लघु समाचार पत्र होना कोई अपराध नहीं, मौन तोड़िए
-मदन गोपाल शर्मा
हर दिन तुम्हारी बलि चढ़ाने को नित नये षडयंत्र रचे जाते हैं और तुम मौन हो? रोज पीड़ितों की खबरें छापकर उन्हें न्याय दिलाने का दम्भ भरने वालो इस देश में किसी को आपकी जरूरत नहीं है क्योंकि आपका प्रसार कम है। आप कम प्रसार वाले ऐसे समाचार पत्र हो जो अपने हर अंक में ऐसे समाचार प्रकाशित करते हो जिन्हें सत्ताधीश, और प्रशासन से जुड़े अधिकारी कर्मचारी नहीं चाहते क्योंकि वे समाचार भ्रष्टाचार की जड़ें खोदने वाले होते हैं। गत दिनों इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा है कि ‘‘कम प्रसार वाले समाचार पत्रों में भर्ती विज्ञापन प्रकाशित कराना उस पद के उम्मीदवारों के साथ अन्याय है। अपील पर सुनवाई करते हुए खंडपीठ ने कहा कि याची को कम प्रसार वाले समाचार पत्र में दिए गए विज्ञापन के आधार पर नियुक्त किया गया है। सम्बंधित समाचार पत्र का राज्य में व्यापक प्रसार नहीं है। विज्ञापन प्रदेश स्तरीय अखबार में दिया जाना चाहिए था।’’ माननीय उच्च न्यायालय का आदेश हम सभी को शिरोधार्य है, क्योंकि न्यायपालिका का पूरा देश सम्मान करता है। हम मानते हैं कि समाचार पत्रों में बड़ा, मध्यम और लघु तीन श्रेणियां होती हैं जिन्हें डीएवीपी द्वारा अंग्रेजी में बिग, मीडियम और स्माॅल नाम दिया गया है। यह सब उसी तरह है जैसे उच्चतम न्यायालय, उच्च न्यायालय और जनपद न्यायालय होता है। इन सबका गठन संविधान में वर्णित व्यवस्था के अंतर्गत किया गया है। जिस तरह एक जनपद न्यायालय के निर्णय का जनता, प्रशासन और शासन द्वारा सम्मान किया जाता है, उसी तरह उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय के निर्णय का स्वागत और सम्मान किया जाता है। इन न्यायालयों द्वारा चाहे किसी की मंशा के विपरीत भी निर्णय हुआ भी हो तब भी कोई सार्वजनिक रूप से यह कभी नहीं कहता कि हमें जनपद न्यायालय अथवा उच्च न्यायालय का निर्णय मान्य नहीं है, वह इसलिए क्योंकि हमें हर स्थिति में अपने न्याय के मंदिरों का सम्मान बरकरार रखना है। यदि कोई जनपद न्यायालय के निर्णय से असंतुष्ट होता है तो वह उच्च न्यायालय में अपील करता है और उच्च न्यायालय के निर्णय से संतुष्ट नहीं होता तो वह उच्चतम न्यायालय में अपील कर सकता है। कभी उच्चतम न्यायालय यह नहीं कहता कि हम उच्च न्यायालय को नहीं मानते और उच्च न्यायालय यह नहीं कहता कि हम जनपद न्यायालय को नहीं मानते। अपीलीय निर्णय चाहे भिन्न हो लेकिन अपनी अधीनस्थ अदालतों की गरिमा का उच्च अदालतों द्वारा ध्यान रखा जाता है। उसी तरह सरकार द्वारा विभिन्न श्रेणियों में विभक्त समाचार पत्रों की गरिमा का भी सभी को सम्मान रखना चाहिए क्योंकि समाचार पत्र देश के संविधान के अनुरूप व्यवस्थाओं के तहत संचालित होते हैं वे हमेशा यह खयाल रखते हैं कि उनके द्वारा यदि किसी का सम्मान बढ़ नहीं पाए तो, किसी का अपमान भी न होने पाये। लघु समाचार पत्र होना कोई अपराध नहीं है क्योंकि वे सरकार द्वारा निर्धारित बहुत सारी औपचारिकताएं पूरी कर सरकार के सभी प्रकार के विज्ञापन (चाहे वह किसी विभाग की नियुक्ति अथवा टेण्डर) छापने के लिए अधिकृत हो पाते हैं। उल्लेखनीय है कि लघु समाचार पत्रों को भी उसी डीएवीपी से विज्ञापन छापने की अनुमति मिलती है जिससे बड़े कहे जाने वाले समाचार पत्रों को विज्ञापन छापने की अनुमति मिलती है। डीएवीपी द्वारा प्रसार के आधार पर ही विज्ञापन रेट जारी किये जाते हैं जिनकी प्रसार संख्या कम है उन्हें कम रेट मिलता है और जिनकी प्रसार संख्या अधिक होती है उन्हें अधिक रेट मिलता है, जब प्रसार के आधार पर यह व्यवस्था की गई है तब फिर लघु समाचार पत्रों को अनेकों किन्तु-परन्तु लगाकर विज्ञापन छापने से रोकने की व्यवस्थाएं क्यों बनाई जा रही हैं। टेण्डर और नियुक्तियों से सम्बंधित विज्ञापन अधिकतम तीन समाचार पत्रों में प्रकाशित कराया जाता है। जिस जनपद की संस्था है उसका विज्ञापन उस जनपद से प्रकाशित होने वाले एक समाचार पत्र में प्रकाशित कराया जाना तो अनिवार्य होता ही है, एक मण्डल और राज्य स्तरीय समाचार पत्र में भी दिया जाता है। लघु समाचार पत्र कभी यह नहीं कहते कि मंडल अथवा बहु प्रसारित समाचार में विज्ञापन प्रकाशित न करायें। लेकिन एक बहु प्रसारित समाचार पत्र ने तो उच्च न्यायालय इलाहाबाद के निर्णय के बाद 11 जून को ‘संदिग्ध मंशा’ शीर्षक वाली अपनी सम्पादकीय में यह तक लिखा है कि ‘सिर्फ नियुक्ति में ही नहीं, छोटे ठेकों के टेंडर आदि के प्रकाशन में भी इस तरह की धोखेबाजी की जाती है। कुछ समाचार पत्रों का प्रकाशन ही इसीलिए किया जाता है कि उसमें इस तरह के विज्ञापन प्रकाशित किए जा सकें। उल्लेखनीय है कि माननीय उच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में टेंडर शब्द का उल्लेख तक नहीं किया है फिर भी न्यायालय के निर्णय की आड़ में, ‘लघु समाचार पत्रों के प्रकाशन ही गलत कार्यों के लिए किया जाता है’ इस प्रकार का अनावश्यक विषवमन किया गया है।
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