करीबन पच्चीस-तीस साल पहले ही विनय रोज़गार के लिए अपने गांव से शहर में आकर बस गया था। विनय एक सेठ के यहां कंपनी में अकाउंटेंट की नौकरी करता था। खेती-बाड़ी गांव में थी, लेकिन खेती-बाड़ी से परिवार का गुजर-बसर नहीं हो रहा था, इसलिए विनय अपने पिताजी गंगाधर से आज्ञा लेकर नौकरी की तलाश में शहर में आ गया था। विनय के तीन भाई और दो बहनें थीं। उसके पिताजी गंगाधर ने अपनी दोनों बेटियों की शादी जैसे-तैसे कर दी थी, लेकिन उनके दो बेटे गांव में रहकर ही खेती-बाड़ी किया करते थे। विनय ने शहर में सेठ के यहां उसकी कंपनी में अकाउंटेंट की नौकरी करते हुए दिन-रात खूब मेहनत की, और समय के साथ उसकी तनख्वाह भी सेठ ने बढ़ा दी थी और इसके चलते विनय ने शहर में ही एक प्लाट खरीदकर जल्द ही उस पर अपना मकान भी बना लिया था। अब विनय अपने भरे-पूरे परिवार के साथ जिसमें उसकी धर्मपत्नी उषा, अपने दो बेटों साहिल और विनोद तथा एक बेटी अनुष्का शामिल थी, शहर में आराम की जिंदगी गुज़र-बसर कर रहे थे। विनय के तीनों बच्चे बड़े हो गए थे और बेटी प्रियंका कालेज में तथा दोनों बेटे रेहान और धवन स्कूल में पढ़ रहे थे। गांव में जब कभी भी कोई फंक्शन वगैरह, पार्टी, सवामणी, मरग होती तो उस समय तथा खेती-बाड़ी संभालने के लिए ही छुट्टियों में विनय और उसके बच्चे कभी-कभार गांव जाते थे। हालांकि, गांव में उनका मन भी पहले की भांति अब नहीं लगता था, लेकिन विनय के बच्चों की अपने दादा-दादी, चाचा-चाची से मिलने तथा खेत-खलिहान देखने का मन बहुत बार होता था। अपने दादाजी गंगाधर से, विनय के तीनों ही बच्चे बहुत प्यार करते थे। एक दिन की बात है, वे अपने दादाजी को शहर में उनके यहां लाने की जिद करने लगे। गंगाधर पिचहतर बरस का था। सफेद बाल, दाढ़ी-मूंछ, गेहूंआ रंग, माथे पर सलवटें, झुर्रीदार हाथ-पैर लेकिन लंबे डील-डौल वाला गंगाधर गांव की आबोहवा में ही खुश रहता था। शहर में उसका मन बिल्कुल भी नहीं लगता था। वह सुबह-शाम अपने खेतों में जाता, पशुओं को हरा-चारा डालता, अपनी खेती-बाड़ी को देख खुश होता और सादा जीवन जीता था। गांव में हरे-भरे पूरे खेत, वो लहरदार पगडंडियां, हरी घास के मैदान (चरागाहें), खुला घर-आंगन, घर के पिछवाड़े में खड़े आम और नीम के पेड़, इन पेड़ों पर गिलहरियों, रंग-बिरंगी चिड़ियों, कौओं की कांव-कांव और घर के पिछवाड़े में ही एक तरफ कोने में बनी फुलवारी पर मंडराती रंग-बिरंगी तितलियां,भंवरे, मधुमक्खियां गंगाधर के मन को खूब भाती थीं और गंगाधर को इनमें बहुत सुकून,चैन मिलता था।