विश्व आदिवासी दिवस: जनमत शोध संस्थान द्वारा जारी रिपोर्ट
*आदिवासी समाज: सामाजिक सांस्कृतिक अन्तर्विरोध और विकास की नई चेतना*
■ : अशोक सिंह
विश्व आदिवासी दिवस पर औपचारिक आयोजनों से परे इस बात पर भी चिंतन-मनन किया जाना चाहिए कि आज जबकि आदिवासियों के दर्द के प्रति चिंतित समाज के एक बड़े तबके को उसकी अस्मिता से कोई खास मतलब नहीं है फिर भी पता नहीं क्यों इन दिनों वर्तमान समाज उनके जीवन और उनकी समस्याओं में इतनी रूचि ले रहा है? पता नहीं उनकी संस्कृति के प्रति चिंतित लोगों और समुदायों को क्या मिलेगा दो दिन के परिचय सुनी-सुनायी बातों तथा अर्द्धसत्य एवं अर्द्धकल्पनाओं के आधार पर इन जनजातियों की विचित्र प्रथाओं और अनोखे रीति-रिवाजों के रोमांचक वर्णन से ?
सच तो यह है कि आज आदिवासी समाज की अवस्था को लेकर जो तरह-तरह की व्याख्याएँ दी जा रही हैं उसकी संस्कृति का जो विश्लेषण किया जा रहा है। उसमें वास्तविकता से परे जाकर बदलावों को दरकिनार कर दिया जाता है। जिससे समकालीन चुनौतियों को समझना आज कठिन हो गया है। ऐसी रणनीति अपनायी जाती है कि उसमें समानता तथा सामाजिक न्याय के पहलू बहस के केन्द्र में नहीं उभरे।
किसी भी परंपरागत समाज के अन्तर्विरोधों और उसकी प्रक्रिया को समझने के लिए उस समाज के स्वरूप, उसकी सामाजिक संरचना और उसके सामाजिक यर्थाथ के बीच के अंतर को समझना होगा। सवाल चाहे नये समाज की रचना का हो या पुरातन प्रणाली के रचनात्मक व सकारात्मक संबंधों को विकसित करने का, इस राह से गुजरना ही होगा। परंपरा के बारे में भी साफ और स्पष्ट समझ विकसित करने के लिए यह जरूरी है। ताकि उन भ्रमों से मुक्त हुआ जा सके जो इतिहास के एक खास दौर में पैदा होकर परंपरा और अंधविश्वास में गहन घालमेल कर देते हैं। जिससे समाज अपने ही इतिहास के बारे में भ्रांति का शिकार हो जाता है और वैज्ञानिकता तथा गतिशीलता के बदले स्थिरता को ही परंपरा मान लेता है। वैसे भी आज परंपरा का सवाल वास्तव में बार-बार परीक्षण की माँग करता है। खासकर आदिवासी परंपरा को समझने के लिए इतिहास और समाजशास्त्र की दोहरी जानकारी जरूरी है। साथ ही एक देशज और एथनिक नजरिया भी चाहिए। आज का आदिवासी समाज परंपरा के ऐसे संतुलन के लिए बेचैन है, जिसमें एक और वह अपनी पहचान भी कायम रख सके और विकास की दौड़ में पीछे भी न छूटे। वह यह भी चाहता है कि उसकी परंपरा को केवल इतिहास अध्ययन का विषय नहीं रहने दिया जाय बल्कि उसका एक क्रंातिकारी विकल्प बने।
इससे साफ जाहिर होता है कि आज आदिवासी समाज में विकास की नई चेतना जाग चुकी है लेकिन उसकी इस चेतना को एक बने बनाये तार्किक फ्रेम में नहीं समझा जा सकता। वैसे भी परंपरा के भीतर जो सार्थक संवाद है उसे नकार कर किसी भी समाज की व्याख्या नहीं की जा सकती। खासकर आदिवासी समाज की तो कतई नहीं। आज परंपरा की दुहाई देने वालों में एक समूह ऐसा भी है, जो केवल प्रतिगामी या समय के थपेड़ों से पस्त हो चुकी चीजों को ही जरूरी तथ्य साबित करने की कोशिश करता हैै। ऐसे तत्व आम तौर पर साम्राज्य के समय थोपे गए कई विचारों और प्रवृतियों को ही असली तथ्य बताते हैं। जबकि सच्चाई यह होती है कि आदिवासी समाज के बनावट से उसका कोई सिलसिला नहीं बैठता। चूंकि आदिवासी समाज मंे इधर हाल के तीन-चार दशकों में भारी बदलाव हुए हैं, इसलिए मनोगत विचारों से दूर इसकी वर्तमान स्थिति का वस्तुपरक मूल्यांकन करना होगा। साथ ही यह भी ध्यान रखना होगा कि वर्तमान बदलावों को समझने के क्रम मे हम अतीत से कहीं कट न जायंे। नहीं तो जमीनी हालात को ठोस तरह से समझने की बजाय उससे मोहग्रस्तता हो जायेगी या फिर उसे ठुकराने की बात होने लगेगी। दोनों ही हालात में समाज के बेहतर मूल्यों के संवर्द्धन में आरोपित ‘जीवन-दृष्टि‘ को अपनाने का प्रचलन बढ़ेगा।
