शादी की भेंट चढ़ता प्रतिभावान महिलाओं का कैरियर
आज शादी के बाद लड़कियों से पहले जैसी अपेक्षाएं नहीं रखी जातीं लेकिन कुछ महिलाएं आज भी ससुराल में जद्दोजहद करती हुई पाई जाती हैं। शादी के बाद लड़कियों पर जिम्मेदारी होती है कि वे सास-ससुर की सेवा करें। उनको खुश रखें। रिश्तेदारों के साथ निभाने की जिम्मेदारी भी उन पर ही होती है। इससे उनका काम कई गुना बढ़ जाता है। जो लड़कियां शादी के बाद नौकरी करती भी हैं तो उनको पहले से तीन गुना काम करना पड़ता है। उस समय वो जवान होती हैं, उनका शरीर अच्छे से काम करता है इसलिए हर जिम्मेदारी निभाती रहती हैं लेकिन चालीस की उम्र के बाद उनको कई शारीरिक परेशानियां होने लगती हैं। परिवार का साथ नहीं मिलता तो पचास की उम्र तक आते-आते उनको अपने कैरियर का त्याग करना पड़ता है क्योंकि अपनी शारीरिक परेशानियों की वजह से वो तनाव में रहने लगती हैं। जिसका असर ऑफिस में उनके काम पर पड़ने लगता है। जितना काम वो पहले कर रही होती हैं, उतना नहीं कर पातीं। जाहिर है, इससे कंपनी को परेशानी होगी ही । बार-बार छुट्टियां करने से भी कंपनी को उनसे दिक्कत होने लगती है। इन दिक्कतों के चलते कुछ लड़कियों को अपनी नौकरी छोड़नी पड़ती है। डिटेक्टिव गुरु राहुल राय गुप्ता कहते हैं, हाल ही में हमने अतुल सुभाष का केस देखा। इंटरनेट पर पत्नी पीड़ितों की बाढ़ आ गई।
हर कोई महिलाओं को दोषी ठहरा रहा है। मैंने भी इस पर कई बार बात की है और तीखी प्रतिक्रिया दी है लेकिन मैं अपने आसपास कई ऐसी महिलाएं भी देखता हूं, जो बहुत प्रतिभाशाली हैं, बहुत कुछ करने की ताकत रखती हैं लेकिन शादी के बाद उनकी वो ताकत कहीं खो जाती है। पूरे घर परिवार की जिम्मेदारी उन पर आ जाती है। हमने कभी नहीं सुना कि शादी के बाद किसी लड़के को अपने कैरियर का त्याग करना पड़ा। आजकल एक-दो मिसाल ऐसी सुनने को जरूर मिलती है कि पत्नी के साथ रहने के लिए पति ने अपना ट्रांसफर करवा लिया या जहां पत्नी का ट्रांसफर हुआ, वहां उसके साथ जाने के लिए पति ने अपनी नौकरी छोड़ दी। इन मिसालों को छोड़कर ज्यादातर केसेज में लड़कियों को ही अपने कैरियर का बलिदान देना पड़ता है। मेरे पास ऐसे कितने ही केस आते हैं, जहां बड़ी पोस्ट पर होने के बावजूद लड़कियों के साथ बदसलूकी होती है। वो अपनी जिम्मेदारियां निभाती रहती हैं और पति का अफेयर कहीं और चल रहा होता है। फिर भी पति, सास-ससुर, यहां तक कि उसके अपने पेरेंट्स, उसे ही महत्वाकांक्षी बताकर कटघरे में खड़ा कर देते हैं।
कब बदलेगी हमारी सोच आज लड़कियां हर क्षेत्र में सफल हो रही हैं। बड़े-बड़े पदों पर हैं लेकिन फिर भी कुछ लोगों की सोच नहीं बदली है। वो लड़कियों को कमतर ही समझते हैं। घर में लड़की पैदा होने पर मातम मनाते हैं। कम लोग हैं, जिनके घर में बेटी के जन्म पर खुशियां मनाई जाती हैं। बेल बजाए जाते हैं।
