लालच बुरी बला है – यह वाक्य हम सभी ने सुना है, पर क्या हमने कभी इस पर गंभीरता से विचार किया है ? लालच केवल एक मानसिक प्रवृत्ति नहीं, बल्कि एक ऐसा अंधकारमय दलदल है, जिसमें हम जितना उतरते हैं, उतना ही गहराई में धंसते जाते हैं। यह एक ऐसी आग है, जो जलाने वाले को ही राख कर देती है। लालच की कोई सीमा नहीं होती । यह इंसान को हमेशा और अधिक पाने की चाह में उलझाए रखता है। यह एक ऐसा मायाजाल है, जो व्यक्ति को सुख और संतोष से दूर कर देता है । महात्मा गांधी ने कहा था कि जो संतोषी है, वही अमीर है; जो लालची है, वह सदा दरिद्र है । इस कथन में जीवन का गूढ़ सत्य छिपा है । जो व्यक्ति अपने पास उपलब्ध साधनों में संतोष करता है, वही वास्तव में सुखी होता है, जबकि जो लालच के जाल में फंस जाता है, वह कभी भी वास्तविक आनंद प्राप्त नहीं कर पाता ।
लालच की प्रवृत्ति मनुष्य को कभी संतुष्ट नहीं होने देती । यह उस प्यास की तरह है, जो नदियों में मिलकर भी नहीं बुझती । एक व्यक्ति सोचता है कि काश मेरे पास दस हजार रुपए होते! इसके बाद अगर किन्हीं हालात में उसे दस हजार मिल जाते हैं तब वह सोचता है कि अब एक लाख चाहिए! इसके बाद भी उसकी इच्छा नहीं थमती । फिर गाड़ी, बंगला, शान-ओ-शौकत की भूख उसे सताने लगती ‘ है । यह भूख अमीर और सबसे अमीर व्यक्ति में भी समान रूप से पाई जाती । यह अंतहीन दौड़ है, जिसमें इंसान भागता रहता है, पर मंजिल कभी नहीं मिलती। लालच इंसान को आत्मिक शांति से दूर कर देता है और उसे भौतिक सुखों की अंधी दौड़ में धकेल देता है। इसलिए जीवन में संतोष को अपनाना ही सच्चा धन है, क्योंकि असली संपत्ति धन नहीं, बल्कि मन की तृप्ति है।
लालच एक ऐसा रोग है, जो यह कभी नहीं कहता कि बस अब और नहीं चाहिए ! बल्कि हर सफलता के बाद यह एक नई चाहत को जन्म देता है । चाणक्य का कहना है अगर आप एक लालची व्यक्ति को नियंत्रित नहीं कर सकते, तो समझ लीजिए कि आप खुद अपने विनाश की राह पर हैं । इतिहास साक्षी है कि लालच के कारण महल भी धराशायी हुए और साम्राज्य भी नष्ट हुए । दुर्योधन की अनियंत्रित इच्छाओं ने महाभारत जैसे महायुद्ध को जन्म दिया और रावण का लालच न केवल उसे, बल्कि संपूर्ण लंका को विनाश के गर्त में धकेल गया। यही प्रवृत्ति है, जो एक इच्छा को पूरी करने के बाद दूसरी, फिर तीसरी और अंतहीन इच्छाओं की श्रृंखला को जन्म देती है ।
भगवान बुद्ध कहते हैं, ‘मनुष्य के लिए सबसे बड़ा शत्रु उसका लोभ और मोह है।’ लालच व्यक्ति को विवेकहीन बना देता है, जिससे वह नैतिकता, ईमानदारी और करुणा को ताक पर रखकर केवल अपने स्वार्थ की पूर्ति में लग जाता है । वह यह नहीं देखता कि उसके लालच का असर समाज पर क्या पड़ेगा। रिश्वतखोरी, भ्रष्टाचार, अनैतिक व्यापार, अपराध- ये सभी लालच की ही शाखाएं हैं। लालची व्यक्ति क्षणिक सुखों के पीछे भागते-भागते आत्मिक शांति और संतोष से वंचित हो जाता है। जो व्यक्ति लालच को नियंत्रित नहीं करता, आखिरकार लालच ही उसे नियंत्रित कर लेता है। यह एक ऐसी सुरंग है, जो निरंतर बढ़ती जाती है और अंत में व्यक्ति को निगल जाती है। इसलिए सच्चा सुख तृप्ति में है, न कि अंतहीन इच्छाओं के पीछे भागने में।
