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लेख

अनेक साथी – कहानी

admin
Last updated: अगस्त 14, 2025 8:57 पूर्वाह्न
By admin 22 Views
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17 Min Read
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अनेक साथी
कहानी
विजय गर्ग
सुरेखा ने घड़ी में समय देखा। रात के नौ बज रहे थे। वह जानती कि आज छुट्टी का दिन है और बड़ा बेटा विकास घर पर होगा। वहां डलास शहर (अमेरिका) में इस समय दिन के ग्यारह बज रहे होंगे। उसने विकास को फोन मिलाया।

‘नमस्ते मम्मी कैसी हो?’ उधर से विकास की आवाज सुनाई दी।

 

‘मैं ठीक हूं। तू सुना, कैसा है? रीमा और दोनों बच्चे टिंकू-पिंकू कैसे हैं?’

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‘सब ठीक है मम्मी।’

‘विकास तेरे पापा का स्वर्गवास हुए छह महीने हो चुके हैं। इन छह महीनों में मैंने तुझे कई बार फोन किये हैं। अब यह मेरा अन्तिम फोन है। तू भी अच्छी तरह जानता है कि मैं यह फोन क्यों कर रही हूं।’

‘जानता हूं मम्मी
‘देख बेटे, जब तक तेरे पापा थे तो मुझे कोई चिन्ता न थी। दुर्घटना के कारण उनकी बहुत दर्दनाक मृत्यु हुई। वह सरकारी अफसर रहे। रिटायरमेंट के बाद उनको बीमारियों ने घेर लिया था। बहुत कष्ट सहे उन्होंने। उनके चले जाने के बाद मैं बिल्कुल अकेली हो गई हूं। इतने बड़े घर में अकेलापन सहा नहीं जाता। मैं आज तुझसे आखिरी बार पूछ रही हूं कि तू यहां आयेगा या नहीं?’

‘मम्मी मैं नहीं आ पाऊंगा। मैं यहां अच्छी तरह सैटल हो गया हूं। बच्चों को भी यहां की नागरिकता मिल चुकी है। इतनी अच्छी नौकरी है। हर सुविधा मिल रही है। इतने साल हो चुके हैं यहां रहते-रहते। रुपये-पैसे की कोई कमी नहीं है। वहां पापा सरकारी अफसर रहे। खूब रुपया, जायदाद बनाई। मुझे आपसे कुछ नहीं चाहिए। आप छोटे भाई विपुल को वहां बुला लो न। वह भी तो परिवार के साथ ह्यूस्टन शहर (अमेरिका) में रह रहा है।’

‘मैं उसे भी कई बार कह चुकी हूं। वह भी यही सब कहता है जो तू कह रहा है।’

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‘मम्मी वहां उस छोटे से शहर में क्या करेंगे आकर? इतने साल हो गये वह शहर पहले जैसा ही है। हर ओर भीड़-भाड़, टूटी-फूटी सड़कें, बिजली-पानी की कमी व बढ़ता प्रदूषण।’

‘इस छोटे से शहर की हवा, मिट्टी और पानी से ही तू पलकर बड़ा हुआ। देश में पढ़ाई-लिखाई कर किसी योग्य बना और जब देश की सेवा करने का मौका मिला तो विदेश में जाकर बस गया। भूल गया कि यहां तेरी मम्मी भी है।’

‘ठीक है मम्मी! तुम वहां रहो। करोड़ों की जायदाद तुम्हारे पास है, तुम चाहो तो इस आयु में अपना कोई नया जीवनसाथी ढूंढ़ सकती हो। हमें कोई एतराज नहीं होगा। इतना धन देखकर तो बहुत रिश्तेदार तुम्हारे पास रहने को तैयार हो जायेंगे। तुम अपना अकेलापन किस तरह दूर करोगी, यह तुम्हारी इच्छा है।’ उधर से विकास का स्वर सुनाई पड़ा।

सुरेखा ने फोन का स्विच ऑफ कर दिया। वह बिस्तर पर लेट गई। उसके हृदय पर भारी बोझ-सा बढ़ता चला गया। यह बोझ उसके अपने बेटों ने ही दिया था।

सुरेखा की दृष्टि दीवार पर लगे पति शोभित के फोटो पर चली गई। वह एकटक देखती रही। समझ नहीं पा रही थी कि क्या करें? मन ही मन कहने लगी आप तो चले गये मुझे अकेली छोड़कर। मायके दोनों बेटों ने भी मुझे बिल्कुल अकेला कर दिया। अब इस अकेलेपन से कैसे उबर पाऊंगी?’

