रहें सदा प्रसन्न मन
रहें सदा प्रसन्न मन
हमारा जीवन एक दूसरे पर आश्रित है एक का प्रभाव दूसरे पर निश्चित ही पड़ता है । विचारो में भिन्नता होना स्वाभाविक है क्योंकि सभी के कर्म संस्कार भिन्न भिन्न होते है।लेकिन मनकी भिन्नता में हमारी विवेक शक्ति काम करती है। विचारों के आदान-प्रदान में मतभेद तो हो सकता हैं | हर के भिन्न विचार होना भी ग़लत नहीं हैं परन्तु यह दोगला पन असली-नक़ली की परत तन-मन-वचन-जीवन की एकरूपता आदि को खंडित करता है। जिसके मन में गठबंधन ही मनभेद का सृजन करते है।
यही मनभेद नीचता व क्रूरता में भी बदल जाता है जिसके कारण विघटन की कारगुज़ारी होती है। हम मन की भिन्नता को मिटाकर सहज ,सरल बनकर ,विवेक का सदुपयोग करके शांतिपूर्वक जी सकते है।परस्पर सौहार्द हमारा सबके साथ हो ।
ऐसे में सच्चे को अपनाना व करना सदैव बुरे का प्रतिकार | विश्वास सदा ही होगा जहां रिश्तों का होगा आधार। मतभेद और भेदभाव को जहाँ न मिले कभी आहार। आपसी सामंजस्य ही रखना जहाँ पे हो यही संस्कार। गलती हम से हो जाये तो माफी मांगने में संकोच न करे और दूसरे से हो जाये तो सरल हृदय से सामने वाले को माफ कर दें और शुध्द मन रखते हुए प्रसन्नचित रहे। हमारा दृष्टिकोण सकारात्मक रहे हमेशा तो हम माफी मांगने और माफ करने में कभी संकोच नहीं कर सकते।सरल हृदय से माफी मांगने और देने वाले हमेशा आत्मा को उज्ज्वल बना सकते हैं | हमारा हृदय अगड़म-बगड़म कूड़ा-करकट भरने की टोकरी नहीं है । यह प्रसन्नता व मधुर स्मृतियाँ को सँजोने का स्वर्ण पात्र हैं । इसी उद्देश्य के लिए मात्र हम इसका सदुपयोग करे । ताकि सदा प्रसन्न मन रहकर सुस्वास्थ्य का जीवन धन पा सके ।
प्रदीप छाजेड़
( बोरावड़ )