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लेख

नैतिक मूल्यों और भौतिक प्रगति के बीच की खाई को पाटना

admin
Last updated: जून 1, 2025 9:41 पूर्वाह्न
By admin 16 Views
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58 Min Read
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नैतिक मूल्यों और भौतिक प्रगति के बीच की खाई को पाटना 

 

हम एक विरोधाभासी दुनिया में रहते हैं जहां एक तरफ कुछ लोग मूल्य-आधारित समाज के निर्माण में बहुत रुचि दिखाते हैं और वे मूल्य प्रणाली को मजबूत करने की बात करते हैं क्योंकि उन सभी को एहसास होता है कि वर्तमान अस्वस्थता नैतिक मानकों में गिरावट के कारण है समाज। तो, ऐसे लोगों का एक वर्ग है जो नैतिक विकास की बात करते हैं या जिसे मानव संसाधन विकास कहा जाता है। वहीं कुछ लोग वैज्ञानिक और तकनीकी विकास, आर्थिक विकास या ग्रामीण विकास की बात करते हैं.

 

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इन लोगों के पास जो प्रतिमान है वह नैतिक विकास के मानदंडों के गंभीर विरोधाभास में कमोबेश अक्सर होता है। इतना ही नहीं, वैज्ञानिक और तकनीकी विकास या आर्थिक और औद्योगिक विकास अक्सर विकास के अन्य मापदंडों के साथ संघर्ष में होता है। उदाहरण के लिए, औद्योगिक विकास का उद्देश्य अधिक से अधिक कारों, स्कूटरों, जीपों, ट्रकों आदि का उत्पादन और विपणन करना है और इस तरह की अन्य चीजों की देखभाल करना है कि पर्यावरण पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा, लोगों का स्वास्थ्य और उनकी आदतें और जीवन शैली, आदि।

 

उन्हें इस बात का एहसास नहीं है कि हर साल मोटर वाहनों का एक बड़ा जोड़ उस धुएं को भी जोड़ देगा जो लोगों के लिए खतरनाक है और यह लोगों के स्वास्थ्य को बुरी तरह प्रभावित करेगा। तो, इस तरह का विकास वास्तव में, लोगों के हित के लिए अनैतिक है। इसलिए हमें विकास के एक और मॉडल के बारे में सोचना चाहिए जिसमें लोग गति से और सुविधा के साथ यात्रा करने में सक्षम हो सकते हैं लेकिन पर्यावरण भी खराब नहीं होता है। इसी तरह, वे लोग जो समाज कल्याण से चिंतित हैं, अधिक धर्मार्थ अस्पताल खोलते हैं और देखभाल किए बिना अधिक बेड जोड़ते हैं कि अधिक से अधिक बीमारियां क्यों फैल रही हैं और अस्पतालों में जाने वाले रोगियों की संख्या बढ़ रही है। खराब पोषण, प्रदूषण, मानसिक तनाव और अस्वस्थ जीवन शैली जैसी बीमारी के मूल कारणों को संबोधित करने के बजाय – हम केवल उपचार सुविधाओं का विस्तार कर रहे हैं। यदि निवारक स्वास्थ्य सेवा और जागरूकता अभियानों को चिकित्सा बुनियादी ढांचे के रूप में ज्यादा प्राथमिकता दी गई, तो हम अस्पतालों पर बोझ को काफी कम कर सकते हैं।

 

लेकिन दुर्भाग्य से, आधुनिक समाज अक्सर अपने स्रोत पर बीमारी को ठीक करने के बजाय लक्षणों का इलाज करता है। फिर, शहर अब विस्तार कर रहे हैं और गांवों को शहरों में तब्दील किया जा रहा है। नतीजतन, कृषि क्षेत्रों को आवासीय, वाणिज्यिक या औद्योगिक भवनों में परिवर्तित किया जा रहा है। इसे विकास भी कहा जाता है। लेकिन लोगों को इस बात का एहसास नहीं है कि इससे कई समस्याएं पैदा होती हैं। जो लोग नौकरियों के लिए छोटे शहरों से मेगासिटी या मेट्रोपोलिया या उपग्रह शहरों में प्रवास करते हैं, वे अपनी आजीविका कमाने के लिए रेल या सड़क द्वारा लंबी दूरी तक दैनिक यात्रा करते हैं।

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उनमें से ज्यादातर सुबह जल्दी अपने घर छोड़कर देर शाम वहां पहुंचते हैं। न केवल इससे घर और परिवार में कई समस्याएं होती हैं, बल्कि सरकार को अतिरिक्त ट्रेनों और बसों आदि की व्यवस्था भी करनी होती है, जिसके परिणामस्वरूप दैनिक यात्रा में बहुत सारी ऊर्जा, समय और लोगों का पैसा खो जाता है और सरकार को परिवहन के आवश्यक साधन प्रदान करने पर भी बहुत खर्च करना पड़ता है। साथ ही, यह सब गंभीर ध्वनि प्रदूषण और तनाव का कारण बनता है। यदि, इसके बजाय, मध्यम आकार के आत्मनिर्भर शहर / गाँव थे, जो बेहतर होते, लेकिन आजकल लोग ऊंची इमारतों और महान शहरों पर गर्व महसूस करते हैं, क्योंकि इन्हें विकास के संकेत माना जाता है।

 

कई लोगों को इस तथ्य का एहसास नहीं है कि हमारी अधिकांश समस्याएं आबादी की उच्च विकास दर से भी आती हैं। क्योंकि जैसे-जैसे जनसंख्या बढ़ती जा रही है, परिवहन के लिए अधिक से अधिक वाहन, आवासीय आवास के लिए घर, उपचार के लिए अस्पताल आदि। की आवश्यकता है। यह सभी विकास को कम करता है। लोग सोचते हैं कि एक ऐसा देश जिसके पास कई अस्पताल, डॉक्टर, अदालतें, जज आदि हैं। एक विकसित देश है। लेकिन, वे शायद ही महसूस करते हैं कि वास्तविक रूप से एक विकसित देश है, वह वह है जहां लोग बहुत कम या कोई अपराध नहीं करते हैं और जहां बहुत बड़ी संख्या में लोग स्वस्थ हैं।

 

इसलिए, एक उचित प्रतिमान की आवश्यकता है जिसमें गठन तत्व एक दूसरे के साथ संघर्ष में नहीं हैं। वर्तमान में, समाज एक प्रतिमान पर आधारित है जो आंतरिक विरोधाभास की पुनरावृत्ति करता है। इसलिए, मानव जाति को अब एक ऐसे मॉडल की आवश्यकता है जो सरल, प्रेरणादायक, उत्थान, प्राकृतिक और बिना किसी आंतरिक संघर्ष या विरोधाभासों के हो। यह एक मूल्य-आधारित समाज का मॉडल है जिसमें सभी प्रकार के विकास अपने चरम पर हैं और अन्य पहलुओं के विकास के अनुरूप हैं।

 

विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्राचार्य शैक्षिक स्तंभकार प्रख्यात शिक्षाविद् स्ट्रीट कौर चंद एमएचआर मलोट पंजाब

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2)

आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के युग में समाचारों की रफ्तार तो बेशक बढ़ी लेकिन साथ ही फर्जी खबरों और भ्रामक वीडियो की बाढ़ भी आई है।

