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जनमानस की मदद से PFI को उसी के स्टाइल में कंट्रोल किया जा सकता है बशर्ते…

admin
Last updated: जुलाई 21, 2022 7:10 अपराह्न
By admin 10 Views
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जनमानस की मदद से PFI को उसी के स्टाइल में कंट्रोल किया जा सकता है बशर्ते…

दंगा, फसाद, आगजनी या फिर इससे मिलता-जुलता और कोई बवाल देश के किसी भी कोने में क्यों न हो. हर बवाल के बाद सबसे पहले राज्य की पुलिस और देश की जांच व खुफिया एजेंसियों को याद पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया (PIF) ही आता है. पहला सवाल आखिर ऐसा क्यों? दूसरा सवाल कि अगर यह प्रतिबंधित संगठन इतना ही खतरनाक है तो फिर इसे, कई साल से नेस्तनाबूद क्यों नहीं किया जा सका? तीसरा सवाल जब इस बदनाम और देश विरोधी गतिविधियों को लेकर हमेशा संदिग्ध रहने वाले संगठन के बारे में सब कुछ पता है, तो फिर चर्चाओं-शोरगुल तक ही यह संगठन सीमित होकर क्यों रह गया है? आइए एक नजर डालते हैं, इन्हीं तमाम सवालों के संभावित जवाबों पर.

Contents
अब तक ऐसा कोई उदाहरण नहींकमी कानून में नहीं है, इतना हो सकेजरूरत बस इस बात की है कि….PFI की भला क्या औकातपीएफआई के ही स्टाइल में एजेंसियां जुटेयह भी जानना जरूरी है

पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया का परदे के पीछे और परदे के सामने मकसद क्या है? देश की खुफिया और जांच एजेंसियां इस बात से भली-भांति परिचित हैं. देश के हर राज्य की पुलिस भी पीएफआई के असली चेहरे से वाकिफ है. मुश्किल यह है कि सब कुछ जानते हुए भी एजेंसियों के पास उस हद के पीएफआई के खिलाफ सबूत अमूमन या अधिकांश घटनाओं के बाद इकट्ठे ही नहीं हो पाते हैं, जिनके बलबूते पुलिस या फिर देख की कोई भी अन्य जांच एजेंसी पुख्ता तौर पर कानूनन इस संगठन को शिकंजे में कस सके! दूसरी बात यह है कि इस प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से इस संगठन के कथित मंसूबे तो देश विरोधी हो सकते हैं. इसके बाद भी मगर जिस तरह से यह किसी भी बवाल का ताना-बाना बुनता है, उसमें झांककर देख पाना एजेंसियों के काबू की बात नहीं है!

अब तक ऐसा कोई उदाहरण नहीं

कहने-देखने सुनने को अक्सर जब-जब जहां पीएफआई की भूमिका संदिग्ध लगी. तब-तब और उन मामलों में पीएफआई से जुड़े चंद लोग तो एजेंसियों के शिकंजे में कभी-कभार घिरे-फंसे. यह अलग बात है कि कोई ऐसा उदाहरण अभी तक याद नहीं आता जिसमें, पीएफआई का कोई पदाधिकारी या फिर कार्यकर्ता कानूनन सजायाफ्ता मुजरिम की कैटेगरी में शामिल कराया जा सका हो! यह बात भी दीगर है कि देश की राजधानी दिल्ली सहित यूपी, महाराष्ट्र, गुजरात, बिहार जैसे राज्यों की एजेंसियों की नजरों के रडार पर यह संगठन 24 घंटे, 365 दिन बना रहता है. जैसे कि आजकल बिहार के फुलवारी शरीफ का ही मुद्दा ले लीजिए. बिहार पुलिस के साथ साथ अब तो पीएफआई से जुड़े फुलवारीशरीफ कांड में देश की बाकी जांच और खुफिया एजेंसियां भी जुड़ चुकी हैं. ऐसा पहले भी कभी-कभार देखने को मिलता रहा है. हां, जिस तरह से इस बार अब बिहार के फुलवारी शरीफ कांड में पीएफआई कानूनी तौर पर फंसता दिखाई दे रहा है. वैसा शायद अब से पहले कभी ही फंसा हो.

कमी कानून में नहीं है, इतना हो सके

जमाने की नजरों में चढ़ने के बाद भी बेकाबू होते बवाली पीएफआई को लेकर टीवी9 भारतवर्ष ने दिल्ली पुलिस स्पेशल सेल के पूर्व डीसीपी एलएन राव से बात की. देश के चुनिंदा एनकाउंटर स्पेशलिस्टों में शुमार राव के मुताबिक, “कानून तो ऐसे संगठनों को काबू करने के बहुत है. मुश्किल यह आती है कि ऐसे संगठन से जुड़े लोगों के खिलाफ अदालत में भी मजबूत सबूत पेश कर पाना. पीएफआई जैसे संगठन किसी भी षड्यंत्र में डायरेक्ट खुद का इनवॉल्मेंट शो ही नहीं होने देते हैं. भले ही किसी भी बवाल का पूरा इंतजाम इसी संगठन के लोगों के हाथों में ही क्यों न रहा हो. दरअसल, प्रैक्टिकली अगर देखा जाए तो उस संगठन को कमजोर करने का एक ही उपाय मौजूदा हालातों में बाकी बचा नजर आता है. यह संगठन या इससे जुड़े लोग जहां-जहां अपना भेष या रूप बदलकर जमने पहुंचें. उन्हें उसी वक्त वहां से उखाड़ दिया जाए.”

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जरूरत बस इस बात की है कि….