एक समय था जब लोग अपनी जरूरतें पूरी करने के लिए मेहनत करते थे, पर आज की दुनिया में चाहतें जरूरतों से बड़ी हो गई हैं। मनुष्य अब आवश्यकताओं को पूरा करने के बजाय अनावश्यक इच्छाओं के पीछे भागने लगा है। पैसा कमाना बुरा नहीं, लेकिन अगर वह इंसानियत और नैतिकता को ताक पर रखकर अर्जित किया जाए, तो वही धन अभिशाप बन जाता है। यह सत्य है कि धन आवश्यक है, पर जब वह जीवन का अंतिम लक्ष्य बन जाता है, तब विनाश का कारण बनता है। लालच जितना खाता है, उतना ही बढ़ता जाता है । यही कारण है कि आज रिश्वतखोरी, भ्रष्टाचार और अनैतिक व्यापार समाज में अपनी जड़ें गहरी कर चुके हैं। जो लोग लालच के पीछे भागते हैं, वे अंततः अपने ही मूल्यों को तिलांजलि दे देते हैं। उन्हें यह समझना चाहिए कि असली सुख बाहरी वस्तुओं में नहीं, बल्कि आंतरिक संतोष में है। स्वामी विवेकानंद का कहना है, ‘जो मिला उसमें संतोष करो, क्योंकि इच्छाएं समुद्र की लहरों की तरह हैं, जो कभी नहीं रुकतीं।’ यह कथन हमें यह सिखाता है कि इच्छाओं की कोई सीमा नहीं होती, और जो व्यक्ति अपनी इच्छाओं पर काबू नहीं पा सकता, वह कभी भी वास्तविक सुख नहीं पा सकता।
यह संसार अनमोल है, पर हम उसे तुच्छ इच्छाओं के बोझ से बोझिल कर देते हैं। हमें यह समझना होगा कि संतोष ही सबसे बड़ी पूंजी है। एक गरीब किसान, जो दिनभर मेहनत करता है और रात को चैन की नींद सोता है, वह वास्तव में किसी अमीर व्यक्ति से अधिक सुखी होता है, जो अपार धन-संपत्ति होते हुए भी रातों को चैन से सो नहीं पाता। हालांकि इससे गरीब * व्यक्ति के अभाव की दुनिया और तकलीफों को सही नहीं ठहराया जा सकता। मगर लालच व्यक्ति को हमेशा बेचैन रखता है, वह उसे अपने ही बनाए जाल में फंसा देता है । इसी संदर्भ में कबीर ने कहा है- ‘साईं इतना दीजिए, जामे कुटुंब समाय, मैं भी भूखा न रहूं, साधु न भूखा जाए।’ इस दोहे में संत कबीर ने यह संदेश दिया है कि जीवन में उतना ही पाना चाहिए, जितना हमें और हमारे समाज को उचित रूप से जीवित रख सके । अगर हर व्यक्ति इस सोच को अपनाए, तो समाज में ईमानदारी, प्रेम और करुणा का संचार होगा । लालच से मुक्त होकर जीने में ही असली आनंद है। जीवन में धन कमाना आवश्यक है, पर नैतिक मूल्यों के साथ। संतोष और सद्गुणों से परिपूर्ण जीवन ही सच्ची संपत्ति है, और वही हमें आंतरिक शांति प्रदान कर सकता है।
विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल मलोट पंजाब
अंतहीन प्यास

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