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लेखशिक्षा

सरकारी स्कूलों को बन्द करने की बजाय उनका रुतबा बढ़ाये

admin
Last updated: अप्रैल 14, 2025 8:04 पूर्वाह्न
By admin 13 Views
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7 Min Read
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सरकारी स्कूलों को बन्द करने की बजाय उनका रुतबा बढ़ाये। 
 
भारत में सरकारी स्कूल सामाजिक समानता और शिक्षा के अधिकार के प्रतीक हैं, लेकिन बजट कटौती, ढांचागत कमी और शिक्षकों की अनुपलब्धता ने इनकी साख गिराई है। हरियाणा इसका ताजा उदाहरण है, जहाँ 2022 में 292 स्कूल बंद हुए, और 2024 में 800 और स्कूलों को बंद करने की योजना है। सरकारें नामांकन की कमी को आधार बनाकर स्कूल बंद कर रही हैं, लेकिन इसकी असली वजह व्यवस्थागत लापरवाही है। स्कूलों को बंद करने के बजाय उनका पुनर्निर्माण, शिक्षक भर्ती, आधारभूत ढांचे में सुधार और सामाजिक भागीदारी के ज़रिए मजबूत किया जाना चाहिए। दिल्ली का मॉडल इस दिशा में प्रेरणास्रोत है। शिक्षा को अधिकार मानकर सरकारी स्कूलों की गरिमा बहाल करना लोकतंत्र की आत्मा को पुनर्जीवित करने जैसा है। स्कूल बंद मत कीजिए—उन्हें सम्मान और संसाधन दीजिए।
 
 
-प्रियंका सौरभ
 
भारत जैसे लोकतांत्रिक और सामाजिक न्याय की परिकल्पना वाले देश में सरकारी स्कूल केवल शिक्षा के केंद्र नहीं, बल्कि समान अवसर की उम्मीद भी होते हैं। ये वे स्थान हैं जहाँ समाज का सबसे कमजोर तबका, सबसे कमज़ोर बच्चा भी सपना देख सकता है—आगे बढ़ने का, कुछ बनने का। पर दुर्भाग्यवश आज सरकारें इन्हें बोझ मानने लगी हैं। कहीं स्कूलों का विलय हो रहा है, कहीं उन्हें निजी हाथों में सौंपने की तैयारी है। सवाल यह है कि जब देश की रीढ़ मजबूत करनी हो, तो उसे काटा क्यों जा रहा है?
 
सरकारी स्कूल: व्यवस्था की रीढ़
 
भारत में शिक्षा के अधिकार को मौलिक अधिकार बनाया गया है, पर अधिकार सिर्फ कागज़ पर नहीं, ज़मीनी हकीकत पर टिकते हैं। सरकारी स्कूल गरीब और निम्न मध्यमवर्गीय बच्चों के लिए एकमात्र विकल्प हैं। निजी स्कूलों की ऊँची फीस, प्रवेश प्रक्रिया और बाज़ारी सोच उन्हें आम आदमी की पहुँच से बाहर कर देती है। ऐसे में सरकारी स्कूल न केवल शिक्षा देते हैं, बल्कि सामाजिक समरसता और बराबरी की भावना भी गढ़ते हैं।
 
क्यों गिरा सरकारी स्कूलों का रुतबा?
 
सरकारी स्कूलों की छवि को योजनाबद्ध तरीके से खराब किया गया। दशकों तक उन्हें बजट की मार झेलनी पड़ी। शिक्षकों की भारी कमी, ढांचागत बदहाली, पढ़ाई में रुचि की कमी और प्रशासनिक उपेक्षा ने सरकारी स्कूलों को रसातल की ओर धकेला। दूसरी ओर, निजी स्कूलों को लगातार बढ़ावा दिया गया—टैक्स में छूट, जमीन में रियायतें, नियमों में नरमी। सरकारी स्कूल के बच्चे को ‘कमतर’ और प्राइवेट स्कूल के बच्चे को ‘सक्षम’ मानना एक मानसिक रोग बन गया।
 
बंद करने की नीति: हरियाणा का उदाहरण
 
हरियाणा में सरकारी स्कूलों को बंद करने की नीतिगत प्रक्रिया इसका जीवंत उदाहरण है। वर्ष 2022 में राज्य में कुल 292 सरकारी स्कूलों को बंद या एकीकृत किया गया, जिनमें से अधिकांश में छात्रों की संख्या 25 से कम या शून्य थी। यह आँकड़ा राज्यसभा में केंद्र सरकार द्वारा प्रस्तुत किया गया था। और यह रुकने वाला नहीं है।
 