विजय गर्ग 

आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस ने सम्पूर्ण मीडिया परिदृश्य को एक नया रूप दे दिया है। आधुनिक तकनीक और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) के युग में समाचारों की रफ्तार तो बेशक बढ़ी है, लेकिन साथ ही फर्जी खबरों और भ्रामक वीडियो की बाढ़ भी आई है। आज आधुनिक तकनीक की मदद से फर्जी वीडियो बनाना इतना सरल है कि दर्शकों के लिए सही-गलत में अंतर करना मुश्किल हो गया है, ऐसे में अखबारों ने अपनी गहन रिपोर्टिंग और तथ्यपरकता से जनता के बीच भरोसे की पहचान बनाई है।

डिजिटल मीडिया और टीवी समाचार चैनलों की संख्या में लगातार हो रही वृद्धि ने समाचारों की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया है। जबकि नयी पीढ़ी का मानना है कि टीवी समाचार चैनलों और यूट्यूब चैनलों ने अखबारों की पाठक संख्या में गिरावट पैदा की है। लेकिन उनकी यह सोच निराधार ही कही जाएगी। अक्सर देखने में आया है कि टीआरपी की दौड़ में कुछ टीवी चैनल गलत समाचार भी प्रसारित कर रहे हैं। जिससे चैनलों की विश्वसनीय पर सवाल उठ रहे हैं। ऐसे में अख़बार विश्वसनीयता और गहराई के कारण जनता के बीच भरोसे का प्रतीक बने हैं।

हाल के वर्षों में देखा गया कि कई टीवी न्यूज़ चैनल टीआरपी की दौड़ में तथ्यों की पुष्टि किए बिना सनसनीखेज़ ख़बरें चलाते हैं। इसके लिए कई बार इन टीवी समाचार चैनलों को सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय से भी नोटिस मिले। हाल ही में भारत-पाकिस्तान तनाव और ‘ऑपरेशन सिन्दूर’ को लेकर प्रसारित खबरों का विश्लेषण करें तो सामने आता है कि करीब 80 प्रतिशत खबरें बिना तथ्यात्मक पुष्टि प्रसारित की गईं। इससे दोनों देशों के बीच तनाव की स्थिति बढ़ी व अंतर्राष्ट्रीय मीडिया में भी भारत के समाचार चैनलों की किरकिरी हुई। कुछ चैनलों ने तो सुरक्षा बलों से जुड़ी संवेदनशील जानकारियां भी प्रसारित कर दीं, जिससे उनके अभियान और जान पर खतरा उत्पन्न हो गया।

टीवी चैनलों की जल्दबाज़ी केवल राजनीतिक खबरों तक ही सीमित नहीं रही। सुरक्षा से जुड़ी संवेदनशील जानकारियों का प्रसारण, जिसमें हमारी सेनाओं की रणनीति और ऑपरेशन के विवरण शामिल थे, सुरक्षा बलों के लिए खतरा पैदा कर सकती थी। मसलन,पहलगाम हमले की गलत तारीख पर रिपोर्टिंग करके टीवी चैनलों ने बहुत से लोगों के दुख का मजाक बनाया था। जिसमें एक बहुचर्चित इमोशनल वीडियो नौसेना अधिकारी विनय नरवाल और उनकी पत्नी का था, जो टीवी चैनल्स के मुताबिक पहलगाम हमले से पहले रिकॉर्ड किया गया था। इस प्रकार के और भी बहुत उदाहरण हैं, जिनमें समाचार चैनल्स ने न केवल राष्ट्रीय समाचार रिपोर्टिंग बल्कि अंतर्राष्ट्रीय समाचार रिपोर्टिंग में भी अपनी विश्वनीयता खो दी। अधिकांश टीवी चैनल ‘सबसे तेज़’ बनने की होड़ में तथ्यात्मक पत्रकारिता से समझौता कर बैठते हैं। तथाकथित डिबेट शो में शोर-शराबे और राजनीतिक एजेंडा ने खबरों की गंभीरता प्रभावित की।

वर्ष 2023 में मणिपुर हिंसा के दौरान भी कई चैनलों ने बिना जांच के पुराने और फर्जी वीडियो प्रसारित किए, जिससे स्थिति और भड़क गई। बाद में स्पष्ट हुआ कि वे वीडियो फर्जी थे और उनका मणिपुर से कोई संबंध नहीं था। उधर, यूट्यूब जैसे स्वतंत्र डिजिटल प्लेटफॉर्म्स ने रिपोर्टिंग को लोकतांत्रिक बनाया है, लेकिन साथ ही खबरों की गुणवत्ता और विश्वसनीयता पर सवाल भी खड़े किए। चूंकि इन प्लेटफॉर्म्स पर प्रसारण के लिए किसी औपचारिक सत्यापन प्रक्रिया की आवश्यकता नहीं होती, इसलिए फर्जी खबरें और भ्रामक विश्लेषण आसानी से दर्शकों तक पहुंच जाते हैं।

इसके विपरीत अखबारों में हर खबर कई स्तरों पर जांच-परख के बाद ही प्रकाशित की जाती है। संवाददाता की फील्ड रिपोर्टिंग के बाद डेस्क और संपादकीय टीम मिलकर स्रोतों की जांच करती है और खबर की गहराई से पुष्टि करती है। प्रिंट मीडिया ने वर्षों की परंपरा, सटीकता और जिम्मेदार रिपोर्टिंग के बल पर खुद को एक विश्वसनीय माध्यम के रूप में बनाए रखा है। अख़बारों की सबसे बड़ी ताकत है- फैक्ट चैकिंग और सम्पादकीय प्रक्रिया। अख़बारों में एक खबर प्रकाशित करने से पहले कई स्तरों पर तथ्यों की पुष्टि होती है। सबसे पहले पत्रकार अपनी सूझबूझ से कोई समाचार भेजता है, फिर डेस्क की निगरानी के बाद संपादकीय निगरानी से उस समाचार के स्रोत की जांच और गहराई से विश्लेषण अख़बारों को विश्वसनीय माध्यम बनाते हैं। उदाहरण के लिए, दैनिक ट्रिब्यून जैसे अख़बारों ने बार-बार दिखाया है कि वे गहराई से रिपोर्टिंग कर पाठकों तक सही जानकारी पहुंचाते हैं। यही कारण है कि प्रिंट मीडिया आज भी गंभीर पाठकों की पहली पसंद बना है।

जब फर्जी खबरें समाज को गुमराह कर रही हैं, तब जरूरी हो गया है कि हम अखबारी विश्वसनीय स्रोतों से ही जानकारी लें। भारत में 2023 में समाचार पाठकों पर किए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार, 44 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने समाचार पत्रों को सबसे भरोसेमंद समाचार स्रोत माना। ‘सबसे तेज़’ बनने की होड़ में खबरों की सच्चाई, भाषा की मर्यादा और रिपोर्टिंग की नैतिकता कहीं खोती जा रही है। ऐसे समय में अख़बारों को फिर से पढ़ना, समझना और उनके जरिये सही जानकारी प्राप्त करना बेहद ज़रूरी हो गया है। समाचार पत्र पढ़ने से समाचारों की व्यापक और गहन कवरेज मिलती है, जो टीवी समाचारों से कहीं ज़्यादा विश्वसनीय होती है। यह आलोचनात्मक सोच, विश्लेषणात्मक कौशल और विभिन्न विषयों की व्यापक समझ विकसित करने में मदद करता है।

विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल मलोट पंजाब

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[3)

 

आत्मरक्षा का घेरा

विजय गर्ग 

मानव का मन हमेशा से ही अपनी सुरक्षा के लिए सचेत रहा है । सभ्यताओं के शुरुआती दौर से लेकर आज तक हमने इस मामले को कभी हल्के में नहीं लिया है। जब हम बहुत सारी चीजों से अनभिज्ञ थे, तब भी हम पत्थर से बने हथियारों को प्रयोग में लाते थे। वहीं आज विश्व ‘परमाणु हथियारों और युद्ध का दौर है। जिसे देखा जाए, वही अपने आपको सुरक्षित रखना चाहता है। यह समझने की जरूरत है कि यह सुरक्षा किससे और क्यों सुनिश्चित करने की कोशिश की जाती है। यह सुरक्षा किसी जानवर या अन्य शक्ति से नहीं है, बल्कि इंसान किसी अन्य इंसान से तय करना चाहता है। इसके कई कारण हो सकते हैं। जैसे आर्थिक, राजनीतिक या अन्य कोई भी कारण। गांधी से लेकर नेल्सन मंडेला तक बहुत से अहिंसा के पुजारी और अन्य ऐसे महानतम लोग हमारा पथ प्रदर्शन करते आए हैं कि चाहे जो भी हो जाए, हमें अहिंसा का पालन करना है। ऐसे महान लोगों का मानना था कि अपना विरोध भी अहिंसक नीतियों के तहत ही दर्ज कराना चाहिए। मगर क्या आज के इस विश्व और विध्वंसकारी युग में ऐसा संभव है? हम सभी का उत्तर संभवतः न में ही सामने आएगा।

राष्ट्रीय स्तर पर तो हमारी सुरक्षा के लिए हमारी सरकार कार्य कर रही है, लेकिन व्यक्तिगत स्तर पर इस तरफ हमारा खास ध्यान नहीं है। आतंकवादी हमलों में देश के नागरिक मारे जाते हैं। अगर आत्मरक्षा के कुछ तरीकों को अपनाया जाए तो आत्मबल से हम अपने आपको इन हमलों से बचा सकते हैं। नहीं तो कम से कम सामना तो कर ही सकते हैं। आतंकवादी सिर्फ बाहर ही नहीं है, हमारे आसपास भी ऐसे लोग मौजूद हैं जो स्त्रियों और बच्चों को अपने आतंक का शिकार बनाते हैं। यह याद रखने की जरूरत है कि हमला सिर्फ कमजोर व्यक्ति पर ही नहीं होता है, बल्कि हमारे आत्मबल की ताकत पर भी होता है। ज्यादातर घरों में आतंक का साया धीरे-धीरे फैलता जा रहा है। बाहरी खतरे से लेकर भीतरी और रहस्यमय अपराधों का जाल काम कर रहा लगता है। इन्हें काटना जरूरी है। सब कुछ दबा – कुचला है। बाहर की ओर सिर्फ सफेद प्लास्टर लगा है, जिसे बाहर निकालकर सफाई करना बेहद जरूरी है।

अरस्तू ने कहा था कि एथेंस को स्पार्टा की तरह सैनिक शिक्षा को अपनाना चाहिए। हम यहां सैनिक शिक्षा समर्थित राष्ट्रों का गुणगान नहीं करना चाहते, क्योंकि हमारे लोकतांत्रिक राष्ट्र में ऐसा संभव नहीं है और न ही मानवीय दुनिया के लिए यह कोई अच्छा विकल्प है। मगर शिक्षा में आत्मरक्षा का प्रशिक्षण अगर दिया जाए तो व्यक्ति काफी हद तक आने वाली दुर्घटनाओं का शिकार होने से बच सकता है। आत्मरक्षा के लिए कई तरीके हैं, जिन्हें सीखकर व्यक्ति कुछ सीमा तक अपने आपको बचा सकता है। मार्शल आर्ट यानी जूडो-कराटे और इस विधा के साथ अन्य खेल, मुक्केबाजी और कुश्ती आदि। अगर हमारी व्यवस्था हमें यह उपलब्ध नहीं करवा पा रही है तो हम व्यक्तिगत स्तर पर भी अपने बच्चों को आत्मरक्षा का प्रशिक्षण अवश्य दिलवाने चाहिए।

जिस तरह से किसी भी व्यक्ति के लिए तैरना सीखना आवश्यक है, उसी प्रकार सुरक्षा भी जरूरी आयाम है, जिसे अपना कर हम अपने जीवन और अस्तित्व को बनाए रख सकते हैं। कितना सुखद क्षण होगा वह, जब अपने देश में कोई भी बेटी घरेलू हिंसा का शिकार नहीं होगी, क्योंकि वह अपनी रक्षा करना खुद जानती होगी। वह क्षण कितना साहसिक होगा जब कोई हमारे ऊपर गोली चलाने की कोशिश करेगा और हम उसकी बंदूक का रुख उसी की तरफ मोड़ देंगे। इन सब चीजों के लिए हिम्मत के साथ दिमाग का दुरुस्त होना भी जरूरी है। अन्यथा सब बेकार हो जाता है।

आत्मरक्षा के तरीके सीखना आज हमारे लिए एक बेहद आवश्यक पहलू है। हमें अपनी रक्षा के लिए स्वयं ही प्रयास करने होंगे, जैसे कि जंगलों और अन्य असुरक्षित जगहों पर जीवन गुजारने वाले हमारे पूर्वजों ने किए थे। जिस तरह वे लोग जंगली जानवरों और इंसानों के बीच आपसी शत्रुता से पार पा सके और हमारे इस युग का आविर्भाव हुआ, उसी तरह की हिम्मत और ताकत हमें बटोरनी होगी। हमें हिंसक नहीं बनना चाहिए, बल्कि अपने आपको घरेलू और बाहरी आतंक से बचाने की जरूरत है । यह तभी संभव है जब सरकार, अभिभावक और अध्यापक बच्चों की इस तरह की शिक्षा पर पर्याप्त ध्यान दें । निश्चित रूप से पढ़ना आवश्यक है, लेकिन साथ ही जीवन और जीवन-रक्षा भी एक अति महत्त्वपूर्ण विषय है। इसे नजरअंदाज करना ठीक नहीं है। इस तरह की गतिविधियां हमारा उद्देश्य बनना चाहिए कि आने वाले वर्षों में हमारी पीढ़ियां आत्मबल और आत्मरक्षा से लैस और परिपूर्ण हों, ताकि भविष्य में न तो हमें बंदूक चलानी पड़े और न ही सामने वाले किसी बेलगाम शख्स में हमारा अंत करने का साहस हो ।

पिछले कुछ समय की कुछ घटनाएं यह साबित करती हैं कि हमें सचेत होना होगा, आत्मबल और आत्मरक्षा के गुर से लैस और परिपूर्ण होना होगा। संपूर्ण विश्व आतंक से त्रस्त मानवता अब मुश्किल में खड़ी दिख रही है, कुछ स्वार्थी तत्त्वों ने अपने स्वार्थ के वशीभूत होकर इंसानियत को ताक पर रख दिया है तो ऐसे युग में इतना तो होना ही चाहिए कि हम अपने आप को बचाए रखें और यह तभी संभव है, जब हम अपने बच्चों को और स्वयं को मानसिक, बौद्धिक और शारीरिक रूप से सबल बनाएं।

विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल मलोट पंजाब

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[4)

 

कहानी: कांटा

विजय गर्ग 

रूपा अपने वैवाहिक जीवन से खुश थी पर उस की खुशी देख कर शिखा जलभुन गई क्योंकि उस का दांपत्य खुशहाल नहीं था. आखिर शिखा ने एक चाल चली. पर क्या उस की चाल कामयाब हुई.

