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दो उवाच

दो उवाच

एक राहगीर आगे अपनी मंजिल की तरफ जा रहा था । अचानक से जोरदार बारिश आयी । उसने महल के छज्जों के नीचे आसरा चाहातो उसे संतरी ने भगा दिया । बारिश में वह आगे बढ़ा उसने भव्य अट्टालिका के पार्किंग प्लाट में शरण मांगी तो वंहा भी उसे डंडा दिखादिया गया । पुनः वह आगे बढ़ा तो छोटी सी कुटिया आई जो बैठे हुए पारिवारिक जनों से खचा खच भरी थी । उसने झाँका खिड़की सेतो देख वह आगे सरकने लगा । इतने में अन्दर से एक मनुहार भरी आत्मीयता भरी मधुर आवाज आई कि भाई !कहाँ जा रहे हो इतनीबरसात में ? आओ दो पल ठहरो अभी बरसात रुक जायेगी फिर आगे चले जाना । यह होती है इन्सान कि इंसानियत । किसी ने कहा हैकि झूठी शान के परिंदे ही ज्यादा फडफडाते हैं| बाज की उडान में कभी भी आवाज नहीं आती है । कैसे नादान हैं हम दुख आता है तोअटक जाते हैं और सुख आता है भटक जाते हैं| कहीं रूढ़ियों पर प्रहार तो कहीं मानवता का श्रृंगार जीवन के विविध रंगों से रंगा सात्विकउपहार । सामाजिक,पारिवारिक,आध्यात्मिक आदि अनुभवों से सजा बेशकीमती हमारे जीवन का चिंतन दरबार शब्द -शब्द,वाक्य-वाक्य कह रहा हमें मनुष्य है तू मनुष्यता को जीवन में उतार। अपने अहं की अकड़ में यदि किसी को रुला दिया तो जीवन जीनेका क्या फायदा। इसके विपरीत रोज किसी एक भी आदमी को हमने हँसा दिया तो समझो हमने सफल जीवन का सोपान पा लिया हैं ।
प्रदीप छाजेड़
( बोरावड़ )

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