घंटे बंधी छींकी का परिपाक आज ही के दिन भगवान ने पाया था । अहोदानं की ध्वनि से गगन गुंजायमान हुआ । प्रथम दाता श्रेयांश और प्रथम भिक्षु ऋषभ महान हुए ।स्वयंसिद्ध मुहूर्त्त आखा तीज, वैशाख मास शुक्ल पक्षधारी, इक्षु रस पान से वर्षीतप पारणा करने की यह विधि आदिनाथ प्रभु के भव से शुरू हुई है । आज का पावन पर्व हमें अंतराय कर्म से बचने की शिक्षा देता है।आदिनाथ भगवान ने बिना किसी रागद्वेष के भाव से सिर्फ जब बैल सारा अनाज खा लेते थे तो किसानों के निवेदन पर भगवान ने सिर्फ बैलों को छिंकी बांधने की कही थी ।12 घण्टों तक यह छिंकी बंधे रहने से बैलों को जो कष्ट हुआ उसके परिणामस्वरूप भगवन को कई गुणा मल्टीप्लाई होकर13 महीने9 दिन तक कोई आहार पानी नहीं मिला।उसके बाद दसवें दिन अपने प्रपौत्र को जातिस्मृति ज्ञान होने पर ही गोचरीविधि की जानकारी होने से पारणा हुआ भगवान का।अतःहम शिक्षा लें इससे की जब भगवान नहीं बच सकें तीर्थंकर होते हुए भी सहज भाव से बताने वाले निमित कर्मों से । इसके विपरीत हम तो सामान्य मनुष्य है । हम सब सचेत होकर किसी भी जीव को अंतराय देने से बचने की अपने विवेक से प्रतिज्ञा लेकर कर्मों से हल्के होते हुए कर्म मुक्त होने की तरफ आगे बढ़े।सभी के प्रति यहीं मंगलभाव।
प्रदीप छाजेड़
( बोरावड़ )

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