 

रूपा पत्रिका ले कर बैठी ही थी कि तभी कालबैल की घंटी बजी. दरवाजा खोला तो सामने उस की बचपन की सहेली शिखा खड़ी थी. शिखा उस की स्कूल से ले कर कालेज तक की सहेली थी. अब सुजीत के सब से घनिष्ठ मित्र नवीन की पत्नी थी और एक टीवी चैनल में काम करती थी.

 

 

रूपा के मन में कुछ देर पहले तक शांति थी. अब उस की जगह खीज ने ले ली थी. फिर भी उसे दरवाजा खोल हंस कर स्वागत करना पड़ा, ‘‘अरे तू? कैसे याद आई? आ जल्दी से अंदर आ.’’

 

शिखा ने अंदर आ कर पैनी नजरों से पूरे ड्राइंगरूम को देखा. रूपा ने ड्राइंगरूम को ही नहीं, पूरे घर को सुंदर ढंग से सजा रखा था. खुद भी खूब सजीधजी थी. फिर शिखा सोफे पर बैठते हुए बोली, ‘‘इधर एक काम से आई थी… सोचा तुम से मिलती चलूं… कैसी है तू?’’

 

‘‘मैं ठीक हूं, तू अपनी सुना?’’

 

सामने स्टैंड पर रूपा के बेटे का फ्र्रेम में लगा फोटो रखा था. उसे देखते ही शिखा ने कहा, ‘‘तेरा बेटा तो बड़ा हो गया.’’

 

 

‘‘हां, मगर बहुत शैतान है. सारा दिन परेशान किए रहता है.’’

 

शिखा ने देखा कि यह कहते हुए रूपा के उजले मुख पर गर्व छलक आया है.

 

‘‘घर तो बहुत अच्छी तरह सजा रखा है… लगता है बहुत सुघड़ गृहिणी बन गई है.’’

 

‘‘क्या करूं, काम कुछ है नहीं तो घर सजाना ही सही.’’

 

‘‘अब तो बेटा बड़ा हो गया है. नौकरी कर सकती हो.’’

 

‘‘मामूली ग्रैजुएशन डिग्री है मेरी. मु झे कौन नौकरी देगा? फिर सब से बड़ी यह कि इन को मेरा नौकरी करना पसंद नहीं.’’

 

‘‘तू सुजीत से डरती है?’’

 

‘‘इस में डरने की क्या बात है? पतिपत्नी को एकदूसरे की पसंदनापसंद का खयाल तो रखना ही पड़ता है.’’

 

 

शिखा हंसी, ‘‘अगर दोनों के विचारों में जमीनआसमान का अंतर हो तो?

 

यह सुन कर रूपा  झुं झला गई तो वह शिखा से बोली, ‘‘अच्छा तू यह बता कि छोटा नवीन कब ला रही है?’’

 

शिखा ने कंधे  झटकते हुए कहा, ‘‘मैं तेरी तरह घर में आराम का

 

जीवन नहीं काट रही. टीवी चैनल का काम आसान नहीं. भरपूर पैसा देते हैं तो दम भी निकाल लेते हैं.’’

 

शिखा की यह बात रूपा को अच्छी नहीं लगी. फिर भी चुप रही, क्योंकि शिखा की बातों में ऐसी ही नीरसता होती थी. रूपा की शादी मात्र 20 वर्ष की आयु में हो गई थी. लड़का उस के पापा का सब से प्रिय स्टूडैंट था और उन के अधीन ही पी.एचडी. करते ही एक मल्टीनैशनल कंपनी में ऐग्जीक्यूटिव लग गया था. मोटी तनख्वाह के साथसाथ दूसरी पूरी सुविधाएं भी और देशविदेश के दौरे भी.

 

लड़के के स्वभाव और परिवार की अच्छी तरह जांच कर के ही पापा ने उसे अपनी इकलौती बेटी के लिए चुना था. हां, मां को थोड़ी आपत्ति थी लेकिन सम झने पर वे मान गई थीं. पापा मशहूर अर्थशास्त्री थे. देशविदेश में नाम था.

 

 

रूपा अपने वैवाहिक जीवन से बेहद खुश थी. होती भी क्यों नहीं, इतना हैंडसम और संपन्न पति मिला था. और विवाह के कुछ अरसा बाद ही उस की गोद में एक प्यारा सा बेटा भी आ गया था. शादी को 8 वर्ष हो गए थे. कभी कोई शिकायत नहीं रही. वह भी तो बेहद सुंदर थी. उस पर कई सहपाठी मरते थे, पर उस का पहला प्यार पति सुजीत ही थे.

 

बेटी को सुखी देख कर उस के मातापिता भी बहुत खुश थे.

 

बात बदलते हुए रूपा ने कहा, ‘‘छोड़ इन बातों को… इतने दिनों बाद मिली है… चल सहेलियों की बातें करती हैं.’’

 

शिखा थोड़ी सहज हुई. बोली, ‘‘तू भी तो कभी मेरी खबर लेने नहीं आती.’’

 

‘‘देख  झगड़े की बात नहीं… सचाई बता रही हूं… कितनी बार हम लोगों ने तु झे और नवीन भैया को बुलाया. भैया तो एकाध बार आए भी पर तू नहीं… फिर तू ने तो कभी हमें बुलाया ही नहीं.. अच्छा यह सब छोड़. बोल क्या लेगी चाय या ठंडा? गरम सूप भी है.’’

 

‘‘सूप ही ला… घर का बना सूप बहुत दिनों से नहीं पीया.’’

 

 

थोड़ी ही देर में रूपा 2 कप गरम सूप ले आई. फिर 1 शिखा को पकड़ा और दूसरा स्वयं पकड़ कर शिखा के सामने बैठ गई. बोली, ‘‘बता कैसी चल रही है तेरी गृहस्थी?’’

 

जब रूपा सूप लेने गई थी तब शिखा ने घर के चारों ओर नजर डाली थी. वह सम झ गई थी कि रूपा बहुत सुखी और संतुष्ट जीवन जी रही है. उस का स्वभाव ईर्ष्यालु था ही. अत: सहेली का सुख उसे अच्छा नहीं लगा. वह रूपा का दमकता नहीं मलिन व दुखी चेहरा देखना चाहती थी.

