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राष्ट्रीयलेख

कहानी मुंहजुबानी- बद्दुआओं की कमाई लखपति को भी कंगाल कर देती है साब, हम तो जेबकतरे ठहरे!

admin
Last updated: जुलाई 20, 2022 9:11 अपराह्न
By admin 10 Views
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बेतहाशा भीड़ के बीच से निकलने पर ही आमजन को पता चलता है कि जेतराश (Pick pocketer) उसकी जेब साफ कर चुके है. जब तक किसी की जेब कटती है तब तक उसे (भुक्तभोगी-पीड़ित को) कतई अहसास नहीं होता है कि, उसकी जेब पर कोई पास ही खड़ा संदिग्ध या जेब-तराश हाथ साफ करने में जुटा है. जैसे ही जेब कटाकर इंसान भीड़ से बाहर और होश-ओ-हवास में आता है और उसे पता चलता है कि उसकी जेब पर हाथ साफ किया जा चुका है. तो ऐसे में जुबान पर पहले अल्फाज यही होते हैं कि ‘ओह मेरी तो जेब काट ली किसी ने’. है न कितनी चौंकाने वाली बात कि जिसकी जेब कटती है, उसे ही भनक नहीं लगती है कि कोई शातिर जेबतराश उसकी जेब पर हाथ साफ करने में जुटा है. जब भी जेब कटती है तब-तब कोई भी खुद की गलती स्वीकारने को राजी नहीं होता है. हर पीड़ित के निशाने पर होती है इलाके की पुलिस या फिर वो जेबतराश जिसने जेब साफ की. जेबतराशों और जेबतराशी से सावधान करती टीवी9 भारतवर्ष की इस विशेष पेशकश (सीरीज) “जेबतराशों की कहानी मुंहजुबानी” में आगे पढ़िए, आखिर इस कदर के ट्रेंड महारथी जेबतराशों के जीवन के अंतिम दिन कैसे होते हैं?

Contents
मेरे ट्रेंड जेबकतरे अब भी काम में होंगेचक्कूबाजी जेबतराशी कैसी हुनरमंदी?जेबकतरों की बदतर जिंदगी का नमूनाकोई जेबतराश पनपता नहीं देखाबुरी कमाई से किसी का भला नहीं हुआ

टीवी9 भारतवर्ष जनहितकारी इस सीरीज को तैयार करने के दौरान लंबे समय तक जेबतराशों की तलाश में भटका. इस दौरान कई उन पूर्व और मौजूदा पुलिस अफसरों-कर्मचारियों से बात की, जिन्होंने दिल्ली और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के कई कुख्यात जेबतराश-चाकूबाजों को गिरफ्तार करके उनसे कड़ी पूछताछ की थी. इस अभियान में टीवी9 भारतवर्ष के साथ खुलकर बात करने को मौजूदा जेबतराश तो तैयार नहीं थे. कुछ तैयार भी हुए तो अपनी पहचान उजागर न करने की शर्त पर. हां सीरीज को तैयार करने के दौरान कई ऐसे भी जेबतराश हाथ लगे, जिनका अब से 10-15 साल पहले तक देश की राजधानी दिल्ली और उसके आसपास के जिलों में नाम और इस बदनाम काम (जेबतराशी में) में तूती बोला करती थी. उस हद तक की तूती बोला करती थी कि जिस इलाके के थाने में जेबतराशी कराके कोई पीड़ित रोता-पीटता पहुंचता, उसकी आपबीती सुनते ही थाने के पुलिस वाले समझ-ताड़ जाते थे कि इस उस स्टाइल में किस जेबतराश गैंग के जेबकतरों ने जेब काटी होगी?

