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लोक से विमुख लोग

लोक से विमुख लोग

हमारा भारतीय समाज लोकानुरागी रहा है। लोक उसकी आत्मा का हिस्सा रहा । लोक के आलोक में ही उसका जीवन दीप्त होता था। लेकिन धीरे- धीरे शहरीकरण ने लोक को हाशिये पर धकेल दिया है। इसका दुष्परिणाम समाज भोग रहा है। हम सब जानते हैं कि लोक का भोजन अमृत रहा है, क्योंकि उसमें शुद्धता की गारंटी हुआ करती थी । आज भी बहुत ह तक वहां शुद्धता बची हुई है। जबकि अनुभव यही बताता है कि शहरी भोजन अब जहर बनता जा रहा। सांसों में घुलता विषैला धुआं और खानपान में मिलावट शहरी जीवन का दुष्परिणाम हो गया है। लोक में रहने वाला समाज सहज रूप से शुद्ध प्रकृति के साथ रहता है ।
चतुर्दिक पसरी हरियाली और नदी – तालाब की समृद्धि, तन-मन दोनों को स्वस्थ बनाए रखती । इधर कभी प्रकृति के संग रहने वाला नागर समाज अब धीरे-धीरे प्रकृति का दुश्मन होता जा रहा है। जबकि सभी जीव प्रकृति के साथ मजे से रहते हैं । तथाकथित विकास के नाम पर मनुष्य पेड़ काट रहा है । वह एक तरह से ‘कालिदास’ बना हुआ है। जिस डाल पर बैठा है, उसे ही काटे जा रहा। लोग नदी को प्रणाम तो करते हैं, पर तुरंत प्रदूषित भी करने लगते हैं। कुछ तो इतने चेतना – शून्य हो जाते हैं कि उनके कारखाने का दूषित जल सीधे जीवनदायिनी नदी समाता रहता है। तंत्र भी इसकी अनदेखी करता है। मनुष्य सुंदर विशाल पहाड़ों को खोद रहा है। उसके दुष्परिणाम भी भोग रहा । फिर भी वह सबक ग्रहण नहीं करता। पहले कहावत थी कि जब गीदड़ की मौत आती है तो वह शहर की ओर भागता है । अब गीदड़ की जगह मनुष्य शब्द का प्रयोग करना चाहिए। धीरे-धीरे अपने ही गांव से मनुष्य का मोह भंग हो रहा है। गांव में गाय पालने वाला व्यक्ति शहर आकर कुत्ते पालने लगता है । यह अजीब सा बदलाव है । गांव का आदमी शहर की ओर भाग रहा है और यहां कुचल कर मर रहा है, बीमार पड़ रहा है। गांव में रहते हुए जिस व्यक्ति के फेफड़े दुरुस्त थे, शहर में आकर वही फेफड़ा प्रदूषण का केंद्र बन गया है। पूरा शरीर बीमारियों का घर बनता जा रहा है।
गनीमत है कि अभी भी गांव की बची-खुची आबादी शहरी व्यामोह में नहीं फंसी । आज भी सुदूर गांवों या वनप्रांतर में कुछ ऐसे लोग या समूह निवास कर रहे हैं, शहरी जीवन से कोई संपर्क ही नहीं रखना चाहते। वे सब अपनी दुनिया में मगन हैं, यानी प्रकृति के साथ जुड़े हुए हैं। जैसे गांव से गंवईपन गायब होता जा रहा है, उसी तरह साहित्य से भी लोक-विमर्श धीरे-धीरे गायब होता जा रहा है । उसकी जगह महानगरीय जीवन और उसके संक्रमण केंद्र में आते जा रहे हैं । कहानी, कविताओं में, उपन्यासों में गांव की सोंधी खुशबू गायब है। अब जो नया साहित्य रचा जा रहा है, उसमें नग्नता की खुली वकालत है। नैतिकता अब चलन से बाहर मान ली गई है और आधुनिक होने की परिभाषा अलग मान ली गई है, जिसमें नैतिकता की जगह नहीं है। यह अजीब किस्म की उलटबांसी है । कुछ लोगों को लगता है कि यह देश 1947 में अस्तित्व में आया । उसका हजारों साल पुरानी परंपराओं से कोई वास्ता नहीं ।
जैसे-जैसे हम लोक विमर्श या लोक जीवन से दूर होते जा रहे हैं, लोक ही क्या, अपने अतीत से ही हमारा विश्वास उठता जा रहा है। समाज में आत्महीनता या पतन आ रहा है और यह साहित्य में भी स्वाभाविक रूप से आ रहा है । हम प्रेमचंद की कहानियां पढ़ते हैं, तो उसमें लोक-विमर्श दिखाई देता है। परंपरा के प्रति लगाव भी नजर आता है । उनकी पूर्व संस्कार’ जैसी कहानी की कहीं चर्चा नहीं होती। वेद व्यास जी का लोकप्रिय कथन है, ‘प्रत्यक्षदर्शी लोकानाम सर्वदर्शी भवेन्नरः ‘ । लोक जीवन को प्रत्यक्ष रूप से देखे बगैर हम मानव जीवन को ठीक से नहीं समझ सकते । इसलिए हमारे विमर्श के केंद्र में लोक- दर्शन होना चाहिए । लेकिन भारतीय समाज धीरे-धीरे इतना आधुनिक होता जा रहा है कि उसे लोक की बात करना पिछड़ापन लगने लगा है। लोक-संस्कृति, लोक-कला, लोक वाद्य, लोक की वेशभूषा, लोक – पर्व, लोक के उत्पाद – इन सबसे जैसे मोह भंग होता गया है। अब तथाकथित ‘ब्रांडेड’ वस्तुओं की ओर भागने का दौर है। बोतलबंद पानी पी सकते हैं, लेकिन तांबे या मिट्टी के घड़े में रखा हुआ पानी पीने से परहेज किया जाता है । धोती-कुर्ते वाला व्यक्ति हमें दूसरे लोक से आया हुआ प्राणी लगता है। साड़ी में लिपटी हुई स्त्री हमें पिछड़ी हुई प्रतीत होती है। गाय-भैंस को उपेक्षित करने वाला व्यक्ति जब विदेशी नस्ल का कोई कुत्ता पालता है, तो उसे लोग ‘एनिमल लवर’ या ‘पशु-प्रेमी’ कहने लगते हैं । यह तथाकथित परिवर्तन उत्थान है या सामाजिक पराभव, इस पर अब बात करना बेमानी है। लोग अपनी सुंदर परंपराओं, संस्कृतियों और कुछ बेहतर शाश्वत मूल्यों से दूर होते चले जा रहे हैं। ऐसा लगता है, यह लोक विमुखता अब बढ़ती ही जाएगी।
विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल शैक्षिक स्तंभकार स्ट्रीट कौर चंद एमएचआर मलोट पंजाब

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