 

शिखा यह भी सम झ गई थी कि उस के सुख की जड़ बहुत मजबूत है. सहज उखाड़ना संभव नहीं. आज तक वह उसे हर बात में पछाड़ती आई है. पढ़ाई, लेखन प्रतियोगिता, खेल, अभिनय, नृत्य व संगीत सब में वह आगे रहती आई है. रूपा है तो साधारण स्तर की लड़की पर कालेज का श्रेष्ठ हीरा लड़का उस के आंचल में आ गया था. फिर समय पर वह मां भी बन गई. पति प्रेम, संतान स्नेह से भरी है वह. ऊपर से मातापिता का भरपूर प्यार, संरक्षण भी है उस के पास. संपन्नता अलग से.

 

यह सब सोच शिखा बेचैन हो उठी कि जीवन की हर बाजी उस से जीत कर यह अंतिम बाजी उस से हार जाएगी… पर करे भी तो क्या? कैसे उस की जीत को हार में बदले? कुछ तो करना ही पड़ेगा… पर क्या करे? सोचना होगा, हां कोई न कोई रास्ता तो निकालना ही होगा. रूपा में बुद्धि कम है. उसे बहकाना आसान है, तो कोई रास्ता निकालना ही पड़ेगा… जरूर कुछ सोचेगी वह.

 

 

मां से फोन पर बातें करते हुए रूपा ने शिखा के अचानक आने की बात कही तो वे शंकित

 

हो उठीं, ‘‘बहुत दिनों से उसे देखा नहीं… अचानक तेरे घर कैसे आ गई?’’

 

रूपा बेटे को दूध पिलाते हुए सहज भाव से बोली, ‘‘नवीन भैया तो आते रहते हैं… वही नहीं आती थी… उन से दूर की रिश्तेदारी भी है. सुजीत के भाई लगते हैं और दोस्त तो हैं ही. पर आज बता रही थी कि पास ही चैनल के किसी काम से आई थी तो…’’

 

‘‘मु झे उस पर जरा भी विश्वास नहीं. मु झे तो लगता है तेरा घर देखने आई थी,’’ मां रूपा की बात बीच ही में काटते हुए बोली.

 

यह सुन रूपा अवाक रह गई. बोली, ‘‘मेरे घर में ऐसा क्या है, जो देखने आएगी?’’

 

‘‘जो उस के घर में नहीं है. देख रूपा,

 

वह बहुत धूर्त, ईर्ष्यालु है… बिना स्वार्थ के वह एक कदम भी नहीं उठाती… तू उसे ज्यादा गले मत लगाना.’’

 

‘‘मां वह आती ही कहां है? वर्षों बाद तो मिली है.’’

 

 

‘‘यही तो चिंता है. वर्षों बाद अचानक तेरे घर क्यों आई?’’

 

रूपा हंसी, ‘‘ओह मां, तुम भी कुछ कम शंकालु नहीं हो… अरे, बचपन की सहेली से मिलने को मन किया होगा… क्या बिगाड़ेगी मेरा?’’

 

‘‘मैं यह नहीं जानती कि वह क्या करेगी पर वह कुछ भी कर सकती है. मुझे लग रहा है वह फिर आएगी… ज्यादा घुलना नहीं, जल्दी विदा कर देना… बातें भी सावधानी से करना.’’

 

अब रूपा भी घबराई, ‘‘ठीक है मां.’’ मां की आशंका सच हुई. एक दिन फिर आ धमकी शिखा. रूपा थोड़ी शंकित तो हुई पर उस का आना बुरा नहीं लगा. अच्छा लगने का कारण यह था कि सुजीत औफिस के काम से भुवनेश्वर गए थे और बेटा स्कूल… बहुत अकेलापन लग रहा था. उस ने शिखा का स्वागत किया. आज वह कुछ शांत सी लगी.

 

इधरउधर की बातों के बाद अचानक बोली, ‘‘तेरे पास तो बहुत सारा खाली समय होता है… क्या करती है तब?’’

 

रूपा हंसी, ‘‘तु झे लगता है खाली समय होता है पर होता है नहीं… बापबेटे दोनों की फरमाइशों के मारे मेरी नाक में दम रहता है.’’

 

‘‘जब सुजीत बाहर रहता है तब?’’

 

‘‘हां तब थोड़ा समय मिलता है. जैसे आज वे भुवनेश्वर गए हैं तो काम नहीं है. उस समय मैं किताबें पढ़ती हूं. तुझे तो पता है मु झे पढ़ने का कितना शौक है.’’

 

 

‘‘पढ़ तो रात में भी सकती है?’’

 

रूपा सतर्क हुई, ‘‘क्यों पूछ रही है?’’

 

‘‘देख रूपा, तू इतनी सुंदर है कि 20-22 से ज्यादा की नहीं लगती… अभिनय, डांस भी आता है. हमारे चैनल में अपने सीरियल बनते हैं. एक नया सीरियल बनना है जिस के लिए नायिका की खोज चल रही है. सुंदर, भोली सी कालेज स्टूडैंट का रोल है. तु झे तो दौड़ कर ले लेंगे. कहे तो बात करूं?’’

 

रूपा हंसने लगी, ‘‘तू पागल तो नहीं हो

 

गई है?’’

 

‘‘क्यों इस में पागल होने की क्या बात है?’’

 

‘‘कालेज, स्कूल की बात और है सीरियल की बात और. न बाबा न, मु झे घर से ही फुरसत नहीं. फिर मैं टीवी पर काम करूं यह कोई पसंद नहीं करेगा.’’

 

‘‘अरे पैसों की बरसात होगी. तू क्या सुजीत से डरती है?’’

 

‘‘उन की छोड़. उन से पहले मांपापा ही डांटेंगे. फिर अब तो बेटा भी बोलने लग गया है. मु झे पैसों का लालच नहीं है. पैसों की कोई कमी नहीं है. सुजीत हैं, पापा हैं.’’

 

शिखा सम झ गई कि रास्ता बदलना पड़ेगा. अत: फिर सामान्य बातें करतेकरते अचानक बोली, ‘‘तू सुजीत पर बहुत भरोसा करती है न?’’

 

 

यह सुन रूपा अवाक रह गई, बोली, ‘‘तेरा दिमाग तो ठीक है? वे मेरे पति हैं. मेरा उन पर भरोसा नहीं होगा तो किस पर करूंगी?’’

 

‘‘तु झे पूरा भरोसा है कि भुवनेश्वर ही गए हैं काम से?’’

 

‘‘अरे, मैं ने खुद उन का टूअर प्रोग्राम देखा है. मैं उस होटल को भी जानती हं जिस में वे ठहरते हैं. मैं भी तो कितनी बार साथ में गई हूं. इस बार भी जा रही थी पर बेटे की परीक्षा में हफ्ता भर है, इसलिए नहीं जा पाई. फिर वे अकेले नहीं गए हैं. साथ में पी.ए. और क्लर्क रामबाबू भी हैं. दिन में 2-3 बार फोन भी करते हैं.’’

 

‘‘तू सच में जरूरत से ज्यादा मूर्ख है. तू मर्दों की जात को नहीं पहचानती. बाहरी जीवन में वे क्या करते हैं, कोई नहीं जानता.’’

 

रूपा अंदर ही अंदर कांप गई. शिखा की उपस्थिति उसे अखरने लगी थी. मम्मी

 

की बातें बारबार याद आने लगीं. पर घर से धक्के मार उसे निकाल तो नहीं सकती थी. उस ने सोचा कि इस समय खुद पर नियंत्रण रखना बहुत जरूरी है… शिखा की नीयत पर उसे भरोसा नहीं था.