मिठाईयां बांटी जाती हैं। कई घरों में आज भी केवल लड़कियों को ही घरेलू काम सिखाए जाते हैं। उनको बताया जाता है कि वो पढ़ाई न करके रसोई का काम करें। आखिर में वही उनके काम आएगा। कुछ घरों में कई पीढ़ियों तक यही सब चलता रहता है। लड़कियों को अपना टैलेंट दिखाने का मौका तक नहीं दिया जाता। ऐसा समाज की गली सड़ी सोच के कारण ही होता है। केवल ससुराल वाले ही नहीं, लड़की के पेरेंट्स और भाई-बहन भी यही सोचते हैं कि ससुराल में जाकर उसे काम तो करना ही पड़ेगा। ये तो उसकी ड्यूटी है। इसी पुरानी सोच के कारण ही बहुत-सी लड़कियां हार मान लेती हैं। वो पहले पेरेंट्स से और बाद मैं ससुराल वालों से लड़ते-लड़ते थक जाती हैं। फिर एक दिन ऐसा आता है कि वो खुद को उसी माहौल में ढाल लेती हैं। घर में रहकर सारी जिम्मेदारियां निभाते हुए जिंदगी गुजारती हैं।
इसमें कोई बुरी बात नहीं है लेकिन ऐसा उनकी मर्जी से होना चाहिए। फेमस टीवी एक्ट्रेस दीपिका कक्कड़ ने अपनी मर्जी से टीवी का कैरियर छोड़ा और घर पर रहने लगीं। उन्होंने बिग बॉस का शो भी जीता था। वो घर पर रहकर ही अपने ब्लॉग बनाती हैं। उनको एड भी मिलते हैं। तो ये कह सकते हैं कि वो घर से काम कर रही हैं, अपनी मर्जी से, अपनी खुशी से लेकिन उनको ऐसी कितनी ही कमेंट्स मिलती हैं कि उन्होंने अपना बुरा हाल बना रखा है। उसके पति शोएब को लोग कहते हैं कि इतनी अच्छी और प्रतिभावान एक्ट्रेस को नौकरानी बना दिया है। कितनी बार दीपिका और शोएब को इसका जवाब देना पड़ता है क्योंकि इतने जहरीले कमेंट पढ़कर उनको लगता है कि लोगों को जवाब दिया जाए। दीपिका ने अपने कई इंटरव्यूज में बताया भी है कि वो हमेशा से ही हाउसमेकर बनना चाहती थी। लेकिन वो हाउसमेकर के साथ-साथ बिजनेसवूमैन भी है, जो घर संभालते हुए अच्छा-खासा पैसा कमा रही हैं। बीच-बीच में गाने भी करती हैं। ये उनकी मर्जी है कि वो काम करने का क्या तरीका चुनें। हमारे समाज में इसी तरह का दोगलापन है।
इसी सोच के कारण लड़कियों को अपना बहुत कुछ खोना पड़ता है। चाहिए पूरे समाज का साथ लड़कियों को शादी के बाद अपने कैरियर का त्याग न करना पड़े, इसके लिए पूरे समाज को आगे आना होगा। अगर हर घर में लड़के भी घरेलू कामों में बराबर का सहयोग दें तो लड़कियों का जीवन काफी हद तक सुधर सकता है क्योंकि जब लड़के काम करेंगे तो जब वो पति बनेंगे तो घर का काम केवल पत्नी पर नहीं छोड़ेंगे। पत्नी को केवल इसलिए अपने कैरियर के साथ समझौता नहीं करना पड़ेगा कि उसे घर का काम करना है। घर संभालना है। जब घरों में लड़के- लड़की के अंतर को खत्म किया जाएगा तो आने वाली पीढ़ी खुशहाल बनेगी। लड़कों के अंदर मेल ईगो पैदा ही नहीं होगा। लड़कियां अपनी प्रतिभा का पूरा फायदा ले पाएंगी। घर का काम पति-पत्नी दोनों मिलकर करेंगे। पेरेंट्स को अस्पताल लेकर जाने, उनके बाकी काम करने की जिम्मेदारी दोनों की होगी। रिश्तेदारों के साथ निभाने की जिम्मेदारी दोनों की होगी। सोशल सर्कल से डील करने की जिम्मेदारी दोनों की होगी । त्यौहार मनाने के लिए जो तैयारियां करनी पड़ती हैं, उसकी जिम्मेदारी दोनों की होगी।
