शिवसेना यूबीटी यदि सूझबूझ दिखाए तो पुनः पलट सकती है सियासी बाजी!
– कमलेश पांडेय/ वरिष्ठ पत्रकार व राजनीतिक विश्लेषक
कभी महाराष्ट्र की सियासी धड़कन समझी जाने वाली ‘शिवसेना’ भाजपा से अपनी गहरी दोस्ती के लिए जानी मानी जाती थी लेकिन मुख्यमंत्री पद के सवाल ने दोनों के बीच जो खटास पैदा की, वो निरन्तर जारी है। इस अवसरवादी प्रवृत्ति ने क्षेत्रीय हिंदूवादी राजनीति को गहरा आघात पहुंचाया है। शिवसेना के पूर्व सुप्रीमो और अब शिवसेना यूबीटी के सर्वेसर्वा तथा महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री उद्धव भाऊ ठाकरे के बाद जब शिवसेना के नए प्रमुख और महाराष्ट्र के कार्यवाहक मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे ने जब पुनः मुख्यमंत्री पद के सवाल पर पहले सस्पेंस और बाद में क्लीन चिट वाली राजनीतिक चाल चली तो राजनीतिक गलियारे में उद्धव ठाकरे के ऊपर लगी पदलोलुपता का दाग धुल गया ।
आपको यह जानकर हैरत होगी कि जैसे ही शिवसैनिकों ने एकनाथ शिंदे तक यह खबर पहुंचाई कि यदि वो ‘सियासी फूफा’ बनेने का स्वांग रचेंगे तो भाजपा, शिवसेना यूबीटी के उद्धव ठाकरे के ऊपर डोरे डाल सकती है, वैसे ही एकनाथ शिंदे के होश उड़ गए क्योंकि शिवसेना यूबीटी द्वारा कांग्रेस की आलोचना किये जाने के पीछे की एक वजह यह भी है। इसके अलावा, एनसीपी प्रमुख अजित पवार के ऊपर भी भाजपा का भरोसा मजबूत होगा और बीजेपी की महाराष्ट्र सरकार आसानी से बन जाएगी क्योंकि देवेंद्र फडणवीस और अजित पवार पहले भी मुख्यमंत्री-उपमुख्यमंत्री के रूप में शपथ ले चुके हैं और गत विधानसभा चुनावों में बटेंगे तो कटेंगे जैसे नारे के बाद दोनों के बीच जो मतभेद पैदा हुआ है, उसे भी पाटने में मदद मिल जाएगी।
बता दें कि अजित पवार के गत दिनों के ताजा बयान का संदेश भी स्पष्ट है कि मुख्यमंत्री भाजपा का ही होगा। इससे पहले एकनाथ भी लगभग यही बात बोल चुके हैं, इसलिए किसी तरह की गलतफहमी न केवल महायुति की सियासी साख बल्कि शिवसेना और एकनाथ शिंदे के राजनीतिक वजूद पर भी सवाल पैदा कर सकते हैं। समझा जाता है कि यही सब सोचकर बीमार एकनाथ रविवार को चंगा हो गए और महायुति की बीजेपी सरकार के पक्ष में सकारात्मक बयानबाजी की । बीजेपी नेता देवेंद्र फडणवीस भी यही चाहते थे। उन्हें पता है कि उनके समानांतर किसी को पैदा किया जाता है, इसलिए केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी पर वो शक करते हैं!