 

‘‘मैं घर और बच्चे को छोड़ कर सुजीत के पीछे ही पड़ी रहूं तो हो गया काम… फिर उन पर मु झे पूरा विश्वास है. दिन में कई बार फोन करते हैं… उन के साथ जो गए हैं उन्हें भी मैं अच्छी तरह जानती हूं.’’

 

‘‘बाप रे, तू तो सीता को भी मात देती लगती है.’’

 

इस बार शिखा हंसहंसते लोटपोट हो गई.

 

‘‘फोन वे करते हैं. तु झे क्या पता कि भुवनेश्वर से कर रहे हैं या मनाली की खूबसूरत वादियों में किसी और लड़की के साथ घूमने…’’

 

हिल गई रूपा, ‘‘यह क्या बक रही है? मेरे पति ऐसे नहीं हैं.’’

 

‘‘सभी मर्द एकजैसे होते हैं.’’

 

‘‘नवीन भैया भी ऐसे नहीं हैं.’’

 

‘‘ठीक है, मैं बताती हूं कैसे परखेगी… जब वे टूअर से लौटें तो उन के कपड़े चैक करना… किसी महिला के केश, मेकअप के कोई दाग, फीमेल इत्र की गंध है या नहीं… 2-4 बार अचानक औफिस पहुंच जा.’’

 

‘‘छि:… छि:… कितनी गंदगी है तेरी सोच. मु झे अब नवीन भैया पर तरस आ रहा है. अपना घर, नवीन भैया का जीवन बिगाड़ चैन नहीं… अब मेरा घर बरबाद करने आई है. तू जा… मेरे सिर में दर्द हो रहा है. मैं सोऊंगी.’’

 

शिखा का काम हो गया था. अत: वह हंस कर खड़ी हो गई. बोली, ‘‘जी भर कर सो ले. मैं जा रही हूं.’’

 

शिखा तो हंसती हुई चली गई, पर रूपा खूब रोई. जब बेटा स्कूल से आया तो उसे ले कर सीधे मां के पास चली गई.

 

मां ने उसे आते देख सम झ गईं कि जरूर कोई बात है. पर उस समय कोई बात नहीं की. बेटे और उसे खाना खाने बैठाया फिर बेटे को सुलाने के बाद वे बेटी के पास बैठीं, ‘‘अब बोल, क्या बात है.’’

 

रूपा चुप रही.

 

‘‘क्या आज भी शिखा आई थी?’’

 

उस ने हां में सिर हिलाया.

 

‘‘मैं ने तु झे पहले ही सावधान किया था. वह अच्छी लड़की नहीं है. वह जिस थाली में खाती है उसी में छेद करती है. हां, उस की मां सौतेली हैं यह ठीक है पर वे उस की सगी मां से भी अच्छी हैं. जब तक वहां रही एक दिन उसे चैन से नहीं रहने दिया. बाप से  झूठी शिकायतें कर घर को तोड़ने की कोशिश करती रही. पर उस के पापा सम झदार थे. बेटी की आदत को जानते थे और अपनी पत्नी पर पूरा विश्वास था, इसलिए शिखा अपने मकसद में कामयाब न हुई. अब जब से शादी हुई है तो बेचारे नवीन के जीवन को नरक बना रखा है… उस से भी मन नहीं भरा तो अब तेरे घर को बरबाद करने चली है… तू क्यों बैठाती है उसे?’’

 

‘‘अब घर आए को कैसे भगाऊं?’’

 

‘‘एक कप चाय पिला कर विदा कर दिया कर… बैठा कर बात मत किया कर. आज क्या ऐसा कहा जो तू इतनी परेशान है?’’

 

रूपा ने पूरी बात बताई तो वे शंकित हुईं और गुस्सा भी आया. वे अपनी बेटी को जानती थी कि उसे चालाकी नहीं आती है… उस के घर को तोड़ना बहुत आसान है. फिर बोली, ‘‘क्या तू यही मानती है कि सुजीत भुवनेश्वर नहीं गया है?’’

 

‘‘नहीं, मु झे उन पर पूरा विश्वास है. रामबाबू भी तो साथ हैं. यह तो शिखा कह रही थी.’’

 

‘‘फिर भी तू विचलित है, क्योंकि संदेह का कांटा वह तेरे मन में गहरे उतार गई है. देख संदेह एक बीमारी है. अंतर इतना है कि इस का कोई इलाज नहीं है. दूसरी बीमारियों की दवा है, उन का इलाज किया जा सकता है पर संदेह का नहीं. शिखा ने यह बीमारी तु झे लगाई है. अब अगर तु झ से सुजीत को लगे और वह तु झ पर शक करने लगे तब क्या करेगी?’’

 

कांप गई रूपा, ‘‘मु झ पर?’’

 

‘‘क्यों नहीं? उस के पीछे तू क्या करती है, उसे क्या पता. हफ्ताहफ्ता बाहर रहता है… तब तू एकदम आजाद होती है. जब तू उस पर शक करेगी तो वह भला क्यों नहीं कर सकता?’’

 

रूपा को काटो तो खून नहीं.

 

‘‘देख पागल मत बन… दूसरे की नहीं अपने मन की आवाज सुन कर चल. तू उस जैसी नहीं है. तेरे साथ तेरा बच्चा है, तू साधारण स्तर की पढ़ीलिखी है, बाहरी समाज का तु झे कोई अंदाजा नहीं है. अगर वह खाईखेली लड़की नवीन से तलाक भी ले ले तो भी उसे कोई फर्क नहीं पड़ेगा. पर तू क्या करेगी? हम हैं ठीक है पर पापा को जानती है न कितने न्यायप्रिय हैं… तू गलत हुई तो यहां से तु झे तिनके का सहारा भी नहीं मिलने वाला. मैं कुछ भी नहीं कर सकती.’’

 

मां की बात सुन कर स्तब्ध रह गई रूपा कि मां ने जो कहा स्पष्ट कहा, उचित बात कही. उस के मन में शिखा कांटा बोना चाहे और वह बोने दे तो अपना ही सर्वनाश करेगी.

 

मां ने नवीन से भी इस विषय पर बात की, यह सोच कर कि भले ही बेटी को सम झाया हो उन्होंने पर उस के मन का कांटा जड़ से अभी नहीं उखड़ा होगा.

 

नवीन ने उस दिन अचानक फोन कर के रूपा से कहा, ‘‘रूपा, बहुत दिन से तुम ने कुछ खिलाया नहीं. आज रात डिनर करने आऊंगा.’’

 

रूपा खुश हुई, ‘‘ठीक है भैया… मैं आप की पसंद का खाना बनाऊंगी.’’

 

शाम को नवीन सुजीत के साथ ही आया.

 

रूपा ने चाय के साथ पकौड़े बनाए.

 

नवीन ने चाय पीते हुए पूछा, ‘‘रात को क्या खिला रही हो?’’

 

‘‘आप की पसंद के हिसाब से पालकपनीर, सूखी गोभी, बूंदी का रायता और लच्छा परांठे… और कुछ चाहें तो…’’

 

‘‘नहींनहीं, बहुत बढि़या मेनू है. तुम बैठो. हां, सुजीत तू एक काम कर. रबड़ी ले आ.’’