इससे पत्नी पर काम का अतिरिक्त बोझ नहीं पड़ेगा और वो अपना काम अच्छे से कर पाएगी। ऑफिस समय पर पहुंचेगी, उसकी परफॉर्मेंस अच्छी होगी। प्रमोशन भी मिलेगा। वो खुश रहेगी तो स्वस्थ रहेगी। उसे तनाव नहीं होगा। उसका मानसिक स्वास्थ्य अच्छा रहेगा। घर का माहौल खुशियों भरा होगा। इससे आने वाली पीढ़ी पर भी सकारात्मक असर होगा। आसपास के लोगों पर भी इसका असर पड़ेगा। आपकी खुशी को देखकर उनको भी लगेगा कि पति पत्नी को मिलकर घर चलाना चाहिए। इसी से समाज में बदलाव आएगा।
■ शिक्षण से परे
तनाव समकालीन जीवन का पर्याय बन गया है। की जरूरत है यह स्वीकार करने का समय है तनाव स्थानिक है और यह समझने के लिए कि इसे इस तरह से कैसे संभालना है जो जीवन को जीवंत और पूर्ण रहने की अनुमति देता है। अक्सर एक सुरक्षित और के रूप में खारिज कर दिया आसान काम ‘, समकालीन अध्ययनों से पता चलता है कि जब तनाव और बर्नआउट की बात आती है तो शिक्षण उच्च रैंक करता है। Im के बावजूद इसमें जिम्मेदारी शामिल है, शिक्षण में एक कैरियर ज्यादातर व्यवसायों की तुलना में आर्थिक रूप से कम आकर्षक बना हुआ है। एक शिक्षक बर्नआउट को कैसे रोक सकता है और एनडी अधिक पूर्ण तत्व एन उनके जीवन को रोक सकता है? एक व्यवसाय अपने आप को याद दिलाएं कि आपने शिक्षक बनने के लिए क्यों चुना। शायद आप अपने शिक्षकों से प्रेरित थे या महसूस करते थे कि बच्चों के साथ काम करने से आपको खुशी मिलती है। तनाव के समय इसे याद रखने से मदद मिल सकती है आप उन तत्वों से जुड़े रहते हैं जो शिक्षण को व्यवसाय बनाते हैं न कि केवल ‘नौकरी’। शामिल करने के लिए अपनी दिनचर्या की योजना बनाएं नियमित आत्म-देखभाल।
पर्याप्त नींद लेना, नियमित रूप से व्यायाम करना (20 मिनट की सैर या योग करना), समय पर भोजन करना, और परिवार और दोस्तों के साथ गुणवत्ता का समय आपके जीवन का एक हिस्सा होना चाहिए। शौक और जुनून की खेती करें जो आपको विघटित करने की अनुमति देते हैं। इसे पढ़ना, क्रोचिंग, कढ़ाई, पेंटिंग, ओरिगामी और पेपरक्राफ्ट, बागवानी, या स्वयंसेवक काम करते हैं, शिक्षण से परे अपनी प्रतिभा का पता लगाते हैं नियमित पुन: ection और माइंडफुलनेस प्रथाओं या कुछ ऐसा करने के लिए समय निकालें जो आपको ‘प्रेस पॉज़’ करने और अपनी आवश्यकताओं का जायजा लेने की अनुमति देता है। यह एक डायरी लिखने के रूप में सरल हो सकता है, का उपयोग कर YouTube वीडियो नई चीजों को सीखने और अभ्यास करने के लिए, या सुखदायक संगीत सुनने के लिए। हमारे साथियों के साथ अनुभवों, चुनौतियों और सफलताओं को साझा करके एक मजबूत समर्थन प्रणाली का निर्माण करें। आपके सहयोगियों के होने की अनूठी चुनौतियों के साथ सहानुभूति रखने की सबसे अधिक संभावना है एक अध्यापक।
