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आहार की ऊर्जा

admin
Last updated: जनवरी 15, 2025 8:49 पूर्वाह्न
By admin 14 Views
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7 Min Read
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आहार की ऊर्जा

जीव-जगत और जीवन इनके आसपास ही तमाम विचार, मत और मतांतर जन्म लेते हैं, विस्तारित होते रहते हैं और विविध रूप- स्वरूपों में दुनिया के लोक मानस में दर्ज हो जाते हैं। ये विविध विचार और मत-मतांतर निरंतर कालक्रम के अनुसार लोक मानस की स्मृतियों में उदित या अस्त होते ही रहते हैं। जगत में व्याप्त अनेक मत-मतांतर में गहराई से झांकने से यह बात एकदम समझ आने लगती है कि अलग-अलग मनुष्य अपने आसपास को कैसे देखते, सोचते और समझते है ! इसका ज्ञान स्वयं को और दूसरों को या समूची दुनिया जहान को भी होता रहता है । यों मत या राय भी एक विचार ही है और मतांतर भी विचार से अलहदा एक और विचार ही है। किसी भी जीव को जीवन को ऊर्जावान बनाए रखने के लिए नियमित आहार की जरूरत अनुसार निरंतर मिलते रहना जीवन की अनिवार्य आवश्यकता है।
मनुष्य और मनुष्येतर जीव की आहार प्रक्रिया में भोजन की प्राकृतिक शृंखला एक समान है। जलचर, नभचर और थलचर- तीनों श्रेणी के जीव अपनी प्राकृतिक आहार श्रृंखला पर मूलतः निर्भर हैं। इसके बावजूद मनुष्य समाज ने आहार श्रृंखला में इतने अधिक मत मतांतरों की रचना की है, वह मनुष्यों के आहार क्रम के इतिहास का एक अलग और अनोखा आयाम है। मनुष्येतर जीव, जो स्वतंत्र हैं, उनका जीवन प्रकृति में जो भी उनकी आहार श्रृंखला के रूप में उस जगह उपलब्ध है, कमोबेश उसी पर उनके समूचे जीवनकाल में आहार की प्राकृतिक निर्भरता चलती रहती है। अगर कोई जीव मनुष्य का पालतू साथी सहयोगी है तो पालनकर्ता मनुष्य, जो आहार उन्हें खिलाता है, उसी पर उन्हें निर्भर होना होता है । पर दुनिया भर के मनुष्य अपने आहार को लेकर कभी संतुष्ट नहीं होते हैं। साथ ही दूसरे मनुष्य के खान-पान, रहन-सहन पर अनेक प्रकार के सवाल मनुष्यों में हर समय बिना रुके और सोचे-समझे अंतहीन विध्वंसक या अनर्गल टीका-टिप्पणियां जाने अनजाने चलती रहती हैं। इसके उलट या अलावा कुछ न कुछ नया करने और खोजते रहने की एक अंतहीन और अनोखी शृंखला भी मानवीय चिंतन प्रक्रिया में साफ दिखाई पड़ती है।
मनुष्य एक तरह से अपनी अनियंत्रित मनमर्जी का मालिक है। मनुष्य अकेला ऐसा प्राणी है जो अकेले अपने पोषण के लिए ही महज आहार नहीं करता, अपनी रुचि, स्वाद और हैसियत के आधार पर भी स्वयं का आहार तय करता है और मन को संतुष्ट करने के लिए भी आहार ग्रहण करता है । मनुष्य की आहार प्रक्रिया में ऐसा भी कुछ नहीं है कि हमेशा वह भूख लगने पर ही खाएगा। वह कभी भी और कहीं भी खा सकता है। यही बात सोचने-समझने और दूसरों की जिंदगी में हस्तक्षेप करने को लेकर भी है। इसी तरह मनुष्य अपने भोजन को लेकर कभी भी स्थिरचित्त नहीं रह पाता