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कहानी: इडली सांभर

admin
Last updated: मार्च 27, 2025 8:42 पूर्वाह्न
By admin 16 Views
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20 Min Read
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एक छोटी सी घटना जीवन को एक खेल की तरह अपनी डगर पर मोड़ती चली गई और आज दोनों को एकदूसरे की अब इतनी जरूरत महसूस होती है. शायद इसे ही प्यार कहते हैं.

पहली मुलाकात के बाद जिस तरह पुरवा और सुहास का प्यार परवान चढ़ा उसे देखते हुए पुरवा सुहास में एक बेहतर जीवनसाथी होने के सारे गुण ढूंढ़ने लगी, लेकिन क्या सुहास उस की उम्मीदों पर खरा उतर पाया?

उस दिन बस में बहुत भीड़ थी. कालिज पहुंचने की जल्दी न होती तो पुरवा वह बस जरूर छोड़ देती. उस ने एक हाथ में बैग पकड़ रखा था और दूसरे में पर्स. भीड़ इतनी थी कि टिकट के लिए पर्स से पैसे निकालना कठिन लग रहा था. वह अगले स्टाप पर बस रुकने की प्रतीक्षा करने लगी ताकि पर्स से रुपए निकाल कर टिकट ले सके. बस स्टाप जैसे ही निकट आया कि अचानक किसी ने पुरवा का पर्स खींचा और चलती बस से कूद गया. पुरवा जोरजोर से चिल्ला पड़ी, ‘‘मेरा पर्स, अरे, मेरा पर्स ले गया. कोई पकड़ो उसे,’’ उस के स्वर में बेचैनी भरी चीख थी.

पुरवा की चीख के साथ ही बस झटके से रुक गई और लोगों ने देखा कि तुरंत एक युवक बस से कूद कर चोर के पीछे भागा.

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‘‘लगता है यह भी उसी चोर का साथी है,’’ बस में एकसाथ कई स्वर गूंज उठे.

बस रुकी हुई थी. लोगों की टिप्पणी बस में संवेदना जता रही थी. एक यात्री ने कहा, ‘‘क्या पता साहब, इन की पूरी टोली साथ चलती है.’’

तभी नीचे हंगामा सा मच गया. बस से कूद कर जो युवक चोर के पीछे भागा था वह काफी फुर्तीला था. उस ने भागते हुए चोर को पकड़ लिया और उस की पिटाई करते हुए बस के निकट ले आया.

‘‘अरे, बेटे, इसे छोड़ना मत,’’ एक बुजुर्ग बोले, ‘‘पुलिस में देना, तब पता चलेगा कि मार खाना किसे कहते हैं.’’

उधर कुछ यात्री जोश में आ कर अपनेअपने हाथों का जोर भी चोर पर आजमाने लगे.

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पुरवा परेशान खड़ी थी. एक तो पर्स छिनने के बाद से अब तक उस का दिल धकधक कर रहा था, दूसरे, कालिज पहुंचने में देर पर देर हो रही थी. बस कंडेक्टर ने उस चोर को डराधमका कर उस की पूरी जेब खाली करवा ली और फिर कभी बस में सूरत न दिखाने की हिदायत दे कर बस स्टार्ट करवा दी.

सभी यात्री महज उस बात से खुश थे कि चलो, जल्दी जान छूट गई, वरना पुलिस थाने में जाने कितना समय खराब होता.

युवक ने पुरवा को पर्स देते हुए कहा, ‘‘देख लीजिए, पर्स में पैसे पूरे हैं कि नहीं.’’

उस युवक के इस साहसिक कदम से गद्गद पुरवा ने पर्स लेते हुए कहा, ‘‘धन्यवाद, आप ने तो कमाल कर दिया.’’

‘‘नहीं जी, कमाल कैसा. इतने सारे यात्री देखते रहते हैं और एक व्यक्ति अपना हाथ साफ कर भाग जाता है, यह तो सरासर कायरता है,’’ उस युवक ने सारे यात्रियों की तरफ देख कर कहा तो कुछ दूरी पर बैठे एक वृद्ध व्यक्ति धीरे से बोल पड़े, ‘‘जवान लड़की देख कर हीरो बनने के लिए बस से कूद लिया था. हम बूढ़ों का पर्स जाता तो खड़ाखड़ा मुंह देखता रहता.’’

