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त्योहारों से आगे की सच्चाई: भारतीय शहरों में वायु प्रदूषण सालभर का संकट

admin
Last updated: अक्टूबर 23, 2025 8:30 अपराह्न
By admin 15 Views
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13 Min Read
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त्योहारों से आगे की सच्चाई: भारतीय शहरों में वायु प्रदूषण सालभर का संकट

(भारत में वायु प्रदूषण को प्रायः दिवाली या सर्दियों की समस्या माना जाता है, जबकि यह एक सतत और संरचनात्मक चुनौती है, जिसे दीर्घकालिक दृष्टिकोण और नागरिक सहभागिता से ही हल किया जा सकता है।)

भारत के अधिकांश शहरों में वायु प्रदूषण को गलत रूप से एक मौसमी या त्योहार-केन्द्रित समस्या समझा जाता है। दिवाली या सर्दियों के बाद यह चर्चा गायब हो जाती है, जबकि प्रदूषण के स्रोत – वाहन, उद्योग, निर्माण धूल, और पराली जलाना – पूरे वर्ष सक्रिय रहते हैं। इस अस्थायी सोच के कारण नीतियाँ भी प्रतिक्रियात्मक बन जाती हैं। भारत को स्वच्छ ऊर्जा, सार्वजनिक परिवहन, सतत कृषि, औद्योगिक सुधार और नागरिक सहभागिता को जोड़कर एक दीर्घकालिक, वैज्ञानिक और व्यवहार-आधारित रणनीति अपनानी होगी ताकि स्वच्छ हवा सभी का अधिकार बन सके।

— डॉ. प्रियंका सौरभ

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भारतीय शहरों में वायु प्रदूषण आज केवल पर्यावरण की समस्या नहीं, बल्कि स्वास्थ्य, अर्थव्यवस्था और सामाजिक स्थिरता से जुड़ा गहन संकट बन चुका है। हर वर्ष जब सर्दियाँ आती हैं या दिवाली का पर्व नज़दीक होता है, तब देश भर में वायु प्रदूषण पर अचानक चर्चाएँ तेज़ हो जाती हैं। समाचार चैनल, अख़बार और सोशल मीडिया पर धुंध और स्मॉग की तस्वीरें छा जाती हैं। कुछ हफ्तों के लिए लोग मास्क पहनते हैं, सरकारें आपात योजनाएँ बनाती हैं और फिर धीरे-धीरे यह विषय भूल जाता है। यही प्रवृत्ति—जिसमें प्रदूषण को केवल कुछ दिनों की मौसमी समस्या माना जाता है—वास्तव में सबसे बड़ी गलती है। क्योंकि वायु प्रदूषण भारत में कोई त्योहारों तक सीमित या अस्थायी समस्या नहीं, बल्कि पूरे वर्ष चलने वाली बहु-स्रोत और बहु-क्षेत्रीय चुनौती है।

भारत के अधिकांश शहरों में हवा की गुणवत्ता सालभर ख़राब बनी रहती है। विश्व वायु गुणवत्ता रिपोर्ट वर्ष 2024 के अनुसार, दुनिया के दस सबसे प्रदूषित शहरों में से नौ भारत में हैं, जिनमें दिल्ली, गाज़ियाबाद, भिवाड़ी, फरीदाबाद और लुधियाना प्रमुख हैं। दिल्ली का औसत पीएम 2.5 स्तर विश्व स्वास्थ्य संगठन की सीमा से अठारह गुना अधिक पाया गया। यदि इसे केवल दिवाली के समय पटाखों से जोड़ दिया जाए, तो यह वास्तविक समस्या की गहराई को छिपा देता है। प्रदूषण के मुख्य कारण वर्षभर सक्रिय रहते हैं—वाहनों से निकलने वाला धुआँ, उद्योगों के उत्सर्जन, निर्माण कार्य की धूल, कचरा और पराली का दहन, थर्मल पावर संयंत्रों से निकलते गैस कण, और घरेलू ईंधनों का प्रयोग।

