‘न् नर्मदा … आओ बैठो… यहां पर धूप है… थोड़ा आराम मिलेगा, आजकल इस दिसंबर की ठंड में धूप भी भगवान
की नेमत है वरना इंसान कांप-कांप कर ही मर जाए। और हम जैसों के लिए तो यह और मुसीबत करती है।’ पैंसठ वर्षीय शीला अपनी हम उम्र पड़ोसन नर्मदा से बोली ।
शीला ने कुर्सी खींचकर नर्मदा को बैठने के लिए दिया। नर्मदा शीला की पड़ोसन थी। दोनों बहू-बेटों वाली थी। इसीलिए घर की ज्यादा जिम्मेदारियां नहीं थी। खाली होने पर एक-दूसरे से अपने दुख सुख बतियाया करती थी । या समय गुजारने के लिए भी एक दूसरे से बात कर लिया करती थी।
आज भी खाली देखा तो नर्मदा को कुछ देर अपने पास बात करने के लिए बुला लिया और नर्मदा भी चली आई।
नर्मदा का मिजाज थोड़ा-थोड़ा खिंचा हुआ देखकर शीला ने पूछा, ‘क्या हुआ है कोई बात है ? क्यों आज तुम्हारा चेहरा उतरा हुआ है वरना रोज तो बहुत मुस्कुराती रहती हो।
‘अरे कुछ नहीं शीला दीदी आज रोहित की बहू जाने उसके मन में क्या था थोड़ी सी दो बातें क्या कह दी पलट कर उल्टा जवाब देने लगी । ‘
‘अरे नर्मदा आजकल जमाना ही ऐसा है बहू को कितना भी करो और अपने सारे जीवन की कमाई दे दो .. लेकिन बहू तो बहू होती है शर्म, लिहाज, त्याग की उनसे अपेक्षा करना ही बेकार है। इसीलिए तुम अपना मन दुखी मत करो दूसरे की जायी से क्या ज्यादा उम्मीद करना’ । शीला सांत्वना देते हुए बोली।
अंदर से दोनों के लिए चाय लेकर आती हुई शीला की बहू पूजा ने ये बातें सुनी तो उसे बहुत ही दुख हुआ। आज इतने वर्षों से सास और ससुर की सेवा कर रही हूं। उसके बावजूद इनकी सोच में जरा भी बदलाव नहीं हुआ।
उसने सोच लिया कि इस बात का इन्हें अहसास करा कर रहूंगी कि बहू कितना त्याग करती है। घर में सब्जी लाने के लिए शीला के पति रतन जी ही जाते थे। रात में सब्जी बनाने के लिए वही सब्जी लेकर आए थे। आज सब्जी में फूल गोभी और मटर लेकर आए थे। शीला और
रतन जी को पूजा के हाथ की बनी हुई गोभी, मटर, टमाटर की सब्जी बहुत पसंद आती थी।
पूजा ने बहुत ही जतन से आलू, फूलगोभी, मटर की मसाले डालकर सब्जी बनाई। पूरा घर खुशबू से महक रहा थ। उसने सास और ससुर दोनों के लिए एक साथ ही भोजन निकाला और ले जाकर उनके आगे परोस दिया।
शीला और रतन जी दोनों हाथ धोकर खाने के लिए भोजन पर बैठे। पूजा ने खाने में सब्जी, रोटी और सलाद परोसा था। सब्जी की कटोरी देखते ही शीला चौंक पड़ी। आज खाना परोसते समय पूजा ने सिर्फ हरी सब्जियां छांट कर परोसने के बजाय कटोरी में आलू
भी परोसा था। आज से पहले ऐसा कभी नहीं हुआ था। हमेशा बनी तरकारी से छांट कर हरी सब्जियां ही परोसती थी। उसे पता था कि दोनों मधुमेह के मरीज हैं सो आलू नुकसान देह है। उस समय शीला ने कुछ नहीं कहा। आलू किनारे खाना खा लिया। रतन जी ने भी आलू करके किनारे खाना खा लिया।
खाना खाने के बाद शीला सीधे पूजा के पास पहुंची और बोली, ‘पूजा यह आज तुमने कैसी सब्जी निकाली थी। तुम्हें पता है कि हम दोनों लोगों को मधुमेह है और हम लोग सब्जी में कभी भी आलू नहीं खाते हैं। डाक्टर ने हम दोनों को ही आलू खाने से मना किया है। इसके बावजूद आज तुमने सब्जी में हमें आलू भी दे दिया था’ ।
‘मम्मी जी, मुझे पता है कि आप और पापा जी मधुमेह के मरीज हैं। लेकिन शायद आप लोगों को नहीं पता है कि मैं ऐसी किसी भी बीमारी की मरीज नहीं हूं जिसमें मुझे सिर्फ आलू की सब्जी खाने के लिए कहा जाए। तकरीबन दस साल हुए, जब से बहू बनकर इस घर में आई हूं तब से घर में जब भी सब्जी बनती है तो उसमें से हरी सब्जी आप दोनो को निकाल कर देने के बाद पतिदेव और बच्चों को खाना देने के बाद, मेरे हिस्से में ज्यादातर आलू ही आता है। मुझे आलू खाना पड़ता है। आज से मैं यह त्याग करना छोड़ रही हूं। और मैं तो बहू हूं। बहू भला कहां त्याग करती है। आप भी तो इस बात को मानती हैं।’
शीला पूजा की बातें सुनकर बेहद शर्मिंदा हो गई। उसने शांत मन से विचार किया तो उसे अंदर से बेहद शर्मिंदगी हो रही थी। दस साल से बहू हम दोनों के लिए इतना त्याग कर रही है। मैं उसकी इस अच्छाई और त्याग की कदर भी न कर सकी। मां बनना तो दूर मैं तो उसकी एक अच्छी सास भी न बन सकी। अगर मैं औरत बन कर भी इस बारे में सोची होती तो मुझे अपनी बहू की तकलीफ जरूर दिखाई दे जाती । इतना करने के बाद भी मैं सुबह नर्मदा से उसकी बुराई ही कर रही थी ।
वह शर्मिंदगी के साथ बोली, ‘बहू मुझे माफ कर दे। बड़ी होकर भी मेरे अंदर बड़प्पन नहीं था और तू मुझसे बहुत छोटी होकर भी एक बेटी से भी ज्यादा हम लोगों के बारे में सोची’ ।
‘अरे मां जी आप मुझसे माफी मत मांगिए मैं तो बस आपको यह अहसास दिलाना चाहती थी कि बहू भी त्याग करती है। अनेक तरीकों से करती है। बस उसके उन कामों के लिए दो शब्द अच्छे मिल जाएं तो वह उसे पुरस्कार के जैसे लगते हैं। वहीं पर यदि ताने मिलें तो उसे उन कामों को करने में अरुचि हो जाती है। हर बच्चे को मां-बाप से शाबाशी और पुरस्कार की आशा रहती है कुछ करने के बदले। बहू हुई तो क्या हुआ मेरा भी इतना तो हक है।’ कहकर शीला के गले लग गई।
‘तुम्हारा हक इससे ज्यादा है और सुनो कल से तुम्हें सिर्फ आलू खाने की जरूरत नहीं है। कल से तुम्हारे पापा जी से कहकर हरी सब्जियां ज्यादा मंगवाया करूंगी ताकि सभी स्वस्थ रहें ।’
विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल मलोट पंजाब
हरी सब्जी

Leave a Comment
Leave a Comment