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लेख

व्यंग्य *चुनावी मौसम में सक्रिय घोषणा ग्रंथि

admin
Last updated: नवम्बर 3, 2025 9:34 अपराह्न
By admin 9 Views
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7 Min Read
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व्यंग्य

*चुनावी मौसम में सक्रिय घोषणा ग्रंथि*
( विवेक रंजन श्रीवास्तव-विनायक फीचर्स)

चुनाव का मौसम शुरू होते ही नेताओं के भीतर एक खास ग्रंथि सक्रिय हो जाती है,घोषणा ग्रंथि। इस ग्रंथि के जागते ही नेता को माइक, मंच और भीड़ एक साथ दिखने लगती है। फिर शुरू होती है घोषणाओं की बौछार। इस बार किसी ने कहा,हर घर सरकार की नौकरी, डेढ़ करोड़ नौकरी देंगे! भीड़ ने ताली बजाई, मंच पर फूल बरसे और बाकी नेताओं ने सोचा “इतनी नौकरी कहाँ से लाएँगे रे?” इतने सरकारी मुलाजिम करेंगे क्या , किस ऑफिस में बैठेंगे, शायद खुद के घर के चौकीदार बनेंगे सब ऐसा सोचा होगा घोषणा वीर नेता ने।
खैर घोषणा सुनकर बिहार का युवा खुश हो गया। बोला “अब तो हर घर में अफसर रहेगा, और हर गली में दफ्तर!”
क्योंकि सच कहिए तो सरकारी दफ्तरों में अब करने को बचा ही क्या है! फाइलें धूल फाँकती हैं, कुर्सियाँ जुगाड करती हैं,बेहतर कुर्सी के लिए और बाबू जी ‘पेंडिंग’ को ‘इन प्रोग्रेस’ में बदलकर घर चले जाते हैं। सब कुछ तो मोबाइल से ऑनलाइन होता है। अगर सचमुच डेढ़ करोड़ नई नौकरी बन गईं, तो काम नहीं, काम का नाटक बाँटना पड़ेगा। कोई कुर्सी संभालेगा, कोई कुर्सी झाड़ेगा, कोई कुर्सी की रिपोर्ट बनाएगा। कुर्सी के हत्थे और कुर्सी के पैर रिकॉर्ड पर लाए जाएंगे।
किसी नेता जी से पूछा गया “सर, नौकरी कहाँ से देंगे?”
प्रवक्ता मुस्कराए “नौकरी तो बहुत हैं, बस थोड़ा नाम बदल दो , चायवाला बनाओ ‘हॉस्पिटैलिटी असिस्टेंट’, माइक उठाने वाला ‘साउंड इंजीनियर’, पोस्टर चिपकाने वाला ‘कम्युनिकेशन डिविजन ऑफिसर’। बस,बन गई नौकरी के लिए नई पोस्ट!”
इस दर से भारत का बेरोजगार भी खुद को ‘फ्रीलांस अफसर’ या अफसर इन वेटिंग ,घोषित कर सकता है।
राजनीति में घोषणा करना आसान नहीं, इसके लिए साहस चाहिए। क्योंकि जनता सब समझती है फिर भी यही सब सुनना चाहती है। नेता भी जानते हैं कि जनता मानती नहीं, पर फिर भी उम्मीद रखती है। यही लोकतंत्र की सबसे बड़ी हकीकत है। जनता को सपना चाहिए, नेता को मंच चाहिए, और चुनाव आयोग को तारीख, अखबार को खबर और डेमोक्रेसी को निर्विघ्न चुनाव चाहिए ।
बिहार के चाय ठेलों से लेकर फेसबुक ग्रुपों तक चर्चा गर्म है “डेढ़ करोड़ नौकरी का वादा आया है।” कोई कहता है, “पहले एक करोड़ का वादा किया था, वो कहाँ गया?” दूसरा जवाब देता है “वो पहली किश्त थी, अब दूसरा वादा आया है।” तीसरा कहता है “जब इतनी नौकरी मिल जाएगी, तो वोट कौन देगा? सब तो छुट्टी माँगने में व्यस्त रहेंगे।”