सच कहूं तो महाराष्ट्र में नई सरकार के गठन से पहले जो पूरा सियासी ड्रामा मुंबई से दिल्ली तक चला, इससे यदि किसी को लाभ मिल सकता है तो वह हैं शिवसेना यूबीटी प्रमुख उद्धव ठाकरे क्योंकि बीएमसी चुनाव सिर पर है। जब उन्हें यह पता चल चुका है कि कांग्रेस उनको ज्यादा तवज्जो नहीं देगी, तब वह अपने मूल जनाधार को बचाने की रणनीति बनाएं जो उनकी गलत नीतियों के चलते एकनाथ शिंदे की तरफ शिफ्ट होते दिखाई पड़ रहे हैं। इसके लिए वह भाजपा की सरकार को बाहर से समर्थन देने की पहल करें, वो भी बिना मांगे। इससे भाजपा से ज्यादा शिवसैनिकों की सहानुभूति उन्हें मिलेगी।
इसके बाद वह महाराष्ट्र से बाहर निकलें और पूरे देश में हिंदूवादी राजनीति को मजबूत करें क्योंकि सत्ता में रहकर भाजपा जो काम नहीं कर सकती है, वह उनकी परोक्ष सहयोगी बनकर शिवसेना यूबीटी कर सकती है क्योंकि सिर्फ शिवसेना गई है, उसका मुख पत्र सामना (दोपहर का सामना) आज भी उनके पास है। पहले उद्धव इसका देश व्यापी विस्तार करें और फिर उसी की आड़ में सियासी गोटियां सेट करें क्योंकि देर सबेर शिवसेना प्रमुख एकनाथ शिंदे और एनसीपी प्रमुख अजित पवार भाजपा से दूर जाएंगे, क्योंकि इनकी सियासी तासीर कभी देवेंद्र फडणवीस से मेल नहीं खाएगी। इसलिए शिवसेना यूबीटी यदि राजनीतिक सूझबूझ दिखाएगी तो उद्धव ठाकरे और आदित्य ठाकरे दोनों का भविष्य उज्ज्वल रहेगा।
राजनीतिक रूप से देखें तो चाहे केंद्र की एनडीए सरकार हो या महाराष्ट्र की महायुति सरकार, शिवसेना यूटीबी की जरूरत भाजपा को पड़ेगी ही ताकि वह अपने सहयोगियों पर प्रेशर की राजनीति डाल सके। यह मोदी-शाह का सियासी स्वभाव है। वहीं, यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से लेकर महाराष्ट्र के कार्यवाहक उपमुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस और बिहार के उपमुख्यमंत्री सम्राट चौधरी जैसे बीजेपी की तीसरी पीढ़ी के नेताओं को अपने व्यक्तिगत विस्तार और संरक्षण के लिए भी शिवसेना की जरूरत पड़ेगी। उद्धव को पता होना चाहिए कि बड़े दलों में भी देवेंद्र फडणवीस जैसे जमीनी नेता इसलिए अपना वजूद कायम रख पाते हैं क्योंकि वह समय के साथ बदलते रहते हैं।
इसलिए उद्धव ठाकरे भी सियासी हठ छोड़ें और राजनीतिक सूझबूझ भरा फैसला लें। महाराष्ट्र का मुख्यमंत्री बनने के लिए कांग्रेस का साथ लेना उनकी गलत रणनीति नहीं थी बशर्ते कि वह उससे खुद को महाराष्ट्र का नेता मनवा लेते लेकिन जब ऐसा नहीं कर सके तो अब घर वापसी की जुगत बिठाएं। खुद को बीएमसी चुनाव में मजबूत करें। महाराष्ट्र में शिवसैनिकों के विश्वास पुनः जीतें क्योंकि राजनीतिक मौतें हमेशा अस्थायी होतीं हैं. शाश्वत तो नेताओं व उनके दलों की नीतियां होती हैं जो उन्हें बार बार राजनीतिक पुनर्जन्म देती हैं। बिहार के जदयू नेता और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से यदि वह सियासी ज्ञान लेते रहें तो घर वापसी भी ज्यादा कशमकश वाली नहीं रह जायेगी!
पते की बात तो यह होगी कि भाजपा जिन हिंदूवादी मुद्दे पर मुखर होकर नहीं बोल पाती है, वह उसपर मुखर हों। संघ से देशव्यापी आशीर्वाद की कामना करें, क्योंकि भाजपा पर सियासी अंकुश रखने के लिए भी संघ को शिवसेना जैसे पुराने शुभचिंतकों की जरूरत हमेशा पड़ेगी। देश के 1800 मंदिरों के जीर्णोद्धार का मुद्दा सबसे अहम है, इसलिए इन्हें उठाकर भी शिवसेना यूटीबी अपना खोया राजनीतिक वजूद फिर से पा सकती है। इससे शिवसेना के संस्थापक और प्रखर हिंदूवादी नेता स्व. बाला साहब ठाकरे की सियासी विरासत को भी वो महफूज रख पाएंगे। बस, धैर्य व विनम्रता पूर्वक उद्धव आगे बढ़ें, आदित्य को आगे बढ़ाएं।
कमलेश पांडेय
वरिष्ठ पत्रकार व राजनीतिक विश्लेषक