इस घटना के बाद तो अकसर दोनों बस में टकराने लगे. पुरवा किसी के साथ बैठी होती तो उसे देखते ही मुसकरा देती. यदि वह किसी के साथ बैठा होता तो पुरवा को देखते ही थोड़ा आगे खिसक जाता और उस से भी बैठ जाने का आग्रह करता. जब पहली बार दोनों साथ बैठे थे तो पुरवा ने कहा था, ‘‘मैं ने अपने मम्मीपापा को आप के साहस के बारे में बताया था.’’

‘‘अच्छा,’’ युवक हंस दिया, ‘‘आप को लगता है कि वह बहुत साहसिक कार्य था तो मैं भी मान लेता हूं पर मैं ने तो उस समय अपना कर्तव्य समझा और चोर के पीछे भाग लिया.’’

‘‘आप क्या करते हैं?’’ पुरवा ने पूछ लिया.

‘‘अभी तो फिलहाल इस दफ्तर से उस दफ्तर तक एक अदद नौकरी के लिए सिर्फ टक्करें मार रहा हूं.’’

‘‘आप तो बहुत साहसी हैं. धैर्य रखिए, एक न एक दिन आप अपने मकसद में जरूर कामयाब होंगे,’’ पुरवा को लगा, युवक को सांत्वना देना उस का कर्तव्य बनता है.

पुरवा के उतरने का समय आया तो वह हड़बड़ा कर बोली, ‘‘आप का नाम?’’

‘‘कुछ भी पुकार लीजिए,’’ युवक मुसकरा कर बोला, ‘‘लोग मुझे सुहास के नाम से जानते हैं.’’

अगली बार एकसाथ बैठते ही सुहास ने पूछ लिया, ‘‘आप ने इतने दिनों में अपने बारे में कुछ बताया ही नहीं.’’

‘‘क्या जानना चाहते हैं? मैं एक छात्रा हूं. एम.ए. का अंतिम वर्ष है और मैं अंधमहाविद्यालय में संगीत भी सिखाती हूं.’’

फिर बहुत देर तक दोनों अपनीअपनी पढ़ाई पर चर्चा करते रहे. विदा होते समय सुहास को याद आया, वह बोला, ‘‘आप का नाम पूछना तो मैं रोज ही भूल जाता हूं.’’

पुरवा मुसकरा दी और बोली, ‘‘पुरवा है मेरा नाम,’’ और चहकती सी बस से उतर गई.

एक दिन सुहास भी उसी बस स्टाप पर उतर गया जहां पुरवा रोज उतरती थी तो वह चहक कर बोली, ‘‘आज आप यहां कैसे…’’

‘‘बस, तुम्हारे साथ एक कप चाय पीने को मन हो आया,’’ सुहास के स्वर में भी उल्लास था. फिर सुहास को लगा जैसे कुछ गलत हुआ है अत: अपनी भूल सुधारते हुए बोला, ‘‘देखिए, आप के लिए मेरे मुंह से तुम शब्द निकल गया है. आप को बुरा तो नहीं लगा.’’

पुरवा हंस दी. मन में कुछ मधुर सा गुनगुनाने लगा था. धीरे से बोली, ‘‘यह आज्ञा तो मैं भी चाहती हूं. हम दोनों मित्र हैं तो यह आप की औपचारिकता क्यों?’’

‘‘यही तो…’’ सुहास ने झट से उस की हथेली पर अपने सीधे हाथ का पंजा थपक कर ताली सी बजा दी, ‘‘फिर हम चलें किसी कैंटीन में एकसाथ चाय पीने के लिए?’’ सुहास ने आग्रह करते हुए कहा.

चाय पीते समय दोनों ने देखा कि कुछ लड़के इन दोनों को घूर रहे थे. सुहास का पौरुष फिर जाग उठा. उस ने पुरवा से कहा, ‘‘लगता है इन्हें सबक सिखाना पड़ेगा.’’

‘‘जाने दो, सुहास. समझ लो कुत्ते भौंक रहे हैं. सुबहसुबह उलझना ठीक नहीं है.’’

चाय पी कर दोनों फिर सड़क पर आ गए.

‘‘सुनो, सुहास,’’ पुरवा ने उसे स्नेह से देखा, ‘‘तुम्हें इतना गुस्सा क्यों आ रहा था कि उन की मरम्मत करने को उतावले हो उठे.’’

‘‘देख नहीं रही थीं, वे सब कैसे तुम्हें घूर रहे थे,’’ सुहास का क्रोध अभी तक शांत नहीं हुआ था.