जनवरी 2024 में सरकार ने घोषणा की कि वह उन 800 प्राथमिक स्कूलों को बंद करने की योजना बना रही है जहाँ छात्रों की संख्या 20 से कम है। इनमें पढ़ने वाले लगभग 7,349 बच्चों को अन्य निकटवर्ती स्कूलों में भेजा जाएगा, और परिवहन की व्यवस्था की जाएगी। सवाल यह है कि यह समाधान है या सिरदर्द को सिर हटाकर खत्म करने वाली सोच?
 
समाधान: बंद नहीं, बदलाव
 
अगर सरकारी स्कूलों में समस्या है, तो उन्हें बेहतर बनाना सरकार की जिम्मेदारी है। निम्नलिखित कदम इस दिशा में निर्णायक हो सकते हैं। 1. शिक्षकों की नियमित और पारदर्शी भर्ती: शिक्षकों की कमी सबसे बड़ी बाधा है। योग्य और प्रेरित शिक्षक ही किसी भी स्कूल की नींव होते हैं। 2. बुनियादी ढांचे में निवेश: साफ-सुथरी इमारत, शौचालय, पीने का पानी, लाइब्रेरी और डिजिटल सुविधाएं—ये बच्चों को स्कूल की ओर आकर्षित करते हैं। 3. स्थानीय समुदाय की भागीदारी: स्कूल प्रबंधन समितियों को मज़बूत बनाकर स्थानीय लोगों को फैसलों में शामिल किया जाए। 4. गुणवत्ता की निगरानी और मूल्यांकन: सिर्फ नामांकन नहीं, शिक्षण की गुणवत्ता पर भी नज़र रखी जाए। 5. मीडिया में सकारात्मक छवि निर्माण: सरकारी स्कूलों की सफलता की कहानियाँ सामने लाई जाएं ताकि उनकी साख बहाल हो।
 
दिल्ली मॉडल: एक प्रेरणा
 
दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार ने सरकारी स्कूलों के कायाकल्प की दिशा में उदाहरण पेश किया है। न केवल नई इमारतें बनीं, बल्कि शिक्षकों को ट्रेनिंग दी गई, स्कूलों को साफ-सुथरा और तकनीक से लैस बनाया गया, और सबसे बड़ी बात—सरकार के मंत्री खुद स्कूलों में जाकर निरीक्षण करने लगे। आज दिल्ली के सरकारी स्कूलों में रिज़ल्ट भी बेहतर हैं और आत्मविश्वास भी।
 
शिक्षा को बाज़ार नहीं, अधिकार समझिए
 
शिक्षा को व्यापार बना देने से एक वर्ग आगे तो बढ़ेगा, पर बहुसंख्यक वर्ग पीछे ही रह जाएगा। इससे सामाजिक विषमता और गहरी होगी। सरकार की भूमिका तटस्थ नहीं, सक्रिय होनी चाहिए। उसे चाहिए कि वह शिक्षा को एक सामाजिक दायित्व माने, न कि राजस्व की वस्तु।
 
सरकारी स्कूलों की साख बहाल करना, लोकतंत्र की साख बहाल करना है
 
अगर सरकारी स्कूल बंद होते हैं, तो यह केवल शिक्षण संस्थानों का बंद होना नहीं है, यह उस विचार का पतन है जिसमें हर बच्चे को समान अवसर मिलने चाहिए थे। यह संविधान में आस्था को डगमगाने जैसा है। यह लोकतंत्र की आत्मा पर आघात है।
 
स्कूल मत बंद करो, सोच बदलो
 
सरकारी स्कूलों को बंद करना आसान है, लेकिन एक पूरी पीढ़ी का भविष्य बंद हो जाएगा। यह वक्त है सोच बदलने का, दिशा बदलने का। हमें चाहिए कि सरकारी स्कूलों को गर्व का केंद्र बनाएं—ऐसे संस्थान जहाँ शिक्षा का अधिकार नहीं, सम्मान मिले। जहाँ बच्चा न ये पूछे कि वो प्राइवेट स्कूल से है या सरकारी से, बल्कि ये पूछे कि वो सीख क्या रहा है, सोच क्या रहा है, और आगे क्या कर सकता है।
 
 
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