मेरे ट्रेंड जेबकतरे अब भी काम में होंगे

पहचान छिपाने की शर्त मान लेने पर दिल्ली के सुल्तानपुरी इलाके में अब से करीब 8-10 साल पहले तक जेबतराशी का बदनाम अड्डा चलाने वाला एक पूर्व जेबतराश जब खुलना शुरू हुआ तो उसकी मुहंजुबानी कहानी सुनकर रोंगटे खड़े हो गए. उसी की हू-ब-हू मुहंजुबानी “करीब 18-20 साल दबाकर (जमकर, बे-रोकटोक) जेब काटी. चाकूबाजी की. खूब कमाई-धमाई की. अब कुछ नहीं है. कहने को मेरे द्वारा इस काम में (जेब काटने में) तैयार (ट्रेंड) किए कई जेबकतरे, हो सकता है आज भी सक्रिय होकर काम कर रहे हों. मगर अब उन्हें यह भी नहीं पता होगा कि उन्हे जेब काटने का हुनर सिखाने वाला उनका उस्ताद (जेबतराशी का गुरू) कहां मर-खप रहा होगा? यह दुनिया चढ़ते सूरज की है. यहां बुझते हुए दीयों को कोई हाथ की हथेली लगाकर उनकी लौ नहीं बचाता है साहब. जो सुबह से शाम तक पांव छूते थे. अब वे सब गुरू बन चुके होंगे. कई तो जेलों में बंद होंगे और जो बाकी बचे होंगे वे कहीं आपसी मारपीट में चक्कूबाजी (गैंगवार) में मर-खप गए होंगे.” जेबतराशी का धंधा तो विश्वास और हुनरमंदी की नींव पर टिका होता है. फिर आपस में मारकाट/गैंगवार छुरेबाजी क्यों?

चक्कूबाजी जेबतराशी कैसी हुनरमंदी?

पूछने पर इसी पूर्व जेबतराश ने इस संवाददाता से बेबाकी से कहा, “काहे की हुनरमंदी साब. चक्कूबाजी और जेब कटिंग को आप ही हुनरमंदी कह रहे हो. यह कोई कलाकारी अच्छी चीज है क्या? जिसमें हमेशा अपनी (जेबकतरे) और सामने वाले (शिकार) की जान जोखिम में पड़ी रहे. जिसकी जेब कटे वो सौ-सौ बद्दुआएं दे. जेब कटने वाले की फैमली तक कोसती है घर बैठे-बैठे. जिसकी जेब कटती है वो पता नहीं कहां से कैसे सोना, चांदी पैसा लाते-ले जाते अपनी जेब हमसे (जेबकतरों से) कटवा बैठता होगा. कोई अपना काम चलाने के लिए घर में रखा सोना चांदी बेचने जा रहा होता होगा. हम (जेबतराश) उसकी जेब से वो भी निकाल लेते हैं. कोई उधार या महीने भर की तनखा के पैसे लेकर जा रहा होता है. कोई अपनी बीवी-बच्चों की बीमारी के इलाज के लिए उधारी लेकर भी जाता होगा. उसकी जेब कटती है तो क्या वो हमें (जेबतराशों को) दुआ देगा? हां, यह जरूर है कि हमारी यह ऐसी बुरी कमाई फलती हमें (जेबतराशों को) भी नहीं है. आज नहीं तो कल जाकर, किसी भी जेबकटर (जेबतराशी गैंग जेबकतरों को अपनी भाषा में जेबकटर ही कहते हैं) के घर में देख लो साब खुद जाकर. चारपाई तक साबुत नहीं मिलेगी आपको.

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जेबकतरों की बदतर जिंदगी का नमूना

किसी की बीवी मर चुकी होगी. किसी की मरने वाली होगी. किसी की बीवी भाग गई होगी. तो किसी की भागने की तैयारी में होगी. किसी भी जेबकटर की औलाद आपको कहीं किसी स्कूल में पढ़ती लिखती नहीं मिलेगी.” जब तुम इतने ज्ञानी हो तो फिर 18-20 साल जेब क्यों काटते रहे? पूछने पर आवाज में तल्खी आ गई और भौंहें चढ़ाता हुआ बोला, “आप (यह रिपोर्टर) मालूम नहीं किस स्कूल से पढ़े हो? यह सब बर्बादी तो मैंने जेबकतरा बनने के बाद ही देखी भोगी न. अगर पहले सब पता होता तो आज सड़क पर क्यों आ चुका होता. तुम्हें (टीवी9 भारतवर्ष के इस संवाददाता को) गरम गरम मसालेदार इंटरव्यू देने को. आज जेब में कौड़ी नहीं है. रोटी का जुगाड़ दोपहर का हो जाता है तो रात की कोई गारंटी नहीं होती है.” क्यों ऐसा क्यों और कैसे होता है? पूछने पर आगे कहता है, “साब हराम की कमाई और बद्दुआओं का मारा मैं ही तुम्हारे सामने खड़ा हूं. देख लो न. सामने हूं तुम्हारे (ठेठ खड़ी देसी बोली में). पहनने को आज साबित कपड़े-लत्ते तक नहीं है. कहने को सन् 1990-95 के आसपास कल्याणपुरी, सुलतानपुरी और मंगोलपुरी में तीन तीन मकान थे. उनमें किराएदार भी रख दिए थे. दो शादियां कीं. दोनो बीवियां और उनसे 7 बच्चे आज भी हैं. वे सब कहां है पता नहीं. न उन्हें मेरी मालूम न मुझे उनकी मालूम. वे मुझे मर-खप गया समझ रहे होंगे, मैं उन्हें मरा हुआ मान चुका हूं. अब इस बुढापे में कहां किसे कैसे जाकर दिल्ली की इस भीड़ में छांटूं (तलाशूं)? जब कमाई-धमाई, परिवार कुछ बचा ही नहीं तो अब निश्चिंत हूं.”