दिन के समय गंगाधर गांव-गुवाड़ में शिव मंदिर के पास बने वट वृक्ष पर ताश खेलने को भी अक्सर चला जाता था। गांव की आबो-हवा में रहकर वह बेहद खुश और संतुष्ट था। शहर की ज़िन्दगी उसे भारी-भारी सी लगती थी, क्यों कि कभी-कभार वह घरेलू रोज़मर्रा की ज़रूरत का सामान खरीदने गांव से बस में शहर जाया करता था। गंगाधर को यह मालूम था कि शहर अनाप-शनाप प्रदूषण से संलिप्त हैं। जहां पर न तो प्रकृति के गीत गाती हवाएं हीं थीं और न ही लहलहाते खेत। कुंजन करती कोयल, कलरव करते पंछियों का ठौर शहर में मिलता कहां हैं ? न खेतों की लहरदार पगडंडियां शहरों में हैं और न ही कच्चे रास्ते। न ट्यूब-वेल का मीठा गुनगुना पानी है और न ही गोधूलि का वातावरण।मिट्टी की खुशबू तो शहरों में नदारद ही होती है। गंगाधर जानता था कि गांवों में संस्कारों की, फूलों की रमणीक महक है। उसे अच्छी तरह से यह बात पता थी कि आज के शहरी घरों या अपार्टमेंट्स में पाए जाने वाले हरी घास के नन्हें लॉन, पार्क आदि का गांव के चरागाहों-उपवनों, पगडंडियों से क्या मुक़ाबला ? गंगाधर कई बार यह सोचा करता था कि उसकी बहू-बेटा, पोता-पोती कैसे सीमेंटी-कंक्रीटी घर में, नकली हरी घास, नकली फूलों के गुलदस्तों के बीच चहारदीवारी में आखिर कैसे जिंदगी बसर करते हैं ? उसकी नज़र में आधुनिक सुख-सुविधाएं, शहरी जीवनशैली, ये सब आदमी के मन को सुकून-चैन तो देते नहीं हैं।फिर भी पोते-पोती की जिद के आगे वह बिल्कुल भी टिक न सका और आठ-नौ घंटे का सफर करते हुए वह शहर में अपने बेटे विनय के यहां उसके घर पहुंच गए। बहू उषा ने अपने श्वसुर गंगाधर की बहुत आवभगत और सेवा-सुश्रुषा की। उषा पिताजी को सुबह-शाम वक्त पर चाय पकड़ा देती, समय पर खाना-पीना कर देती। बिस्तर जंचा देती। हुक्का भी रख देती। वे जाड़े के दिन थे। ठंड अपने परवान चढ़ रही थी, इसलिए उषा ने पिताजी(श्वसुर) गंगाधर को उनके कमरे में ब्लोवर, हीटर भी उपलब्ध करवा दिए , ताकि उन्हें ठंड में कोई दिक्कत परेशानी न होने पाए। विनय का सबसे छोटा बेटा साहिल अपने दादाजी को सुबह-शाम शहर के पार्क में घूमाने ले जाया करता। शाम को समाचारों के लिए दादाजी के लिए वह टीवी लगा देता।इस तरह से समय कटता चला जा रहा था। गंगाधर को गांव से शहर आये अब पन्द्रह-बीस दिन बीत चुके थे। शहर में अब प्रदूषण से आबो-हवा बिगड़ने लगी थी।धूल और धुएं से प्रदूषण का स्तर तेजी से बढ़ रहा था। गंगाधर को रह-रहकर गांव की याद आ रही थी कि किस प्रकार से वह सुबह-शाम अपने खेतों में जाया करता था, बैलों की देखभाल किया करता था और दिन में गांव-गुवाड़ में जाकर अपने हम-उम्र बुजुर्गों के साथ ताश खेलते हुए हंसी-मजाक किया करता था और क्या शानदार दिन कटते थे। शहर में आकर यह सब अचानक बंद हो गया। अब तो जिंदगी जैसे एक कमरे में बंद-बंद सी हो गई है। गांव सा खुला आंगन शहरों में हैं कहां ? न खुली हवा का सुख है और न ही गांव- सी हरियाली के दर्शन यहां शहर में कभी होते