‘‘मेरे लिए किसकिस से झगड़ा करोगे,’’ पुरवा ने उसे समझाने की चेष्टा की, लेकिन उस के मन में एक मीठी सी गुदगुदी हुई कि इसे मेरी कितनी चिंता है, मेरी मर्यादा के लिए मरनेमारने को तत्पर हो उठा.

धीरेधीरे कैंटीन में बैठ कर एकसाथ चाय पीने का सिलसिला बढ़ गया. अब दोनों के ड्राइंगरूम के फोन भी घनघनाने लगे थे. देरदेर तक बातें करते हुए दोनों अपनेअपने फोन का बिल बढ़ाने लगे.

दोनों जब कभी एकसाथ चलते तो उन की चाल में विचित्र तरह की इतराहट बढ़ने लगी थी, जैसे पैरों के नीचे जमीन नहीं थी और वे प्यार के आकाश में बिना पंख के उड़े चले जा रहे थे.

एक उच्च सरकारी पद से रिटायर हुए मकरंद वर्मा के 3 बेटे और एक बेटी थी. बेटी श्वेता इकलौती होने के कारण बहुत दुलारी थी. एक बार जो कह दिया वह पूरा होना ही चाहिए.

उन के लिए तो सभी बच्चे लाडले ही थे. उन का बड़ा बेटा निशांत डाक्टर और दूसरा बेटा आकाश इंजीनियर था. सब से छोटा बेटा सुहास अभी नौकरी की तलाश में था.

पढ़ाई में अपने दोनों बड़े भाइयों से अलग सुहास किसी तरह बी. काम. पास कर सका था. बस, तभी से वह लगातार नौकरी के लिए आवेदन भेज रहा है. कभीकभी साक्षात्कार के लिए बुलावा आ जाता है तो आंखों में सपने ही सपने तैरने लगते हैं.

मकरंद वर्मा की बूढ़ी आंखों में भी उत्साह जागता है. सोचते हैं कि शायद अब की बार यह अपने पैरों पर खड़ा हो जाए पर दोनों में से किसी का भी सपना पूरा नहीं होता.

सुहास खाली समय घर वालों का भाषण सुनने के बजाय बाहर वालों की सेवा करने में अधिक खुश रहता है. उस सेवा में मित्रों के घर उन के मातापिता को अस्पताल ले जाने से ले कर बस में चोरउचक्कों को पकड़ना भी शामिल है.

सुहास अपनी बहन श्वेता को कुछ अधिक ही प्यारदुलार करता है. श्वेता भी भाई का हर समय साथ देती है. मम्मी रजनी बाला अपनी लाडली बेटी को जेब खर्च के लिए जो रुपए देती हैं उन में से बहन अपने भाई को भी दान देती रहती है क्योंकि उसे पता है कि भाई बेकार है. अपने दोनों बड़े भाइयों की तरह जीवन में सफल नहीं है इसलिए उस की तरफ लोग कम ध्यान देते हैं. लेकिन श्वेता को पता है कि सुहास कितना अच्छा है जो उस का हर काम करने को तत्पर रहता है. बाकी दोनों भाई तो विवाह कर के अपनीअपनी बीवियों में ही मगन हैं. इसीलिए उसे सुहास ही अधिक निकट महसूस होता है.

मकरंद वर्मा को अपने दोनों छोटे बच्चों, श्वेता व सुहास के भविष्य की बेहद चिंता थी पर चिंता करने से समस्या कहां दूर होती है. श्वेता के लिए कई लड़के देखे, पर उसे सब में कुछ न कुछ दोष दिखाई दे जाता है. श्वेता रजनी से कहती है, ‘‘मम्मा, ये मोटी नाक और चश्मे वाला लड़का ही आप को पसंद करना था.’’

रजनी उसे प्यार से पुचकारतीं, ‘‘बेटी, लड़कों का रूपरंग नहीं उन का घरपरिवार और पदप्रतिष्ठा देखी जाती है.’’

इस तरह 1 से 2 और 2 से 3 लड़के उस की आलोचना के शिकार होते गए.

श्वेता को सहेलियों के साथ घूमना जितना अच्छा लगता था उस से कहीं अधिक मजा उसे अपने भाई सुहास को चिढ़ाने में आता था.