कोई जेबतराश पनपता नहीं देखा

इस बारे में टीवी9 भारतवर्ष ने दिल्ली पुलिस के पूर्व सहायक पुलिस आयुक्त (Assistant Police Commissioner ACP) जयपाल सिंह से बात की. सब-इंस्पेक्टरी से लेकर एसीपी तक करीब 40 साल दिल्ली पुलिस की नौकरी कर चुके और लंबे समय तक दिल्ली पुलिस की क्राइम ब्रांच जैसी अहम विंग में काम का अनुभव रखने वाले तत्कालीन एसीपी जयपाल सिंह बताते हैं, “मैंने 40 साल की नौकरी में इतने जेबतराशों को गिरफ्तार करके इंट्रोगेट किया और फिर जेल भी भेजा कि अब तो गिनती भी याद नहीं. कई बार तो एक ही जेबतराश को 20-20 से ज्यादा मर्तबा भी गिरफ्तार करके जेल भेजना पड़ गया. इनकी जिंदगी नरक से भी बदतर होती है. जेबतराशी के दौरान यह न अपने घरों में सोते-रहते हैं. महीनों तक परिवार से नहीं मिलते. किसी वारदात को अंजाम देने के बाद अक्सर दिल्ली के जेबतराशों को तो मैंने बस अड्डों, रेलवे स्टेशन, पार्कों आदि में ही सोते-रहते देखा है. क्योंकि वे जानते हैं कि घर जाते ही पुलिस दबिश देकर गिरफ्तार कर लेगी.” इतना ही नहीं एसीपी जयपाल सिंह, टीवी9 भारतवर्ष द्वारा इस विशेष सीरीज में कुख्यात जेबतराशों से हासिल तमाम जानकारियों की भी पुष्टि करते हैं.

बुरी कमाई से किसी का भला नहीं हुआ

दिल्ली पुलिस के पूर्व सहायक पुलिस आयुक्त के मुताबिक, “दरअसल जेबतराशों की कमाई सबसे ज्यादा बद्दुआओं वाली कमाई है. यह कमाई जेबकतरों को क्या किसी को भी नहीं पचेगी. इसीलिए मैने अपने पुलिस नौकरी के जीवन में किसी कुख्यात से कुख्यात जेबतराश को भी कभी सुखी घर परिवार वाला नहीं देखा. इनकी कमाई का बड़ा हिस्सा तो कोर्ट कचहरी वकील की फीस में ही चला जाता है. बाकी जो बचता है उसे यह सब अपने शराब-शबाब के ऐबों पर उड़ा देते हैं. जब तक इनके शरीर में ताकत रहती है तब तक यह बाज नहीं आते हैं. चाहे पुलिस इन्हें कितनी भी बार जेल में क्यों न भेज दे. जेल से बाहर आने के बाद भी मगर यह करते जेबतराशी ही हैं. क्योंकि तब तक यह उसी के काबिल बन चुके होते हैं. घर-परिवार में इन्हें कोई पूछता नहीं है. इलाका पुलिस जेल से आते ही इनकी ताड़ में जुट जाती है. लिहाजा इन्हें जेल से बाहर आते ही जल्दी होती है कि जब तक पुलिस इन्हें घेरे उससे पहले ही ज्यादा से ज्याद जेबतराशी में पैसा कमा लें. ताकि जेल और वकील का खर्चा तो पूरा हो सके. “

Source-TV9

कलप्रिट तहलका (राष्ट्रीय हिन्दी साप्ताहिक) भारत/उप्र सरकार से मान्यता प्राप्त वर्ष 2002 से प्रकाशित। आप सभी के सहयोग से अब वेब माध्यम से आपके सामने उपस्थित है।
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