वे विभिन्न परियोजनाओं पर व्यावहारिक सलाह, संरक्षक और सहयोग कर सकते हैं। समूह गतिविधियों में भाग लेना साथी शिक्षकों के साथ जुड़ने और बंधन बनाने का एक शानदार तरीका भी है, इसे व्यंजनों, पोटलक, या पोस्ट स्कूल वार्तालाप के माध्यम से साझा करें। के छोटे ‘जीत’ का जश्न मनाएं अपने शिक्षार्थियों ताकि ध्यान केंद्रित बड़े परिणामों पर (जैसे परीक्षण परिणाम) भारी महसूस नहीं करता है। क्या एक संघर्षशील छात्र ने आज एक नई अवधारणा को समझा? क्या आपने एक शांत छात्र तक पहुंचने का प्रबंधन किया? ये छोटे उपलब्धियां महत्वपूर्ण हैं और अपनी प्रेरणा को ऊंचा रखें। यात्रा करने और नए स्थानों की खोज करने के लिए डाउनटाइम के रूप में अकादमिक ब्रेक का उपयोग करें जो आपको मानसिक और भावनाओं को रिचार्ज करने की अनुमति देते हैं सहयोगी। शिक्षण उचित अवकाश लेने के लिए निर्धारित ब्रेक और ओ ers समय के साथ आता है। इन सबसे ऊपर, शिक्षण एक रचनात्मक पेशा है, इसलिए उन शांत बनाने की प्रक्रिया का आनंद लें वर्कशीट और पाठ योजना। एक मजाक या दो को हर बार क्रैक करें, छात्रों को लचीलापन, ध्यान और अनुशासन के लिए अपनी क्षमता का निर्माण करते हुए जीवन के हल्के पक्ष को देखने में मदद करें। औपचारिक कार्यक्रम तनाव के प्रबंधन के साथ शिक्षकों का समर्थन करना एक ऐसी चीज है जिस पर सभी शैक्षणिक संस्थानों को अपने जीवन में अधिक संतुलन शामिल करने के लिए रास्ते बनाकर ध्यान केंद्रित करना चाहिए।
कुछ संस्थानों में अक्सर औपचारिक सलाह कार्यक्रम और सहयोगी समूह होते हैं जो शिक्षकों को नियमित माइंडफुलनेस सत्र, गतिविधियों, शौक क्लबों और वेलनेस सेमिनार आयोजित करने जैसे अधिक सहायक तरीकों से एक-दूसरे से जुड़ने की अनुमति देते हैं। उन संस्थानों में जो औपचारिक रूप से भलाई प्रक्रियाओं में निवेश करने में सक्षम नहीं हो सकते हैं, सदस्य समूह गतिविधियों के आयोजन में नेतृत्व कर सकते हैं ताकि उन्हें आराम और आराम करने में मदद मिल सके। उस खुशी को कोई नकार नहीं सकता शिक्षक खुश शिक्षार्थियों की ओर ले जाते हैं। शिक्षा सिर्फ शिक्षण से कहीं अधिक है; यह बच्चों की पीढ़ियों को वयस्क बनने में सक्षम बनाने के बारे में है जो अपनी जरूरतों और प्राथमिकताओं को संतुलित कर सकते हैं और अपने आसपास की दुनिया को स्वस्थ और आकार दे सकते हैं खुश तरीके।
■ मोबाइल शिष्टाचार भी