सुरेखा पुरानी यादों में पहुंचने लगी। उसे याद आ रही थी बीते जीवन की एक-एक घटना… एक कस्बे में उसका परिवार रहता था। मां-पापा और एक छोटा भाई। कस्बे में पापा की परचून की दुकान थी। वह बी.ए. तक पढ़ी थी। वह तो एम.एम. करना चाहती थी, परंतु एक अच्छा रिश्ता आया तो पापा मना नहीं कर सके क्योंकि लड़का एक सरकारी अफसर था। उसका गौरा रंग, तीखे नयन-नक्श, छरहरा शरीर देखकर शोभित ने उसे एकदम पसंद कर लिया था। चट मंगनी और पट शादी हो गई।

शोभित का परिवार चन्दनपुर में रहता था। शोभित अपने मम्मी-पापा का इकलौता बेटा था। वह शुरू से ही पढ़ाई में बहुत होशियार रहा। उसके पापा की कपड़े की एक छोटी-सी दुकान थी। शोभित एक सरकारी विभाग में अफसर बन गया।

शादी के बाद वह ससुराल आ गई। उसने घर का पूरा काम-काज संभाल लिया था।

उसने सारा जीवन कम खर्चा करते हुए सादगी पूर्ण जीवन जिया। वह सदा दिखावे की दुनिया से दूर रही।

पति शोभित का विभिन्न नगरों में तबादला होता रहता था। शादी के बाद पांच वर्षों में वह दो बेटों की मां बन गई। बड़े का नाम रखा गया विकास और छोटे का विपुल। अपने पापा की तरह दोनों बच्चे पढ़ाई में बहुत तेज थे।

अधिकारी बनने के बाद शोभित के पास धन की कमी न रही। उसने गांधी रोड पर एक हजार मीटर का प्लॉट खरीद कर पांच छह कमरों का मकान बनवा लिया था। उस मकान में शोभित के मम्मी व पापा रहने लगे। कभी मन करता तो वह भी कुछ दिन के लिये रहने आ जाती थी।

एक रात शोभित के मम्मी-पापा की ट्रेन दुर्घटना में मृत्यु हो गई थी। वे दोनों तीर्थयात्रा से लौट रहे थे। अब दुकान कौन देखेगा? क्योंकि दोनों बेटे विकास और विपुल अभी पढ़ रहे थे। शोभित भी चाहते थे कि दोनों बेटे पढ़-लिखकर कुछ बन जायें। इसलिये दुकान व पुराने मकान को बेच दिया गया।

कुछ वर्षों में ही दोनों बेटों ने इंजीनियरिंग कर ली और एक बड़ी कम्पनी में बंगलुरू में नौकरी मिल गई। दोनों की शादी कर दी गई। शादी के बाद दोनों अपनी पत्नी के साथ बंगलुरू में रहने लगे।

कुछ समय बाद कम्पनी ने दोनों को अमेरिका भेज दिया। विकास को डलास व विपुल को ह्यूस्टन में भेजा। अमेरिका में ही दोनों के परिवार बढ़े। विकास के यहां दो बेटों ने जन्म लिया और विपुल के यहां दो बेटियों ने। इतने वर्षों में वह और शोभित केवल दो बार ही अमेरिका अपने बेटों से मिलने गये। उनके परिवार के बीच रहकर बहुत अच्छा लगा था।

तब शोभित ने विकास से कहा था, ‘भारत कब आ रहे हो?’

‘पापा वहां आकर क्या करेंगे? जितने रुपये यहां मिल रहे हैं, इतने तो कोई कम्पनी वहां नहीं देगी और फिर यहां हमें कोई परेशानी नहीं है। हर तरह से मौज ही मौज है। दोनों बच्चों को भी यहां की नागरिकता मिल चुकी है।’

‘मेरे रिटायरमेंट के बाद जब मैं और तुम्हारी मम्मी रह जायेंगे, तब लगेगा कि अपने बच्चों का परिवार भी अपने साथ होना चाहिए।’

‘यह सोच पहले जमाने में हुआ करती थी। अरे हां मैं तो भूल ही गया कि आप भी पुराने जमाने के हो। अब तो यहां से छोड़ कर कभी आया नहीं जायेगा।’

यही उत्तर विपुल का था। वह भी अमेरिका छोड़कर भारत नहीं आना चाहता था।

शोभित साहित्य प्रेमी थे। घर पर पुस्तकों की लाइब्रेरी बना रखी थी। शोभित ने नौकरी करते समय तीन प्लॉट ले लिये थे। अच्छा-खासा बैंक बैलेंस भी हो गया था।

शोभित का रिटायरमेंट हो गया और वह घर पर ही रहने लगे।

एक दिन शोभित सोफे पर पसरे हुए आंखें बंद करके कुछ सोच रहे थे। उसने शोभित के पास आकर कहा था, ‘क्या सोच रहे हो?’