दिल्ली पुलिस के पूर्व डीसीपी एलएन राव चूंकि खुद कई साल तक इस तरह के खुराफाती संगठनों से निपटते रहे हैं. लिहाजा ऐसे नाजुक वक्त में उनकी बात पर एजेंसियों को अमल करना चाहिए. आप देश की राजधानी की पुलिस में वो भी स्पेशल सेल जैसी अहम और संवेदनशील विंग में कई साल तैनात रहे हैं. आपके पास अगर पीएफआई से संगठनों को कमजोर करने का कोई मूल-मंत्र है तो देशहित में आप उसे अपनी जांच और खुफिया एजेंसियों को क्यों नहीं देते? पूछने पर राव कहते हैं, “एजेंसियां अपना काम सही कर रही हैं. मुश्किल बस यह है कि इस तरह के संगठनों की कोई कमजोरी जांच और इंटेलिजेंस एजेंसियों के हाथ कब पहुंचती है? जैसे ही ऐसे संगठन की कमजोर नस मिलती है. वैसे ही इनकी जड़ें खोद दी जाती हैं.” इस बारे में टीवी9 भारतवर्ष ने 1974 बैच के पूर्व आईपीएस और उत्तर प्रदेश के तत्कालीन पुलिस महानिदेशक विक्रम सिंह से भी खुलकर बात की.

PFI की भला क्या औकात

बकौल विक्रम सिंह, “सिर्फ और सिर्फ जज्बे की बात है. पीएफआई से संगठनों की भला क्या औकात जो वे देश की एजेंसियों या फिर किसी राज्य की पुलिस के सामने सिर उठाकर खड़े हो सकें? दरअसल ऐसे संदिग्ध संगठनों को इन्हीं की चाल में फांसना चाहिए. सिर्फ पुलिसिया और कानूनी डंडा हवा में उछालने भर से कुछ नहीं हासिल होने वाला है. इसी चीज की कमी का फायदा यह सब (पीएफआई से संगठन) उठाते हैं. एक घटना को अंजाम देने के बाद दूसरी घटना का षड्यंत्र रचने में लग जाते हैं. जब पुलिस और खुफिया एजेंसियों को पता है कि इस तरह के देश के लिए घातक संगठन, जल्दी जल्दी अपनी रणनीति और कार्यक्षेत्र बदलते रहते हैं. तो फिर उन्हीं की भाषा में उनके पीछा लगा जाए. अगर ऐसे संगठनों के पदाधिकारी और कार्यकर्ता जो सिर्फ शांति भंग करने का ही ताना बाना बुनने में हरदम जुटे रहते हों. इन्हें काबू करने का फार्मूला खोजकर इन्हें काबू करने की जिम्मेदारी तो हमारी पुलिस और संबंधित जांच एजेंसियों को ही निभानी है.”

पीएफआई के ही स्टाइल में एजेंसियां जुटे

विक्रम सिंह ने आगे कहा, “मैं यह नहीं कह रहा हूं कि किसी राज्य की पुलिस या जांच अथवा इंटेलिजेंस एजेंसियां ऐसे प्रतिबंधित और बदनाम संगठनों को पाल रही हैं. मेरे कहने का साफ साफ मतलब यह है कि एक अदना सा बदनाम संगठन अगर काबू करना चाहें तो हमारी एजेंसियों को इनके पीछे इन्हीं की भाषा, स्टाइल में हाथ धोकर इनके पीछे पड़ना होगा. ताकि एक अड्डे के नेस्तनाबूद होने के बाद दूसरा अड्डा जमाने की ऐसे संगठनों की हिम्मत ही न हो. साथ ही जहां तक सवाल पीएफआई को काबू करने का सवाल है तो, विशेषकर इसे काबू करने के लिए जनमानस का सहयोग खुला सपोर्ट लेना बहुत जरूरी है. हमारी एजेंसियां जब तक ऐसे संगठन की रीढ़ तोड़ने के लिए आमजन के बीच में नहीं घुसेगी तब तक ऐसे बदनाम संगठनों को काबू करना मुश्किल है. क्योंकि पीएफआई से खतरनाक संगठन सिर्फ और सिर्फ हमारे-आपके जैसे ही आमजन में से कुछ को बरगलाकर ही अपनी पैठ बनाते-बढ़ाते हैं. यही काम फिर हमारी पुलिस और एजेंसियों को करने में भला क्या और क्यों दिक्कत है?”

यह भी जानना जरूरी है

पीएफआई को लेकर टीवी9 भारतवर्ष ने भारतीय खुफिया एजेंसी के डीआईजी के पद पर काम कर चुके एक पूर्व अधिकारी से भी बात की. उनके मुताबिक, “पीएफआई को जितना मैं देख समझ सका हूं. उसकी पब्लिक फॉलोइंग ही रीढ़ की हड्डी है. पीएफआई कभी डायरेक्ट कहीं कोई बवाल मचाने का जब इंतजाम कर ही नहीं रहा है. तो फिर उसकी वो नब्ज पकड़िए न. जिसके बलबूते वो बवाल कराके साफ बच निकलता है. मेरी समझ से तो पीएफआई के समर्थक गली-गली, कोने कोनो में मौजूद हैं. इनमें शिक्षित-अशिक्षित हर तबके के लोग हैं. इस संगठन की मदद प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूप से कुछ रिटायर्ड अफसर-कर्मचारियों द्वारा किए जाने की खबरें भी मैंने मीडिया में कभी कभार पढ़ी हैं. अगर यही सच है तो फिर हमारी पुलिस और एजेंसियां भी इसके गढ़ में सेंध लगाने के लिए, सीधे पब्लिक के ही बीच क्यों नहीं पहुंच जाती हैं? यह कौन सा मुश्किल काम है? पब्लिक का सपोर्ट यह (पीएफआई) ले रहे हैं “

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Source: TV9 Bharatvarsh

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