जिंदगी एक सफर
जिंदगी एक सफर
विजय गर्ग
जीवन में सब कुछ हमारी दृष्टि पर निर्भर करता है। किसी भी चीज को देखने का हमारा नजरिया क्या है। काले रंग को ही देखा जाए तो इसे विरोध या नकारात्मकता का प्रतीक माना जाता है, लेकिन क्या वास्तव में ऐसा है? दरअसल, यह बस हमारा नजरिया है। गहन अंधकार से होकर ही तो प्रकाश की किरणें फूटती हैं जो हमारी चेतना का विस्तार करती हैं। इसलिए जीवन के प्रत्येक क्षण में अपने नजरिए का मूल्यांकन करते रहना चाहिए। सबके पास जीवन के उल्लास और दुख की अनगिनत कहानियां हैं। जिस वक्त हमें लगता है कि सामने वाला कितना बेहतर जीवन जी रहा है, उस वक्त शायद हमें यह नहीं पता होता कि वह जीवन की अनिश्चित यात्राओं की डगर पर संघर्षरत भी है। कोई ऐसा भी है जो जिंदगी के दर्द भरे दरिया को मुस्कराहट की नाव पर सवार होकर पार कर रहा है। हम दुनिया भर में फैली पीड़ा की अनंत कहानियों को नहीं देख पाते हैं। इसलिए हम सुख के समंदर में गोता लगाने के बजाय अनजाने में ही दुख की खेती करने लगते हैं, क्योंकि हम सबने अपने दुख को बड़ा और सुख को छोटा करके देखने की नजर विकसित कर ली है।
जिंदगी का रंगमंच हर वक्त एक नई कहानी के साथ सजा हुआ है और हम सब एक नए किरदार में ढलने को तैयार हैं। मौत के आगोश में जाने से पहले जिंदगी हमारा पीछा करती रहती है। जिंदगी का हासिल तय नहीं होता । यहां सब कुछ पाना भी कई बार सब कुछ खोने जैसा होता है। हम सब जिंदगी के अलग-अलग रंगों के बीच से गुजरते हुए एक दिन अचानक से जिंदगी को अलविदा कह देते हैं। यह ‘अचानक’ शायद हमारा अपना विशेषण या नजरिया है, लेकिन तटस्थ होकर देखें तो हमारी यही नियति है जो निश्चित है। इसके अतिरिक्त सब कुछ अनिश्चित ।
आहिस्ता-आहिस्ता चल रही जिंदगी को एक दिन अचानक ही राह चलते ठोकर लगती है और हम बैठ जाते हैं। इस तरह की चोट महज एक प्रतीक है । इसी बहाने हमें लगी असंख्य चोटों की स्मृतियां जेहन में ताजा हो जाती हैं। जिंदगी आखिर एक ख्वाब ही है और अधूरापन इसकी नियति है ! ऐसे ही अचानक से राह चलते एक ख्वाब याद आता है, जिसके अधूरेपन को हम रफ्ता रफ्ता भरने की कोशिश में अब तक जुटे थे। अचानक से अधूरे ख्वाब की स्मृतियां दिलोदिमाग पर एक शोर बनती चली जाती हैं और हम इस शोर को बाहरी दुनिया के शोर से दबाने की कोशिश करने लगते हैं। तब तक पता चलता है कि अंदर का शोर बाहर के शोर से कई गुना ज्यादा है। आखिर बाहरी अनगिनत आवरण में घिरा इंसान इस शोर पर कैसे काबू पाए ? इस दुनिया में आखिर ऐसा भरोसेमंद कंधा कहां, जिस पर सिर रख कर रो ले। ऐसी बाहें कहां, जो किसी गम को अपने आगोश का आश्वासन दे पाएं !
इंसान मूल रूप से बेहद कमजोर है । इतना कि दो सांसों के बीच का क्रम टूट जाए तो जिंदगी एक कमजोर माला की तरह टूट कर मौत के रूप में बिखर जाती है, लेकिन अब इसे आखिर बताए कौन ? इसीलिए मौत दबे पांव आती है और जिंदगी का भरोसा तोड़ती रहती है! कभी- कभी लगता है कि चीजें कितनी बिखर गई हैं। जीवन का कतरा-कतरा बिखरता जा रहा है । एक छोर पकड़ने की कोशिश में दूसरा छूट जाता है। सामने दो ही विकल्प नजर आते हैं। बिखरी चीजों को समेटने की कोशिश की जाए या इस बिखराव को ही नियति मान कर जीते चले जाएं। आखिर बिखराव का भी तो अपना सौंदर्य है! समेटने में फिर से बिखरने का भय है, बिखराव भयमुक्त है !
जीवन एक यात्रा है। इसको बस यात्रा की भांति ही लेना चाहिए। यात्रा की शुरुआत जन्म से हो गई है, मौत अंतिम पड़ाव है। इस अंतिम पड़ाव से पहले ढेर सारे छोटे-छोटे पड़ाव हैं- रिश्ते नाते, घर-परिवार, दोस्ती-यारी, शोहरत, सफलता, संपत्ति, चकाचौंध, विफलता, अंधेरे, अकेलापन । ऐसे ही अनगिनत पड़ाव, जहां आंशिक ठहराव जरूरी है। जिंदगी में लोग आएंगे और जाएंगे, मिलेंगे और बिछड़ जाएंगे। सबका अनुभव इसी यात्रा का हासिल भी है । इस छोटे-से काल को जी भर, मन से जी लेना चाहिए, ताकि कुछ उधार न रहे जिंदगी की दुकान में ! खुद को हर परिस्थिति के लिए तैयार भी रखना चाहिए। हम छले जाएंगे, तिरस्कृत होंगे, भुला दिए जाएंगे, आलोचना होगी, लोग हंसेंगे हम पर, हम लड़खड़ाएंगे, गिरेंगे, टूटेंगे, बिखरेंगे, रोएंगे। फिर खुद ही संभलना और चलना होगा, हांफते हुए दौड़ना होगा, हंसना – मुस्कुराना भी होगा। गलतियां भी होंगी, जो कि इस यात्रा का अहम हिस्सा हैं। उन्हें सुधार कर एक वक्त के बाद पुरानी मूर्खताओं पर मुस्करा कर आगे बढ़ जाना होगा !
अपेक्षाओं के बोझ से बचना चाहिए, क्योंकि अपेक्षाएं अंतहीन हैं। किसी का पूरी तरह अनुकरण भी नहीं करना चाहिए, अन्यथा धीरे-धीरे हम नकली जीवन जीने लगते हैं और हमें इसका पता भी नहीं होता । व्यक्तित्व में सहजता और सरलता लाने से यह यात्रा ज्यादा आसान हो पाएगी। आखिर बनावट की क्या जरूरत? हमें दूसरों से ज्यादा खुद को जानने में समय देना चाहिए, क्योंकि सब कुछ तो साधन और हम ही साध्य हैं ! अपना रास्ता खुद बनाया जाए, अपनी बची हुई दूरी खुद तय की जाए। सपने हमारे अपने हों, उधार के नहीं। उनकी जिम्मेदारी भी हमारी खुद की ही हो। कुछ भी रहस्यमय नहीं । स्वाभाविक तौर पर जीवन को जीते चले जाएं। जीवन में सब कुछ सापेक्षिक है, सब हमारे नजरिए से तय होता है । हर रोज खुद से थोड़ा आगे बढ़ जाया जाए और एक नई यात्रा पर निकल जाया जाए, क्योंकि जिंदगी एक यात्रा है !
विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल शैक्षिक स्तंभकार मलोट पंजाब