‘सोच रहा हूं कि जीवन में बच्चों के लिये बड़ा मकान बनाना बेकार है। हम यह सोचकर बड़ा मकान बनाते हैं कि इसमें हमारे बच्चे हमारे साथ रहेंगे। हमारे बुढ़ापे का सहारा बनेंगे, परंतु ऐसा नहीं हो पाता। मां-पापा से दूर रहना चाहते हैं। वे भूल जाते हैं कि कल उनको सहारे की जरूरत थी, जो मां-बाप से मिला और आज मां-बाप को जरूरत है जिसकी ओर से आंखें बन्द कर ली जाती हैं।’

‘हां यही तो हो रहा है आजकल। सबसे ज्यादा दुख तो मां-बाप को उस समय होता है जब कोई बेटा यह कह देता है कि आप अपनी जिंदगी जियो और हमें अपनी जिंदगी जीने दो।’

‘सुरेखा मैं जानता हूं कि हमारे दोनों बेटों में से कोई यहां नहीं आयेगा। अब हमें उनको यहां आने के लिये कहना भी नहीं है। अब तो हमें हंसी-खुशी बाकी का जीवन कहना होगा। हमें अपनी दिनचर्या में कुछ बदलाव लाने होंगे।’

‘हां ठीक कहते हो आप।’ उसने कहा था।

इसके बाद दोनों ने ही जीवन में कुछ नये बदलाव कर लिये थे। सुबह जल्दी उठकर पार्क में पहुंचना। भाग-दौड़, योग व्यायाम आदि करना। दोनों ही तीन-चार सामाजिक संस्थाओं से भी जुड़ गये। पुस्तकें पढ़ने का शौक तो शोभित को बहुत पहले से था। पत्र-पत्रिकाएं पढ़ते। दोनों ने स्वयं को व्यस्त कर दिया था।

एक दिन अचानक ही एक कार दुर्घटना में शोभित की मृत्यु हो गई।

उसने कभी सपने में भी न सोचा था कि दो बेटों के होते हुए भी उसे ही अपने पति का अन्तिम संस्कार कराना पड़ेगा।

शोक सभा में पांच दिन पहले विकास, विपुल अपनी पत्नी व बच्चों के साथ आ गये थे। उन दोनों के चेहरे पर अपने पापा के चले जाने का जरा भी दुख नहीं था। ब्रह्म भोज व शोकसभा के बाद रिश्तेदार मेहमान आदि चले गये।

एक रात उसने विकास व विपुल को अपने कमरे में बुलाकर कहा था, ‘बेटे, तुम्हारे पापा के जाने के बाद अब मैं बिल्कुल अकेली हो गई हूं। अकेले यह जीवन कैसे काट पाऊंगी। अकेले इतने बड़े घर में कैसे रहूंगी? मैं चाहती हूं तुम दोनों में से कोई भी एक मेरे पास रहे।’

‘बहुत कठिन है मम्मी। फिर भी हम इस बारे में विचार कर बता देंगे।’ विकास ने बात को टालते हुए कहा।

एक सप्ताह बाद विकास व विपुल अपने परिवारों के साथ अमेरिका लौट गये।

बार-बार शोभित का चेहरा आंखों के आगे आ रहा था। शोभित के बिताये गये जीवन की अनेक घटनाएं सामने आ रही थीं। सारी रात बिना नींद के ही व्यतीत हो गई। सुबह के पांच बज रहे थे। सुरेखा ने एक अटूट निर्णय लिया। नेत्र नींद से बोझिल होने लगे और वह निश्चिंत होकर सो गई। डोर बेल बज रही थी। सुरेखा की आंख खुली। उसने दीवार घड़ी में समय देखा-दस बज रहे थे। गोमती कामवाली आ गई होगी।

उसने उठकर दरवाजा खोला। सामने गोमती ही खड़ी थी।

‘नमस्ते मेम साहब, अभी तक सो रही थी। लगता है रात भी नींद नहीं आई।’ गोमती ने कहा। वह जानती थी कि प्रायः ऐसा होता रहता है।

दोपहर खाने के बाद सुरेखा ने अपनी तीन महिला मित्रों को फोन मिलाये और शाम पांच बजे अपने घर आने के लिये कहा कि कुछ जरूरी बात करनी है।

उसकी तीनों महिला मित्र बिमला, सुनयना व रजनी थी। इन सभी से उसका खूब मेलजोल था। सभी उसकी बहुत विश्वसनीय थीं। उन सभी की स्थिति भी सुरेखा की तरह थी। सभी अपने-अपने घरों में एकाकी जीवन जी रही थी। इनके बच्चे भी विदेशों में नौकरी कर रहे थे। वे भी भारत लौटने को तैयार नहीं थे। बिमला के पति थे जबकि सुनयना व रजनी के पति की कुछ साल पहले मौत हो चुकी थी। तीनों के पास रुपये-पैसे की कमी न थी। रहने को बड़ी-बड़ी कोठी थी। तीनों के दुख सुरेखा की तरह थे।

पांच बजे बिमला, सुनयना व रजनी सुरेखा के घर जा पहुंची।

बिमला ने एकदम पूछा, ‘कहो सुरेखा क्या बात है?’