उस दिन रविवार था. शाम को श्वेता को किसी सहेली के विवाह में जाना था. कारीडोर में बैठ कर वह अपने लंबे नाखूनों की नेलपालिश उतार रही थी. तभी उस ने सुहास को तैयार हो कर कहीं जाते देखा तो झट से टोक दिया, ‘‘भैयाजी, आज छुट्टी का दिन है और आप कहां नौकरी ढूंढ़ने जा रहे हैं?’’

‘‘बस, घर से निकलो नहीं कि टोक देती है,’’ फिर श्वेता के निकट आ कर हथेली खींचते हुए बोला, ‘‘ये नाखून किस खुशी में इतने लंबे कर रखे हैं?’’

‘‘सभी तो करती हैं,’’ श्वेता ने हाथ वापस खींच लिया.

‘‘सभी गंदगी करेंगे तो तुम भी करोगी,’’ सुहास झुंझला गया.

‘‘कुछ कामधाम तो है नहीं आप को, बस, यही सब टोकाटाकी करते रहते हैं,’’ श्वेता ने सीधे उस के अहं पर चोट कर दी तो वह क्रोध पी कर बाहर दरवाजे की ओर बढ़ गया.

‘‘सुहास,’’ रजनी के स्वर कानों में पड़ते ही वह पलट कर बोला, ‘‘जी, मम्मी.’’

‘‘बिना नाश्ता किए सुबहसुबह कहां चल दिए?’’

‘‘मम्मी, एक दोस्त ने चाय पर बुलाया है. जल्दी आ जाऊंगा.’’

‘‘दोस्त से फुरसत मिले तो शाम को जल्दी चले आइएगा,’’ श्वेता बोली, ‘‘एक सहेली की शादी में जाना है. वहीं आप की जोड़ीदार भी खोज लेंगे.’’

‘‘मेहरबानी रखो महारानी. अपना जोड़ीदार खोज लेना, हमारा ढूंढ़ा तो पसंद नहीं आएगा न,’’ सुहास ने भी तीर छोड़ा और आगे बढ़ गया.

पुरवा जल्दीजल्दी तैयार हो रही थी तभी उस की मम्मी ने उसे टोका, ‘‘छुट्टी के दिन क्यों इतनी तेजी से तैयार हो रही है? आज तुझे कहीं जाना है क्या?’’

‘‘अरे मम्मा, तुम्हें याद नहीं, मुझे अंधमहाविद्यालय भी तो जाना है.’’

‘‘लेकिन आज, छुट्टी वाले दिन?’’ मम्मी ने उस के बिस्तर की चादर झाड़ते हुए कहा, ‘‘कम से कम छुट्टी के दिन तो अपना कमरा ठीक कर लिया कर.’’

‘‘वापस आ कर कर लूंगी, मम्मी. वहां बच्चों को नाटक की रिहर्सल करवानी है,’’ पुरवा ने चहकते हुए कहा और अपना पर्स उठा कर चल दी.

‘‘कम से कम नाश्ता तो कर ले,’’ मम्मी तकियों के गिलाफ सही करती हुई बोलीं.

‘‘कैंटीन में खा लूंगी, मम्मी,’’ पुरवा रुकी नहीं और तीव्रता से चली गई.

सुहास निश्चित स्थान पर पुरवा की प्रतीक्षा कर रहा था.

‘‘हाय, पुरवा,’’ पुरवा को देखते ही उल्लसित हो सुहास बोला.

‘‘देर तो नहीं हुई?’’ पुरवा ने उस की बढ़ी हुई हथेली थाम ली.

‘‘मैं भी अभी कुछ देर पहले ही आया था.’’

दोनों के चेहरे पर एक अनोखी चमक थी. पुरवा के साथसाथ चलते हुए सुहास ने कहा, ‘‘घर वालों से झूठ बोल कर प्यार करने में कितना अनोखा आनंद है.’’

‘‘क्या कहा, प्यार…’’ पुरवा चौंक कर ठहर गई.

‘‘हां, प्यार,’’ सुहास ने हंस कर कहा.

‘‘लेकिन तुम ने अभी तक प्यार का इजहार तो किया ही नहीं है,’’ पुरवा ने कुछ शरारत से कहा.

‘‘तो अब कर रहा हूं न,’’ सुहास ने भी आंखों में चंचलता भर कर कहा.

‘‘चलो तो इसी खुशी में कौफी हो जाए,’’ पुरवा ने मुसकरा कर कहा.