 

सुजीत रबड़ी लेने चला गया तो नवीन ने कहा, ‘‘रूपा, आराम से बैठ कर बताओ पूरी बात क्या है?’’

 

रूपा चौंकी, ‘‘क्या भैया?’’

 

‘‘सुजीत को लग रहा है तुम पहले जैसी सहज नहीं हो… उसे तुम्हारे व्यवहार से कोई शिकायत नहीं है पर उसे लगता है तुम पहले जैसी खुश नहीं हो… लगता है कुछ है तुम्हारे मन में.’’

 

रूपा चुप रही.

 

‘‘रूपा तुम चुप रहोगी रही तो तुम्हारी समस्या बढ़ती ही जाएगी. बात क्या है? क्या सुजीत के किसी व्यवहार ने तुम्हें आहत किया है?’’

 

‘‘नहीं, वे तो कभी तीखी बात करते ही नहीं.’’

 

‘‘पतिपत्नी का रिश्ता बहुत सहज होते हुए भी बहुत नाजुक होता है. इस में कभीकभी बुद्धि को नजरअंदाज कर के मन की बात काम करने लगती है. तुम्हारे मन में कौन सा कांटा चुभा है मु झे बताओ?’’

 

रूपा ने कहा, ‘‘ऐसा कुछ नहीं है.’’

 

‘‘रूपा, पतिपत्नी का रिश्ता एकदूसरे के प्रति विश्वास पर टिका होता है. मु झे लगता है सुजीत के प्रति तुम्हारे विश्वास की नींव को धक्का लगा है. पर क्यों? सुजीत ने कुछ कहा है क्या?’’

 

शिखा ने जो संदेह का कांटा उस के मन में डाला था उस की चुभन की अवहेलना नहीं कर पा रही थी वह. इसी उल झन में उस की मानसिक शांति भंग हो गई थी. अब वह पहले जैसी खिलीखिली नहीं रहती थी और सुजीत से भी अंतरंग नहीं हो पा रही थी. उस की मानसिक उधेड़बुन उस के चेहरे पर मलिनता लाई ही, व्यवहार में भी फर्क आ गया था.

 

उस ने सिर  झुका कर जवाब दिया, ‘‘ऐसा कुछ नहीं है भैया.’’

 

‘‘नहीं रूपा, तुम्हारे मन की उथलपुथल तुम्हारे मुख पर अपनी छाप डाल रही है. ज्यादा परेशान हो तो तलाक ले लो. सुजीत तुम्हारी खुशी के लिए कुछ भी करने को तैयार है.’’

 

रूपा चौंकी उस की आंखें फैल गईं, ‘‘तलाक?’’

 

‘‘क्यों नहीं? तुम सुजीत के साथ खुश

 

नहीं हो.’’

 

‘‘भैया, मैं बहुत खुश हूं. सुजीत के बिना अपना जीवन सोच भी नहीं सकती. दोबारा तलाक की बात न करना,’’ और वह रो पड़ी.

 

‘‘तो फिर पहले जैसा भरोसा, विश्वास क्यों नहीं कर पा रही हो उस पर? उसे कभीकभी तुम्हारी आंखों में संदेह क्यों दिखाई देता है?’’

 

‘‘मैं सम झ रही हूं पर…’’

 

‘‘अपने मन से कांटा नहीं निकाल पा रही हो न? यह कांटा शिखा ने बोया है?’’

 

वह फिर चौंकी. नवीन को उस ने असहाय नजरों से देखा.

 

‘‘रूपा, कोईकोई मुरगी अंडा देने योग्य नहीं होती और वह दूसरी मुरगी का अंडा देना भी सहन नहीं कर पाती. कुछ औरतें भी ऐसी ही होती हैं, जो न तो अपने घर को बसा पाती हैं और न ही दूसरे के बसे घरों को सहन कर पाती हैं. उन्हें उन घरों को तोड़ने में ही सुख मिलता है. शिखा उन में से एक है और तुम उस की शिकार हो. उस ने चंद्रा का घर भी तोड़ने के कगार पर ला खड़ा किया था. मुश्किल से संभाला था उसे. अब उस के लिए वहां के दरवाजे बंद हैं तो तुम्हारे घर में घुस गई. तुम ही बताओ पहले कभी आती थी? अब बारबार क्यों आ रही है?’’

 

सिहर उठी रूपा. यह क्या भयानक भूल हो

 

गई है उस से… अपने सुखी जीवन में अपने हाथों ही आग लगाने चली थी. सुजीत जैसे पति पर संदेह. वह भी कब तक सहेंगे. उसे पापा, मां तो उसे एकदम सहारा नहीं देंगे…

 

फिर बोली, ‘‘भैया, शिखा तो बीमार है.’’

 

‘‘हां मानसिक रोगी तो है ही. पर तुम अपने को और अपने घर को बचाना चाहती हो तो अभी भी समय है संभल जाओ. सुजीत को अपने से उकताने पर मजबूर मत करो. जितना नुकसान हुआ है जल्दी उस की भरपाई कर लो.’’

 

‘‘वह मैं कर लूंगी पर आप…’’

 

‘‘मेरा तो दांपत्य जीवन कुछ है ही नहीं. घर भी नौकर के भरोसे चलता है और चलता रहेगा.’’

 

‘‘भैया, मैं कुछ करूं?’’

 

नवीन हंसा, ‘‘क्या करोगी? पहले अपना घर ठीक करो.’’

 

‘‘कर लूंगी पर आप के लिए भी सोचती हूं.’’

 

‘‘लो, सुजीत रबड़ी ले आया,’’ नवीन बोला.

 

शांति, प्यार, लगाव जो रूपा के हाथ से निकल रहे थे अब उस ने फिर उन्हें कस कर पकड़ लिया. मन ही मन शपथ ली कि अब सुजीत पर कोई संदेह नहीं करेगी. फिर सब से पहला काम उस ने जो किया वह था सुजीत को सब खुल कर बताना, वह सम झ गई थी कि लुकाछिपी करने से लाभ नहीं… जिस बात को छिपाया जाता है वह मन में कांटा बन कर चुभती है. और कोई भी बात हो एक न एक दिन खुलेगी ही. तब संबंधों में फिर से दरार पड़ेगी. इसलिए अपने मन में जन्मे विकार तक को साफसाफ बता दिया.

 

सारी बात ध्यान से सुन कर सुजीत हंसा,

 

‘‘मुझे पता था कि बेमौसम के बादल आकाश में ज्यादा देर नहीं टिकते. हवा का  झोंका आते ही उड़ जाते हैं. इसलिए तुम्हारे बदले व्यवहार से मैं आहत तो हुआ पर विचलित नहीं, क्योंकि मु झे पता था कि एक दिन तुम्हें अपनी भूल पर जरूर पछतावा होगा और तब सब ठीक हो जाएगा.’’

 

‘‘हमारा तो सब ठीक हो गया, पर नवीन भैया उन का क्या होगा?’’

 

‘‘शिखा के स्वभाव में परिवर्तन लाना नामुमकिन है.’’

 

‘‘नहीं, हमें कोशिश करनी चाहिए. नवीन भैया कितने अच्छे हैं.’’

 

‘‘बिगड़े संबंध को ठीक करने के लिए दोनों के स्वभाव में नमनीयता होनी चाहिए, जो शिखा में एकदम नहीं है.’’