‘पहले आप चाय-वाय तो पी लो उसके बाद बात करते हैं।’ सुरेखा ने कहा।

वे तीनों बार-बार सुरेखा के चेहरे की ओर देख रही थी।

चाय पीते हुए सुरेखा ने कहा, ‘रात मैंने विकास को अमेरिका फोन किया था यह जानने के लिये कि वह यहां आ रहा है या नहीं, परंतु उसने साफ मना कर दिया। मैंने भी उसे कह दिया कि वह मेरा अन्तिम फोन है। उसके बाद कभी यहां आने के लिये नहीं कहूंगी।

वे तीनों बहुत ध्यान से सुन रही थीं।

सुरेखा ने जो भी बातें हुई थीं, सारी बता दीं।

रजनी बोल उठी, ‘यही तो हमारी समस्या है कि अब हम क्या करें? बच्चे अपने परिवार के साथ विदेशों में मस्त हैं और यहां हम एक-एक दिन किस तरह अकेले काट रहे है, बस हमें ही मालूम है। दिन तो किसी तरह व्यतीत हो जाता है, परंतु रात बहुत लम्बी होती चली जाती है।’

‘मैंने कुछ सोचा है।’ सुरेखा ने कहा।

वे तीनों उसके चेहरे को पढ़ने का प्रयत्न करने लगीं।

सुरेखा बोली, ‘मैंने सोचा है कि यह मकान व प्लॉट आदि बेचकर एक सीनियर सिटीजन होम का निर्माण कराऊं। जिसमें बीस-तीस कमरे होंगे। भोजन आदि की पूरी व्यवस्था रहेगी। मैं भी उसी में रहूंगी। हम तो अकेलेपन की पीड़ा इसलिये भुगत रहे हैं कि विदेशों में रह रहे हमारे बच्चों ने हमको अकेला कर दिया है। लेकिन हर नगर में ऐसे बुजुर्गों की कमी नहीं है जिनके बेटे-बहुएं साथ रहते हुए भी उनको बहुत दुखी करते हैं।’

यह सब तो हमने कभी सपने में भी नहीं सोचा था। बहुत नेक व परोपकारी विचार हैं। इसमें हमारी जो भी मदद होगी, मैं करने को तैयार हूं। विमला ने कहा।

‘और हम भी।’ सुनयना व रजनी एक साथ बोल उठीं।

इस काम में विमला के पति महेन्द्र प्रकाश ने बहुत मदद की। एक बिल्डर उसका जानकार था उससे पूरा प्रोजेक्ट बनाया। सुरेखा का उनका घर बनाने का सपना पूरा होने में एक साल लग गया।

सुरेखा अपनी दो मित्रों रजनी व सुनयना के साथ वहीं रहने लगी। कुछ माह में ही उनका घर में पांच वृद्ध तथा सात वृद्धायें आ गईं जिनको ऐसे ही आश्रय की जरूरत थी।

उसने एक दिन विशाल को फोन मिलाया तो सुनाई दिया। ‘मम्मी कैसी हैं आप? मैंने कई बार आपको फोन मिलाया पर आपने फोन ही नहीं उठाया। आपकी तबीयत तो ठीक है न?’

‘हां, मैं बिल्कुल ठीक हूं। मैं तो अपना अकेलापन दूर करने का प्रबन्ध कर रही थी।’

‘क्या कोई जीवन साथी मिल गया है?’

‘जीवन साथी नहीं पर अनेक साथी मिल गये हैं। अब मेरा बहुत बड़ा परिवार हो गया है।’

‘क्या मतलब? मैं समझा नहीं?’

‘मैंने अपना ही नहीं अनेक लोगों का अकेलापन दूर करने का प्रबन्ध कर दिया है। उनका घर बनाकर।’ कहते हुए सुरेखा ने सब कुछ बता दिया।

‘चलो ठीक है मम्मी जैसा आपने किया आपकी इच्छा।’ विकास का उदास स्वर सुनाई दिया।

सुरेखा ने फोन काट दिया। उसके चेहरे पर अकेलेपन की पीड़ा नहीं अपितु भरपूर परिवार मिलने की प्रसन्नता थी।
विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल मलोट पंजाब

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