हैं। सुबह शाम पार्क में इतनी अधिक भीड़ होती है। खाना-पीना, गर्म पानी-चाय, हुक्का सब यहां समय पर मिलता है। बहू-बेटा, पोते-पोती सभी उसकी खूब सेवा-सुश्रुषा, आवभगत करते हैं, लेकिन फिर भी मन में एक अजीब सी घुटन सी है। पिछले पन्द्रह-बीस दिनों से न चिड़िया,कोयल की चहक है, न पंछियों का कलरव। आज ताश के पत्ते जैसे बिखर-बिखर से गये हैं। ट्रैफिक ही ट्रैफिक की आवाज दिन-रात यहां कानों में गूंजती है। गंगाधर यह महसूस कर रहा था कि अब तो बढ़ते प्रदूषण के कारण शहर में आकर उसे सांस भी उठने लगा है। पिछले तीन-चार दिनों से बढ़ते प्रदूषण के कारण सुबह-शाम लोगों ने अब पार्क में टहलना भी बंद कर दिया है। साहिल(छोटा पोता) अब उन्हें (गंगाधर को) घुमाने पार्क में नहीं ले जाता, क्यों कि उसके पिताजी विनय ने प्रदूषण के कारण ऐसा करने के लिए मना किया है। विनय ने साहिल से कहा है आजकल शहर में प्रदूषण बहुत है, पिताजी की सेहत का ज़रा ध्यान रखना। गंगाधर आजकल सुबह-शाम टीवी देखते हैं तो कभी-कभार अखबार पढ़कर अपना टाइम-पास करते हैं। पिछले कुछ दिनों से तो वे मंदिर भी नहीं जा पाए हैं। गांव में अक्सर मंदिर की तरफ आना-जाना हो जाया करता था। शहर में आकर उनकी जीवनशैली जैसे पूरी तरह से बदल-बदल सी गई है। यहां शहर में लोग रात को देरी से सोते हैं और सुबह देरी से उठते हैं। गंगाधर उस दिन कमरे में बैठे-बैठे शायद यही सोच रहा था कि ‘आखिर कौन छोड़ना चाहता है घर, रोटी की ख़ातिर निकल पड़ते हैं शहर….!’ शहर में बसना आज जैसे आदमी की मजबूरी हो गई है। नौकरी के कारण परिवार भी बिखर-बिखर से गये हैं। शहर आकर गांव-गुवाड़, खेत-खलिहान छूट चुके हैं।गंगाधर यह सब सोच ही रहा था कि तभी गंगाधर की पोती प्रियंका ने उसकी तंद्रा तोड़ी और अपने दादाजी के पास आते हुए प्रियंका ने कहा -‘दादाजी आज टीवी पर शायर बशीर बद्र जी का कार्यक्रम चल रहा है। आइए ! आप और हम दोनों इसे देखते हैं। बहुत ही अच्छा व सुंदर कार्यक्रम है और हां दादाजी मैं तो बशीर बद्र जी की बड़ी फैन हूं।’ प्रियंका के दादाजी गंगाधर ने हामी में बेमन से सहमति में अपना सिर हिलाया और पोती प्रियंका को टीवी चलाने की अनुमति प्रदान कर दी। टीवी चलाते ही उस पर बज रहा था-‘ है अजीब शहर की ज़िंदगी न सफ़र रहा न क़याम है,कहीं कारोबार सी दोपहर कहीं बद-मिज़ाज सी शाम है…!’ प्रियंका और उसके दादाजी टीवी देख रहे थे। तभी प्रियंका की मम्मी उषा अपने श्वसुर के लिए शाम की चाय लेकर कमरे में पहुंचीं। गंगाधर ने चाय का कप उठाया और चुस्कियां लेने लगा। चाय की चुस्कियां लेते हुए शायद आज गंगाधर के मन में ‘गांव की सौंधी मिट्टी’ की खूशब दौड़ रही थी।
सुनील कुमार महला, फ्रीलांस राइटर, कालमिस्ट व युवा साहित्यकार, उत्तराखंड।