कल मेरे एक मित्र घर आए। मैं लैपटॉप पर कुछ काम कर रहा था। उनके आते ही मैंने उसे बंद कर उनका अभिवादन किया। दुआ-सलाम भी ठीक से नहीं हुई थी कि उनका फोन घनघना उठा और वह व्यस्त हो गए। बात खत्म होने के बाद भी वह निरपेक्ष भाव से सिर झुकाए मोबाइल पर कुछ खोजने की मुद्रा में रहे। इधर मैं बात के इंतजार में था। जब वह लगातार व्यस्त दिखे तो मैं भी कंप्यूटर को दोबारा होश में ले आया। हालांकि, मुखातिब उनकी ओर ही रहा। थोड़ी देर में वह बोले, अच्छा चला जाये।
सोचिए आप किसी के घर जाएं। वह अपने दस काम छोड़ आपकी अगवानी करे, और आपका फोन है कि आपको छोड़ ही नहीं रहा। मान लीजिए इसका उल्टा हो जाए। आप किसी के यहां जाएं और वह अपने फोन पर व्यस्त रहे तो…। घर के अलावा हालत यह है कि कुछ लोग ऑफिस पहुंच कर भी अपने फोन से बाहर नहीं निकल पाते। बहुत जरूरी सूचना की तो बात अलग है, लेकिन बेकार के मीम या क्लिप में समय बिताना कितना ठीक है?
जानकारों, मनोवैज्ञानिकों ने इस लत के लिए कुछ सुझाव दिए हैं। फोन का भी अपना शिष्टाचार होना चाहिए। सबसे पहले तो फोन आने या करने पर अपना स्पष्ट परिचय दें। फोन करते समय सामने वाले का गर्मजोशी और खुशदिली से अभिवादन करें। बात करते समय किसी का भी तेज बोलना या चिल्लाना अच्छा नहीं माना जाता। गलती से गलत नंबर लग जाए तो क्षमा जरूर मांगें। जब भी आपसे कोई आमने-सामने बात कर रहा हो तो मोबाइल पर बेहद जरूरी कॉल को छोड़ न ज्यादा बात करें न ही स्क्रॉल करें। वहीं ड्राइविंग के वक्त, खाने की टेबल पर, बिस्तर या टॉयलेट में तो खासतौर पर मोबाइल न ले जाएं। अपने कार्यस्थल या मीटिंग के दौरान फोन साइलेंट या वाइब्रेशन पर रखें और मैसेज भी न करें। धार्मिक स्थलों, बैठकों, अस्पतालों, सिनेमाघरों, पुस्तकालयों, अन्त्येष्टि इत्यादि पर बेहतर है कि फोन बंद ही रखा जाए।
कइयों की आदत होती है दूसरों के फोन में ताक-झांक करने की जो कतई उचित नहीं है। बिना वजह कोई भी एसएमएस दूसरों को फारवर्ड न करें, जरूरी नहीं कि जो चीज आपको अच्छी लगे वह दूसरों को भी भाए। ध्यान में रखने की बात यह है कि यदि आधुनिक यंत्रों का आविष्कार हमें सुख-सुविधा प्रदान कर रहा है तो हमारा भी फर्ज बनता है कि हमारी सहूलियतें दूसरों की मुसीबत या असुविधा न बन जाएं।
■ मर्ज का फर्ज
सर्वविदित है कि देश की विशाल आबादी पर चिकित्सकों की उपलब्धता वैश्विक मानकों के अनुरूप नहीं है। यूनेस्को कई बार बता चुका है कि भारत के कई स्थानों पर एक हजार व्यक्तियों पर एक चिकित्सक भी उपलब्ध नहीं है। ऐसे में यदि देश के कई मेडिकल कॉलेजों के चिकित्सा पाठ्यक्रमों में सीटें खाली रह जाएं तो इसे देश के लिये विडंबना ही कहा जाएगा। इस ज्वलंत मुद्दे पर देश की शीर्ष अदालत ने संज्ञान लेते हुए निर्देश दिए कि इस माह के अंत तक देश के सभी मेडिकल कालेजों