समस्या को केवल मौसमी मान लेने से नीतियाँ भी प्रतिक्रियात्मक हो जाती हैं। सरकारें तब सक्रिय होती हैं जब प्रदूषण चरम पर पहुँच जाता है। कुछ दिनों के लिए स्कूल बंद कर दिए जाते हैं, वाहनों के लिए ऑड-ईवन योजना लागू होती है, पटाखों पर रोक लगाई जाती है या निर्माण गतिविधियों को अस्थायी रूप से बंद कर दिया जाता है। ये कदम अस्थायी राहत तो देते हैं, परंतु मूल कारणों को नहीं मिटाते। जैसे ही मौसम बदलता है, सारी नीतियाँ ठंडी पड़ जाती हैं। यह दृष्टिकोण समस्या को टालने का है, हल करने का नहीं।

वायु प्रदूषण का प्रभाव केवल कुछ हफ्तों तक सीमित नहीं रहता। यह पूरे वर्ष हमारे शरीर पर असर डालता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, भारत में हर साल लगभग सत्रह लाख लोगों की अकाल मृत्यु वायु प्रदूषण से होती है। अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान के एक अध्ययन में पाया गया कि दिल्ली में बच्चों में अस्थमा, एलर्जी और फेफड़ों की बीमारियों के मामलों में पूरे वर्ष दस से पंद्रह प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई। यह सिद्ध करता है कि प्रदूषण का दुष्प्रभाव मौसमी नहीं, स्थायी है।

इसके साथ ही यह अर्थव्यवस्था को भी गंभीर रूप से प्रभावित करता है। विश्व बैंक की 2023 की रिपोर्ट बताती है कि भारत को हर वर्ष वायु प्रदूषण के कारण सकल घरेलू उत्पाद का लगभग एक दशमांश से अधिक नुकसान होता है। कार्य दिवसों की हानि, स्वास्थ्य व्यय में वृद्धि, उत्पादकता में कमी और चिकित्सा भार में बढ़ोतरी से देश की आर्थिक प्रगति प्रभावित होती है।

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यदि वायु प्रदूषण के स्रोतों की बात की जाए, तो परिवहन क्षेत्र इसका सबसे बड़ा कारण है। भारत में करोड़ों वाहन सड़कों पर हैं, जिनमें अधिकांश पेट्रोल या डीज़ल पर चलते हैं। पुराने ट्रक और बसें भारी मात्रा में धुआँ छोड़ती हैं। छोटे वाहनों की संख्या इतनी अधिक है कि उनके उत्सर्जन से हवा में नाइट्रोजन ऑक्साइड और सूक्ष्म कणों की मात्रा लगातार बढ़ती जा रही है। औद्योगिक क्षेत्र भी प्रदूषण में बड़ा योगदान देता है। कई छोटे और मध्यम उद्योग अभी तक स्वच्छ ईंधन का उपयोग नहीं करते। पुराने बॉयलर और कोयले पर आधारित संयंत्र सल्फर डाइऑक्साइड और धात्विक कण उत्सर्जित करते हैं।

निर्माण कार्यों से उठने वाली धूल भी बड़े पैमाने पर प्रदूषण फैलाती है। सड़कों पर खुली मिट्टी, निर्माण सामग्री का खुले में ढेर, और बिना आवरण के ट्रकों द्वारा रेत और सीमेंट का परिवहन हवा में कण फैलाता है। इसी तरह, हर साल पंजाब और हरियाणा में पराली जलाने की घटनाएँ उत्तर भारत के शहरों की हवा को जहरीला बना देती हैं। शोध बताते हैं कि पराली जलाने से दिल्ली और आसपास के इलाकों में प्रदूषण के स्तर में 30 से 40 प्रतिशत तक की वृद्धि होती है।