रेस्तरां की ओर बढ़ते हुए दोनों एकदूसरे के परिवार का इतिहास पूछने लगे. जैसे प्यार जाहिर कर देने के बाद पारिवारिक पृष्ठभूमि की जानकारी जरूरी हो.

‘‘सबकुछ है न घर में,’’ सुहास कौफी का आर्डर देते हुए हंस कर बोला, ‘‘मम्मीपापा हैं, 2 भाईभाभी, एक लाडली सी बहन, भाभियों का तो यही कहना है कि मम्मीपापा ने मुझे लाड़ में बिगाड़ रखा है लेकिन मैं किसी तरफ से तुम्हें बिगड़ा हुआ लगता हूं क्या?’’

पुरवा ने आगेपीछे से उसे देखा और गरदन हिला दी, ‘‘लगते तो ठीकठाक हो,’’ उस ने शरारत से कहा, ‘‘नाक भी ठीक है, कान भी ठीक जगह फिट हैं और मूंछें…तौबातौबा, वह तो गायब ही हैं.’’

‘‘ठीक है, मैडम, अब जरा आप अपनी प्रशंसा में दो शब्द कहेंगी,’’ सुहास ने भी उसे छेड़ने के अंदाज में कहा.

‘‘क्यों नहीं, महाशय,’’ पुरवा इतरा उठी, ‘‘मेरी एक प्यारी सी मम्मी हैं जो मेरी बिखरी वस्तुएं समेटती रहती हैं. पापा का छोटा सा व्यापार है. बड़े भाई विदेश में हैं. एक छोटा भाई था जिस की पिछले साल मृत्यु हो गई.’’

‘‘ओह,’’ सुहास ने दुखी स्वर में कहा.

इस के बाद दोनों गंभीर हो गए थे. थोड़ी देर के लिए दोनों की चहक शांत हो गई थी.

कौफी का घूंट भरते हुए सुहास ने पूछा, ‘‘क्या खाओगी?’’

‘‘जो तुम्हें पसंद हो,’’ पुरवा ने कहा.

‘‘यहां सुबहसुबह इडलीचटनी गरम सांभर के साथ बहुत अच्छी मिलती है.’’

‘‘ठीक है, फिर वही मंगवा लो,’’ पुरवा निश्ंिचत सी कौफी पीने लगी. मन में अचानक कई विचार उठने लगे. मम्मी से झूठ बोल कर आना क्या ठीक हुआ, आज तक जो कार्य नहीं किया वह सुहास की संगत पाने के लिए क्यों किया? यह ठीक है कि उसे अंधमहाविद्यालय के लिए नाटक की रिहर्सल करवानी पड़ती है, पर आज तो नहीं थी. उस ने सुहास की ओर देखा. इतने बड़े घर का बेटा है, पर दूसरों के दुख को अपना समझ कर कैसे सहायता करने को तड़प उठता है. उस के इसी व्यक्तित्व ने तो पुरवा का मन जीत लिया है.

इडलीसांभर आ चुका था. पुरवा ने अपनी प्लेट सरकाते हुए कहा, ‘‘मम्मी ने बड़े प्यार से हलवा तैयार किया था, पर मैं बिना नाश्ता किए ही भाग आई.’’

‘‘हाथ मिलाओ यार,’’ सुहास ने तपाक से हथेली बढ़ा दी, ‘‘मेरी मम्मा भी नाश्ते के लिए रोकती ही रह गईं, पर देर हो रही थी न, सो मैं भी भाग आया.’’

‘‘अरे वाह,’’ कहते हुए पुरवा ने पट से उस की हथेली पर अपनी कोमल हथेली रख दी तो उस का संपूर्ण शरीर अनायास ही रोमांचित हो उठा. यह कैसा विचित्र सा कंपन है, पुरवा ने सोचा. क्या किसी पराए व्यक्ति के स्पर्श में इतना रोमांच होता है? नहीं, ऐसा नहीं हो सकता. उस के मन ने तर्क किया. यह तो एक सद्पुरुष के प्यार भरे स्पर्श का ही रोमांच होगा. कितनी विचित्र बात है कि एक छोटी सी घटना जीवन को एक खेल की तरह अपनी डगर पर मोड़ती चली गई और आज दोनों को एकदूसरे की अब इतनी जरूरत महसूस होती है. शायद इसे ही प्यार कहते हैं.

विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल मलोट पंजाब

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