के चिकित्सा पाठ्यक्रमों में रिक्त पड़ी सीटों को तुरंत भरा जाए। जाहिर है जब देश में पहले से ही डॉक्टरों के कमी है तो ये सीटें क्यों खराब की जा रही हैं? निश्चित रूप से समाज के अंतिम व्यक्ति को चिकित्सा सुविधा उपलब्ध कराने में शीर्ष अदालत की यह पहल बदलावकारी साबित हो सकती है। देश में चिकित्सकों की कमी को देखते हुए पिछले दिनों बड़ी संख्या में नये मेडिकल कालेज खोले गए हैं, लेकिन इनमें सीटों की संख्या दुगनी हो जाने के बाद भी डॉक्टरों की कमी बनी हुई है। वैसे निजी अस्पतालों में तो डॉक्टरों की कमी नहीं है, लेकिन सार्वजनिक अस्पतालों व डिस्पेंसरियों में डॉक्टरों की कमी बराबर बनी रहती है। खासकर ग्रामीण इलाकों में तो स्थिति बहुत खराब है।
यही वजह है कि देश के बड़े चिकित्सा संस्थानों मसलन एम्स व पीजीआईएमईआर जैसे संस्थान मरीजों के दबाव से चरमरा रहे हैं। साथ ही चिकित्सक बेहद दबाव में काम कर रहे हैं। यह सुखद ही है कि देश की शीर्ष अदालत ने इस संकट की गंभीरता को महसूस करते हुए निर्देश दिए हैं कि इस महीने के अंत तक काउंसलिंग करा कर उन सीटों को तुरंत भरा जाए। निश्चित रूप से इस पहल से देश के सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं की गुणवत्ता को संबल मिल सकेगा।
निस्संदेह, यह तार्किक है कि चिकित्सा पाठ्यक्रम में दाखिले को लेकर देश में भारी मारामारी है। इसकी वजह यह है कि मेडिकल की पढ़ाई के बाद कमोबेश रोजगार पाना गारंटी जैसी होता है। उनके लिये विदेशों में भो रोजगार के आकर्षक अवसर होते हैं। अन्यथा निजी अस्पताल खोलकर भी वे अपना शानदार करिअर बना सकते हैं। लेकिन सबसे बड़ा सवाल हमारे गांवों में चिकित्सा सुविधाओं के नितांत अभाव का होना है। ऐसा नहीं है कि इस चुनौतीपूर्ण स्थिति का सरकार को भान नहीं है। सरकार भी मानती है कि देश के ग्रामीण इलाकों के अस्पतालों अथवा सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में विशेषज्ञ डॉक्टरों की उपलब्धता तो दूर सामान्य डॉक्टरों की मौजूदगी भी कम ही है। इस संकट का समाधान तभी संभव है जब देश में अधिक मेडिकल कालेज खुलें और उनकी सभी सीटों को भरा जाए। वहीं दूसरी ओर डॉक्टरों को ग्रामीण इलाकों में काम करने के लिये प्रेरित किया जाए। उन्हें वेतन तथा प्रोन्नति के विशेष अवसर दिए जाएं। अनिवार्य रूप से तय किया जाए कि मेडिकल कालेजों से निकलने वाले चिकित्सक कुछ प्रारंभिक वर्षों तक ग्रामीण क्षेत्रों में अपनी सेवाएं दें। इस बात पर मंथन किया जाना चाहिए कि विगत में हुए ऐसे प्रयास क्यों सिरे नहीं चढ़ पाए।