घरेलू ईंधन जैसे लकड़ी, कोयला या गोबर केक जलाने से भी खासकर गरीब परिवारों में प्रदूषण का स्तर बहुत बढ़ जाता है। कोयला आधारित बिजली संयंत्र अभी भी देश की ऊर्जा का लगभग साठ प्रतिशत हिस्सा देते हैं, और इनमें से कई पुराने संयंत्र प्रदूषण नियंत्रण उपकरणों के बिना चल रहे हैं।

इन सभी स्रोतों पर नियंत्रण के लिए आवश्यक है कि नीति और शासन में दीर्घकालिक दृष्टिकोण अपनाया जाए। केंद्र, राज्य और नगर निकायों के बीच समन्वय की कमी आज भी एक बड़ी बाधा है। कई शहरों में वायु गुणवत्ता निगरानी केंद्र तक नहीं हैं, जिससे वास्तविक आंकड़े उपलब्ध नहीं हो पाते। जन-जागरूकता का स्तर भी बेहद कम है। नागरिक प्रदूषण को केवल खराब वायु के दिनों से जोड़ते हैं, न कि इसे अपनी दैनिक जिम्मेदारी मानते हैं। जब तक समाज में यह चेतना नहीं आएगी कि स्वच्छ हवा सबकी साझी जिम्मेदारी है, तब तक किसी नीति का पूरा प्रभाव नहीं दिखेगा।

भारत ने वर्ष 2019 में राष्ट्रीय स्वच्छ वायु कार्यक्रम शुरू किया, जिसका उद्देश्य 2026 तक प्रमुख शहरों में प्रदूषण के स्तर को 40 प्रतिशत तक घटाना है। यह एक सराहनीय पहल है, परंतु इसे केवल बजटीय घोषणा न बनाकर, सख़्त निगरानी और स्थानीय क्रियान्वयन के साथ लागू करना होगा। हर शहर की भौगोलिक और औद्योगिक स्थिति अलग है, इसलिए एक समान नीति के बजाय शहर-विशिष्ट कार्ययोजना बनानी होगी।

परिवहन क्षेत्र में स्वच्छ ऊर्जा की ओर तेज़ी से बढ़ना होगा। सीएनजी, इलेक्ट्रिक वाहन, हाइड्रोजन ईंधन और सार्वजनिक परिवहन का प्रसार अनिवार्य है। दिल्ली में इलेक्ट्रिक वाहन नीति के बाद नए वाहनों में ईवी का हिस्सा सत्रह प्रतिशत तक पहुँच चुका है। यह दिखाता है कि यदि नीति स्पष्ट और प्रोत्साहन युक्त हो, तो नागरिक भी परिवर्तन को अपनाते हैं।

कृषि क्षेत्र में पराली जलाने से बचने के लिए किसानों को तकनीकी और आर्थिक सहयोग देना आवश्यक है। पुसा डीकंपोजर जैसी जैविक तकनीकें और हैप्पी सीडर मशीनें अच्छे परिणाम दे रही हैं, परंतु इनका व्यापक प्रचार और सब्सिडी प्रणाली मजबूत करनी होगी। फसल विविधीकरण को प्रोत्साहित कर धान की जगह कम जल और कम अवशेष वाली फसलों को अपनाने की दिशा में ठोस कदम उठाने होंगे।

औद्योगिक क्षेत्र में सतत उत्सर्जन निगरानी प्रणाली को अनिवार्य किया जाना चाहिए। कोयला आधारित संयंत्रों में डीसल्फराइजेशन इकाइयाँ लगाना, और स्वच्छ ईंधनों जैसे एलएनजी या पीएनजी को बढ़ावा देना जरूरी है। साथ ही अक्षय ऊर्जा जैसे सौर और पवन स्रोतों की ओर तेज़ी से संक्रमण करना चाहिए ताकि 2030 तक भारत आधी ऊर्जा स्वच्छ स्रोतों से प्राप्त कर सके।