है। जब जो इच्छा हो, तब वह खा सकता है। इच्छा न हो तो भी कोई खाने की वस्तु दिखाई दी कि खाने का मन हो गया और उसे खाने लगा । इसी से मनुष्य से भिन्न जीवों के जीवन और आहार क्रम में एक तरह की जैसी एकरूपता दिखाई देती है, वैसी मनुष्यों के रहन-सहन और जीवन में नहीं मिलती है। शायद यही वजह है कि मनुष्य समाज ने अपने जीवन क्रम में आहार को लेकर इतने गहरे और व्यापक रूप- स्वरूप में चिंतन-मनन और मत-मतांतरों सहित सैद्धांतिक मतभेदों के विभिन्न शास्त्रों का सृजन किया है, जिसके फलस्वरूप आहार शास्त्रियों और आहार शास्त्र का एक अंतहीन सिलसिला खड़ा हो गया है, जो अपने-अपने सैद्धांतिक मतभेदों को लेकर आपस में अकारण सैद्धांतिक मोहवश शाब्दिक युद्ध करता रहता है।
आहार मनुष्य समाज का एक अनोखा और रोचक जीवन दर्शन बन गया है। मूल रूप से जीव जगत शाकाहारी और मांसाहारी- दो रूप-स्वरूप में बंटा हुआ है । पर मनुष्य ने शाकाहार और मांसाहार में इतनी अधिक विविधताओं और व्यापक स्तर पर आहारजन्य विविधताओं को सृजनात्मक और विध्वंसात्मक रूप से विकसित किया है, जिसे देखकर लगता है कि आहार मनुष्य की प्राकृतिक क्षुधा संतुष्टि के लिए है या सृजनात्मक शक्ति की भूख को शांत करने के लिए है । शाकाहार और मांसाहार, दोनों में जैव विविधता अंतहीन है। मनुष्य के पेट की क्षमता तो सीमित है, पर उसके मन की क्षमता अनंत है। 1 इसी से मनुष्य ने अपने आहार को लेकर एक से एक बढ़कर विविधता वाले अनोखे आहारों के खाने, पकाने और खिलाने को लेकर शास्त्र को रच दिया। मनुष्य सरलता को सहजता से आत्मसात नहीं कर पाता, इसी से मनुष्य की आहार प्रक्रिया दिनोंदिन जटिलताओं को अपनाने की दिशा में अग्रसर होती दिखाई देती है।
आहार जीवन की अनिवार्य ऊर्जा का मूल स्रोत है। आहार के बिना जीवन की गति धीमी हो जाती है और आहार की अति या कमी से भी जीवन का प्राकृतिक स्वरूप बदलने लगता है। आहार जो जीवन की अनिवार्य ऊर्जा है, वह उस रूप में तो है, पर मनुष्य के मन की अंतहीन हलचलों के कारण केवल जीवन का प्रवाह ही नहीं, दुनिया भर में आहार सबसे बड़ा व्यापार-व्यवसाय की हलचल और रोजगार बनकर एक अंतहीन गतिविधियों का ऐसा क्रम बन गया है जो जीवन भर चलता रहता है और एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को नए-नए प्रयोग करने के लिए आधारभूमि उपलब्ध करा देता है। आहार के लिए उपलब्ध प्राकृतिक श्रृंखला और मनुष्य निर्मित आहार का व्यापार व्यवसाय प्रकृति और मनुष्य के कृतित्व की अनोखी जुगलबंदी बनकर तारक- मारक और उद्धारक क्षमताओं का त्रिवेणी संगम बन गया है। सवाल यह उठता है कि आहार जीवन की महज मूल ऊर्जा का स्रोत है या जीवन का प्राकृतिक प्रवाह है, जो जीव-जगत, वनस्पति और जीवन में अनवरत प्रवाहित होता रहता है।

विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल शैक्षिक स्तंभकार स्ट्रीट कौर चंद एमएचआर मलोट पंजाब

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