इसके अलावा दुनिया के अनेक देशों से मेडिकल की पढ़ाई करके आने वाले डॉक्टरों को आवश्यक अर्हताएं पूरी करने पर डॉक्टरी करने की सुविधा प्रदान की जाए। किसी भी लोक कल्याणकारी सरकार का दायित्व बनता है कि गरीबी की रेखा के नीचे रहने वाले तथा कमजोर वर्गों के लोगों को सस्ती चिकित्सा सुविधा उपलब्ध करायी जाएं। ये लोग महंगे निजी अस्पतालों की चौखट तक पहुंचने की क्षमता नहीं रखते। सरकार ने आयुष्मान योजना जैसी कई पहल तो की हैं, लेकिन ध्यान रखना जरूरी है कि इन योजनाओं के क्रियान्वयन में व्यवस्थागत दिक्कतें पैदा न हों। सरकारों का नैतिक दायित्व बनता है कि हाशिये के समाज को सस्ती व सहज रूप से चिकित्सा सुविधाएं मिल सकें। उन्हें विशेषज्ञ चिकित्सकों की उपलब्धता का भी लाभ मिल सके। साथ ही नीति-नियंताओं के लिये यह आत्ममंथन का विषय है कि देश चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में नई खोजों व अनुसंधान में पीछे क्यों रह गया है। साथ ही देश की परंपरागत चिकित्सा पद्धतियों को प्रोत्साहन भी जरूरी है।
■ कहानी
मेहनत
हरियाणा के एक छोटे से गाँव में रामू नाम का एक लड़का रहता था। रामू बचपन से ही बहुत होशियार और मेहनती था। उसके माता-पिता किसान थे और खेती-बाड़ी से घर का गुजारा चलता था। हालाँकि उनके पास ज़्यादा जमीन नहीं थी, लेकिन रामू के पिता ईमानदारी और मेहनत से काम करते थे।
रामू को पढ़ाई का बहुत शौक था, लेकिन गाँव में सिर्फ़ एक प्राइमरी स्कूल था। उसके आगे की पढ़ाई के लिए उसे पास के कस्बे में जाना पड़ता। रामू हर रोज़ सुबह जल्दी उठता, खेतों में अपने पिता की मदद करता और फिर दस किलोमीटर दूर कस्बे के स्कूल में पढ़ने जाता।
एक दिन गाँव में एक बड़ा मेला लगा। रामू ने अपने दोस्तों से सुना कि मेले में एक जादूगर आया है जो अजीबो-गरीब करतब दिखाता है। रामू भी मेला देखने गया और वहाँ उसने देखा कि जादूगर ने एक बीज को मिट्टी में डाला और पल भर में वहाँ एक बड़ा पेड़ उग आया। रामू यह देखकर हैरान रह गया।
वह जादूगर के पास गया और पूछा, “बाबा, ये जादू आपने कैसे किया?”
जादूगर मुस्कुराया और बोला, “यह जादू नहीं, मेहनत और धैर्य का फल है। मैंने बस तुम्हें यह समझाने के लिए जल्दी दिखाया, लेकिन असल में बीज को पेड़ बनने में समय और देखभाल लगती है। जैसे तुम अपने सपनों को पूरा करने के लिए मेहनत कर रहे हो, वैसे ही इस बीज को भी समय और मेहनत चाहिए।”
रामू को जादूगर की बात समझ में आ गई। वह और भी लगन से पढ़ाई करने लगा और कुछ सालों बाद वह अपने गाँव का पहला लड़का था जिसने शहर जाकर बड़ा अफसर बनने का सपना पूरा किया। उसने अपने माता-पिता और गाँव का नाम रोशन किया।
यह कहानी हरियाणा के उस छोटे से गाँव की है, जहाँ से रामू ने अपनी मेहनत और लगन से साबित किया कि सपनों को पूरा करने के लिए जादू की नहीं, बल्कि मेहनत की ज़रूरत होती है।
विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्राचार्य शैक्षिक स्तंभकार गली कौर चंद एमएचआर मलोट