शहरी नियोजन में हरित अवसंरचना का समावेश भी अत्यंत आवश्यक है। शहरों में हरित पट्टियाँ, छतों पर पौधारोपण, खुले मैदानों का संरक्षण, और सड़क सफाई की आधुनिक व्यवस्था अपनानी होगी। निर्माण स्थलों पर ढकाव और पानी का छिड़काव जैसे उपाय नियमित रूप से लागू किए जाने चाहिए।

प्रशासनिक दृष्टि से भी सुधार जरूरी है। वायु गुणवत्ता प्रबंधन आयोग को अधिक अधिकार दिए जाने चाहिए ताकि राज्यों के बीच समन्वय और प्रवर्तन दोनों प्रभावी हो सकें। नागरिकों की भागीदारी के लिए स्कूलों, आवासीय संघों और स्थानीय समूहों में स्वच्छ हवा अभियान चलाना उपयोगी होगा। कार-फ्री दिवस, सार्वजनिक परिवहन सप्ताह और कचरा पृथक्करण जैसे उपाय नागरिक चेतना को बढ़ाते हैं।

तकनीकी दृष्टि से, डेटा आधारित नीति निर्माण की दिशा में आगे बढ़ना होगा। रियल टाइम निगरानी, उपग्रह आधारित ट्रैकिंग और कृत्रिम बुद्धिमत्ता के प्रयोग से प्रदूषण स्रोतों की पहचान और पूर्वानुमान किया जा सकता है। इससे संकट आने से पहले कदम उठाए जा सकेंगे।

दुनिया के अन्य देशों से भारत को सीखना चाहिए। चीन के बीजिंग ने 2013 से 2020 के बीच प्रदूषण स्तर में 35 प्रतिशत कमी की, क्योंकि उसने कोयले पर निर्भरता घटाई, उद्योगों को शहरों से बाहर स्थानांतरित किया और सार्वजनिक परिवहन को सस्ता बनाया। अमेरिका के लॉस एंजेलिस शहर ने सत्तर के दशक में स्मॉग संकट से उबरकर सख़्त उत्सर्जन मानक और तकनीकी नवाचार से हवा को साफ किया। इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि यदि सरकार दृढ़ इच्छाशक्ति दिखाए, जनता सहयोग करे और उद्योग तकनीक अपनाएँ, तो सुधार संभव है।

वायु प्रदूषण को केवल पर्यावरण नहीं, सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट के रूप में देखना होगा। भारत में प्रदूषित हवा के कारण जीवन प्रत्याशा औसतन पाँच वर्ष घट जाती है। इस दिशा में स्वास्थ्य तंत्र को भी तैयार करना होगा। प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में श्वसन रोग देखभाल इकाइयाँ स्थापित करनी चाहिए और स्वास्थ्य शिक्षा में स्वच्छ हवा का महत्व शामिल करना चाहिए।

भविष्य की नीति में सरकार, नागरिक और उद्योग तीनों की समान भूमिका होनी चाहिए। सरकार को सख़्त नियमन और पारदर्शी मॉनिटरिंग करनी होगी, नागरिकों को अपने दैनिक व्यवहार में बदलाव लाना होगा और उद्योगों को स्वच्छ तकनीक अपनाने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।

अब समय आ गया है कि भारत वायु प्रदूषण को अस्थायी संकट न मानकर, दीर्घकालिक विकास नीति के केंद्र में रखे। स्वच्छ हवा कोई विलासिता नहीं, बल्कि मानव जीवन का मूल अधिकार है। त्योहारों के समय की रोक या कुछ दिनों की सजगता से यह अधिकार सुरक्षित नहीं हो सकता। इसके लिए सालभर सतत प्रयास, वैज्ञानिक दृष्टिकोण, नीति की दृढ़ता और सामाजिक सहयोग आवश्यक है। जब सरकार और समाज दोनों मिलकर यह संकल्प लेंगे कि स्वच्छ हवा सभी का साझा कर्तव्य है, तभी भारत अपने शहरों को वास्तव में साँस लेने योग्य बना सकेगा।

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