मनुष्य के जीवन में सुख और दु:ख, दिन रात की तरह आते-जाते रहता है। जीवन में एक जैसी परिस्थिति कायम नहीं रहती है। कभी सुख, कभी दु:ख। सुख के समय लोग खुशियां मनाते है, मनाना चाहिए। लेकिन, जब दु:ख आता है, तब वह सिर पकड़कर रोता है। दोनों परिस्थितियों में प्रज्ञावान समता में रहता है और मन में धारण करता है- यह भी बदल जायगा।
एक कहानी:
एक कोई बहुत धनवान बूढ़े व्यक्ति का देहांत हो गया। उसके दो पुत्र, कुछ दिनों तो संयुक्त परिवार में साथ-साथ रहे, फिर लड़ पड़े। लड़ पड़े तो सारी जमीन-जायदाद, रुपये-पैसे सब आधे-आधे बांट लिए। सारा बंटवारा होने के बाद किसी को ख्याल आया, अरे, एक तिजोरी में भी तो कुछ है। तो उसे जा करके खोला, तो उसमें एक पोटली निकली। उस पोटली में दो अंगूठियां। एक अंगूठी हीरे की, बहुत कीमती अंगूठी, दूसरी केवल चांदी की अंगूठी। तो बड़े भाई को लोभ हुआ। वह कहता है- यह हीरे वाली मेरे हवाले कर, क्योंकि यह बाप की कमाई नहीं है, लगता है पूर्वजों की कमाई है और पीढ़ियों तक चलनी चाहिए। मैं संभाल कर रखूँगा, चांदी वाली तू रख । छोटा भाई मान गया- अच्छी बात, चांदी वाली हम रखते हैं। घर आकर छोटा भाई देखता है, उस चांदी वाली अंगूठी पर कुछ खुदा हुआ है, कुछ लिखा हुआ है। उसे पढ़ता है – ‘यह भी बदल जायगा’। ओह! यह मेरे पिता का उपदेश है- “यह भी बदल जायगा।”
दोनों भाइयों का जीवन चलता है। बड़े भाई के जीवन में बसंत आता है तो खुशी से उछलता है। पतझड़ आता है तो उदासी में डूब जाता है और भीतर टेंशन ही टेंशन, सुपर टेंशन, हाइपर टेंशन। दुःखी ही दु:खी, रोते रहता है।
और छोटा भाई, बसंत आता है तो उसे भोगता है- तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा, आसक्त नहीं होता। पतझड़ आता है तो भी मुस्कराता है, सोचता है- ‘यह भी बदल जायगा, यह भी बदल जायगा’। वह प्रज्ञावान है, सुखी रहता है।
धम्म इसीलिए है कि जीवन में उतरे । उतार-चढ़ाव आने ही वाले हैं, कैसे समता का जीवन जीए। मन का संतुलन न खोएं तो मंगल ही मंगल। शुद्ध धम्म के रास्ते जो चले, समता का जीवन जो जीए, उसी का मंगल होता है, उसी का कल्याण होता है। उसको दु:खों से मुक्ति मिलती है।
