समर्पण
अगर हमारा धर्म के प्रति समर्पण होगा तो हमे इसका अलग ही
परिणाम मिलेगा ।बशर्ते निष्काम भाव से व पूर्ण विश्वास से हो ।
समर्पण एक पूर्ण भाव धारा है जो इंसान को २४ केरेट सा शुद्ध और खरा बना दे। समर्पण ऐसे हो जो मोक्ष के साथ योग करा दे जैसा मरुदेवी माता के साथ हुआ। समर्पण -ध्यान-एकाग्रता-ज्ञानयोग सब भक्ति की पराकाष्ठा हैं सरल हृदय का योग हैं। इस धारा मे बहनेवाला भक्त भगवान बन जाता हैं । आत्मा परमात्मा में लीन वामन विराट और जीव शिव बन जाता हैं। दूध में शक्कर की तरह परमात्मा से एकमेक होने के लिए गुड में मिठास की तरह भक्ति को आत्मसात करने के लिए कहा हैं अर्पणम-समर्पण-श्रद्धा चंदनम-शुभ्र भाव पाद वंदनम । समर्पण में श्रद्धा का महत्व ज्यादा होता है ।जिस पर श्रद्धा होती है उसी पर समर्पण होता है ।जिस पर श्रद्धा नहीं होती उस पर समर्पण भी नहीं होता हैं ।जब श्रद्धा किसी व्यक्ति पर होती है और उसके प्रति समर्पण होता है तो समर्पण करने वाले को विशेष सुख मिलता है ।जब श्रद्धा भगवान के प्रति होती है और व्यक्ति भगवान के प्रति पूर्ण समर्पण कर देता है तो उसे विशेष आनंद मिलता है ।इसीलिए योगी आदमी भगवान से योग लगाते हैं और अपने आप को पूर्ण समर्पित कर देते हैं तो वे सुख,शांति और परमात्मा का आनंद लेते हैं ।समर्पण क्यों करना चाहिए ?क्योंकि जब तक समर्पण नहीं होता हैं तब तक सच्चा सुख नहीं मिलता हैं । सच्चे सुख की प्राप्ति के लिए समर्पण किया जाता है ।समर्पण यदि कपटपूर्ण है तो सुख भी दिखावा मात्र ही होगा । समर्पण से ही आत्मा के परमात्मा से दर्शन होतें हैं।इसलिये कहा जाता हैं कि जो बताया गया है शास्त्रों द्वारा, गुरुजनों द्वारा,उसे बिना शंका के स्वीकार करो। पूर्ण आस्था से समर्पण से अंगीकार करो। समर्पण से ही आत्मा के परमात्मा से दर्शन होतें हैं।
प्रदीप छाजेड़
( बोरावड़ )