वैसे हमारे नेता भी कम समझदार नहीं। उन्होंने अब घोषणाओं का स्केलिंग सिस्टम बना रखा है। पहले शिक्षा का वादा, फिर बेरोजगारी भत्ता, महिलाओं को भत्ता, फिर नौकरी, फिर नौकरी का गारंटी कार्ड, फिर गारंटी कार्ड के लिए हेल्पलाइन नंबर। और जनता? वह हर बार नए कार्ड की फोटो लेकर पुराना कार्ड संभालकर रख देती है, जैसे यह भी किसी दिन बैंक पासबुक बन जाएगा।
राजनीति विज्ञान में अब “घोषणा शास्त्र” पढ़ाया जाना चाहिए। विषय होंगे पहला, जनता के सपनों का मनोविज्ञान। दूसरा, वादों का वाचन और शब्द कला, जिससे हवाई घोषणा से मुक्ति की पतली गली बनी रहे । तीसरा, घोषणा करने के बाद भूल जाने की तकनीक।
घोषणा वीरों की एक खास बात होती है ,वे जितना बोलते हैं, उतना जनता हँसती है। और हँसते-हँसते उम्मीद भी बाँध लेती है। यही तो लोकतंत्र का “कॉमिक ट्विस्ट” है।
सोचिए, अगर सचमुच सबको नौकरी मिल गई तो कौन अफसर रहेगा, कौन चपरासी? सब साइन करेंगे, कोई फाइल उठाएगा नहीं। हर गाँव में मंत्रालय ऑफ़ लोकल डेवलपमेंट खुलेगा। पंचायत में लोग नहीं, ‘सेक्शन ऑफिसर’ बैठेंगे। खेत में किसान नहीं, ‘एग्रीकल्चर सुपरवाइज़र’ होंगे। और जो काम नहीं करेगा, वो बनेगा रिव्यू कमेटी का चेयरमैन।
किसी ने ठीक कहा , हमारे यहाँ सबसे ज़्यादा उत्पादक उद्योग है वादा उद्योग। इसका कोई सीजन नहीं, यह पूरे साल चलता है। और जब वादा बड़ा हो तो मीडिया की सुर्खियाँ भी लंबी होती हैं। सुर्खी थी “बिहार में अब बेरोजगारी खत्म!” पर छोटे अक्षरों में नीचे लिखा था “अगर सब कुछ योजना के अनुसार चला तो।” और योजना कौन चलाएगा, इस पर अगली प्रेस कॉन्फ्रेंस रखी गई है।
जनता भी अब कम चालाक नहीं। उसने घोषणाओं को सीरियसली लेना छोड़ दिया है। गाँव का एक लड़का कह रहा था “हमको नौकरी नहीं चाहिए, हमको बस इंटरव्यू का एसएमएस भेज दो, वही फ्रेम करवा लेंगे।”
दरअसल, जनता जानती है कि हर चुनाव के बाद सरकार कहती है “प्रक्रिया शुरू हो गई है।” यह वही वाक्य है जो सरकारी वेबसाइटों पर भी लिखा होता है “Under Process Since …”
फिर भी, घोषणाओं का आनंद चुनाव के बिना अधूरा है। लोग हँसते हैं, व्यंग्य करते हैं, पर मंच पर जब नेता बोलता है “हर हाथ को काम मिलेगा!” तो भीड़ में किसी न किसी को विश्वास हो ही जाता है कि शायद इस बार सचमुच कुछ होगा। लकड़ी की हांडी यदि चढ़ गई और कुछ वोट सरक आए तो बुरा क्या है?
शायद यही लोकतंत्र का जादू है। जनता झूठ को भी कविता की तरह सुनती है और तालियाँ बजा देती है।
अंत में, एक सलाह अगर अगली बार कोई नेता मंच से बोले कि “हम सबको नौकरी देंगे”, तो पूछिए “क्या आप हमें वही नौकरी देंगे जो पिछले चुनाव में मिली थी?” नेता मुस्कराएगा, और जवाब देगा “नहीं, अबकी अपग्रेडेड वादा है।”
यानी चुनावी वादों का भी अब सॉफ्टवेयर वर्ज़न आने लगा है और जनता, अपडेट डाउनलोड करती रहती है, जब तक मोबाइल में मेमोरी बची रहती है। *(विनायक फीचर्स)*

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