वैसे भी आज आदिवासी समाज कई बिडम्बनाओं का शिकार है, जिसमें सबसे बड़ी बिडम्बना तो यह है कि उसके पास आज भी प्रर्याप्त लिखित दस्तावेजों का अभाव है। जिसके कारण निहित ताकतों को अपने मनोनुकूल अवधारण गढ़ने का अवसर मिल रहा है और वे आदिवासी समाज संरचना के जनवादी विचारों को अतीतोन्मुखी बताकर अपने अनुसार विचार और मिथक बनाने की कोशिश को अंजाम दे रहे हैं। जिससे आदिवासीयत को लेकर भ्रम पैदा कर दिया जाता है और व्यापक आदिवासी समाज में विभाजन की रेखा खींच दी जाती है। आदिवासी संस्कृति और परंपरा की ऐसी ही व्यवस्था का परिणाम है कि आज व्यापक आदिवासी एकता और अनुगुंचित सामाजिकता को तोड़ने में उन्हें सफलता मिल रही है।
आज चारो ओर से एक सुनिश्चित साजिश के तहत आदिवासियों को मुख्यधारा में आने से रोका जा रहा है। उन्हें यथास्थिति में बनाये रखने वाले लोग जहाँ उन्हें जनजातीय कहकर उनके आदिवासी होने की अवधारण को मानने से इनकार करते रहे हैं, वही उनके परंपरागत समाज और संस्कृति की अपने अनुरूप व्याख्या कर उन पर अपने विचारों को थोपने में लगे हैं। ये वे लोग हैं जो अपनी सभ्यता संस्कृति को श्रेष्ठ बताकर उन्हें घृणा और हेय की दृष्टि से देखते हैं। पिछड़ा असभ्य जंगली कहकर दोयम दर्जे का प्राणी समझते हैं। इतना ही नहीं हमेशा उसे कुछ न कुछ सीखाने के मूड में रहते हैं उससे कुछ सोखने की कोशिश कभी नहीं करते। जबकि सच्चाई यह है कि अपने को श्रेष्ठ सभ्य और सुसंस्कृत समझने वाले इन तथाकथित बुद्धिजीवी और इन्टलेक्चूअल लोगों को अभी इनसे बहुत कुछ सीखने की जरूरत है। आवश्यकता है अपने बने बनाये फ्रेम से बाहर निकलकर स्वस्थ मानसिकता और सच्ची जिज्ञासा से उनके जीवन में सूक्ष्मता से झाँकने की।
आज आदिवासी समाज के लिए तो यह भारी चुनौती है कि वह अपने लायक और अपनी संवेदनात्मकता के अनुरूप इतिहास का अभिलेखीकरण करे तथा आरोपित इतिहास-दृष्टि से भी अपने को मुक्त कर ले। आदिवासी समाज को यह समझना होगा कि उनके लिए परंपरा का मतलब मृत रीति-रिवाजों को ढोना नहीं है। रीति-रिवाजों में अगर कुछ ऐसी रूढ़ियों ने जगह बना ली है, जिसका आदिवासी समाज की अवधारणामूलक चिंतन से कोई मेल नहीं है, तो उसे नकार कर अपनी परंपरा के वास्तविक व्यवहारों से पैदा हुए ‘जीवन-बोध‘ को स्थापित करे। ऐसा करने में जितनी देरी होगी आदिवासी समाज का उतना ही नुकसान होगा ओर समकालीन चुनौतियों से जूझने की उसकी क्षमता जाती रहेगी।
वैसे व्यवस्था को बनाये रखने वालों के लिए यह प्रक्रिया सहज ग्राह्य नहीं होती और वे एक सुनिश्चित साजिश के तहत इसे रोकने की हर संभव कोशिश करते हैं लेकिन उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए वक्त काफी बदल चुका है। आदिवासी समाज की विकासमान चेतना नया आकार ले रही है। उन्हें व्यवस्था के उन हिमायती लोगों की पहचान हो गई है, जो अपने इतिहास ज्ञान के प्रति तटस्थ बनाने की सुनिश्चित चेष्टा करते रहे हैं और उनके समाज की सच्चाईयों को स्वीकारने की बजाय उस पर स्थिरता का बेबुनियादी आरोप लगाते रहे हैं। उसे जंगली पिछड़ा असभ्य अविकसित कहकर अपना दंभ प्रकट करते रहे हैं। अब वे धीरे-धीरे अपने ऊपर आरोपित विचारों के जाल-फांस को तोड़कर बाहर आयेंगे और अपने अतीत के क्रांतिकारी चेतना को आधार बनाकर नये समाज की रचना करेंगे। इतना ही नहीं अब वे संसाधनों पर हक के साथ-साथ उत्पादन के लक्ष्य पर भी नयी बहस खड़ा कर देंगे। जिससे अर्थतंत्र की वर्तमान व्यवस्था को पूरजोर चुनौती मिलेगी और व्यवस्था-पोषक ताकतों के लिए अपने को बचाये रखना मुश्किल हो जायेगा।
*सम्पर्कः जनमत शोध संस्थान, पुराना दुमका केवटपाड़ा दुमका