 

‘‘फिर भी हमें प्रयास तो करना ही चाहिए,’’ रूपा ने कहा तो सुजीत चुप रहे.

 

फिर 3-4 दिन बाद रूपा ने दोनों को डिनर पर बुलाया. दोनों ही आए पर अलगअलग. रूपा फूंकफूंक कर कदम रख रही थी. शिखा को बोलने का मौका न दे कर स्वयं ही हंसे, बोले जा रही थी. जरा सी भी बात बिगड़ती देखती तो अपने बेटे को आगे कर देती. उस की मासूम बातें सब को मोह लेतीं. पूरा वातावरण खुशनुमा रहा. वैसे भी रूपा की आंखों से सुख, प्यार  झलक रहा था.

 

शिखा के मन में क्या चल रहा है, पता नहीं पर वह सामान्य थी. 2-4 बार मामूली मजाक भी किया. खाने के बाद सब गरम कौफी के कप ले कर ड्राइंगरूम में जा बैठे. बेटा सो चुका था.

 

बात सुजीत ने ही शुरू की, ‘‘यार काम, दफ्तर और घर इस से तो जीवन ही नीरस बन गया है. कुछ करना चाहिए.’’

 

नवीन ने पूछा, ‘‘क्या करेगा?’’

 

‘‘चल, कहीं घूम आएं. हनीमून में बस शिमला गए थे. फिर कहीं निकले ही नहीं.’’

 

‘‘हम भी शिमला ही गए थे. पर अब

 

कहां चलें?’’

 

रूपा ने कहा, ‘‘यह हम शिखा पर छोड़ते हैं. बोल कहां चलेगी?’’

 

शिखा ने कौफी का प्याला रखते हुए कहा, ‘‘शिमला तो हो ही आए हैं. गोवा चलते हैं?’’

 

रूपा उछल पड़ी, ‘‘अरे वाह, देखा मेरी सहेली की पसंद. हम तो सोचते ही रह जाते.’’

 

‘‘वहां जाने के लिए समय चाहिए, क्योंकि टिकट, ठहरने की जगह बुक करानी पड़ेगी. इस समय सीजन है… आसानी से कुछ भी नहीं मिलेगा और वह भी 2 परिवारों का एकसाथ,’’ नवीन बोला.

 

सुजीत ने समर्थन किया, ‘‘यह बात एकदम ठीक है. तो फिर?’’

 

‘‘एक काम करते हैं. मेरे दोस्त का एक फार्महाउस है. ज्यादा दूर नहीं. यहां से

 

20 किलोमीटर है. वहां आम का बाग, सब्जी की खेती, मुरगी और मछली पालन का काम होता है. बहुत सुंदर घर भी बना है और एकदम यमुना नदी के किनारे है. ऐसा करते हैं वहां पूरा दिन पिकनिक मनाते हैं. सुबह जल्दी निकल कर शाम देर रात लौट आएंगे.’’

 

रूपा उत्साहित हो उठी, ‘‘ठीक है, मैं ढेर सारा खानेपीने का सामान तैयार कर लेती हूं.’’

 

‘‘कुछ नहीं करना… वहां का केयरटेकर बढि़या कुक है.’’

 

शनिवार सुबह ही वे निकल पड़े. आगेपीछे 2 कारें फार्महाउस के

 

गेट पर रुकीं. चारों ओर हरियाली के बीच एक सुंदर कौटेज थी. पीछे यमुना नदी बह रही थी. बेटा तो गाड़ी से उतरते ही पके लाल टमाटर तोड़ने दौड़ा.

 

थोड़ी ही देर में गरम चाय आ गई. सुबह की कुनकुनी धूप सेंकते सब चाय पीने लगे. बेटे के लिए गरम दूध आ गया था.

 

रूपा ने कहा, ‘‘भैया, इतने दिनों तक हमें इतनी सुंदर जगह से वंचित रखा. यह तो अन्याय है.’’

 

नवीन हंसा, ‘‘मैं ने सोचा था ये सब फूलपौधे, नदी, हरियाली, कुनकुनी धूप हम मोटे दिमाग वालों के लिए हैं बुद्धिमानों के लिए नहीं.’’

 

‘‘ऐसे खुले वातावरण में सब के साथ आ कर शिखा भी खुश हो गई थी. उस के मन की खुंदक समाप्त हो गई थी. अत: वह हंस कर बोली, ‘‘तू सम झी कुछ? यह व्यंग्य मेरे लिए है.’’

 

सुजीत बोला, ‘‘तेरा दिमाग भी तो मोटा है… तू कितना आता है यहां?’’

 

‘‘जब भी मौका मिलता है यहां चला आता हूं. ध्यान से देखेगा तो मेरे लैंडस्केपों में तु झे यहां की  झलक जरूर दिखेगी… देख न यहां काम करने वाले सब मु झे जानते हैं.’’

 

शिखा चौंकी, ‘‘तो क्या कभीकभी जो देर रात लौटते हो तो क्या यहां आते हो?’’

 

‘‘हां. यहां आ कर फिर दिल्ली के हंगामे में लौटने को मन नहीं करता. बड़ी शांति है यहां.’’

 

‘‘तो तेरी कविताएं भी क्या यहीं की

 

उपज हैं?’’

 

‘‘सब नहीं, अधिकतर.’’

 

शिखा की आंखें फैल गईं, ‘‘क्या तुम कविताएं भी लिखते हो? मु झे तो पता ही नहीं था.’’

 

‘‘3 काव्य संग्रह निकल चुके हैं… एक पर पुरस्कार भी मिला है. तु झे पता इसलिए नहीं है, क्योंकि तू ने कभी जानने की कोशिश ही नहीं की कि हीरा तेरे आंचल से बंधा है. तेरी सौत कोई हाड़मांस की महिला नहीं यह कविता और चित्रकला है. इन के बाल नोच सके तो नोच. भैया ही कवि परिजात हैं, जिस की तू दीवानी है.’’

 

‘‘कवि परिजात?’’ प्याला छूट गया, उस

 

के हाथों से और फिर दोनों हाथों से मुंह छिपा कर रो पड़ी.

 

रूपा कुछ सम झाने जा रही थी मगर सुजीत ने रोक दिया. कान में कहा, ‘‘रोने दो… बहुत दिनों का बो झ है मन पर… अब हलका होने दो. तभी नौर्मल होगी.’’

 

थोड़ी देर में स्वयं ही शांत हो कर शिखा ने रूपा की तरफ देखा, ‘‘देख ले कितने धोखेबाज हैं.’’

 

रूपा यह सुन कर हंस पड़ी.

 

‘‘कितनी भी अकड़ दिखाओ शिखा पर प्यार तुम नवीन को करती ही हो… ये सारी हरकतें तुम्हारी नवीन को खोने के डर से ही थीं… पर उन्हें आप ने आंचल से बांधे रखने का रास्ता तुम ने गलत चुना था,’’ सुजीत बोला.

 

नवीन बोला, ‘‘छोड़ यार, अब हम

 

दूसरा हनीमून गोवा चल कर ही मनाते हैं…

 

जब भी टिकट और होटल में जगह मिलेगी तभी चल देंगे.’’

 

रूपासुजीत दोनों एकसाथ बोले,‘‘जय हो.’’

विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल मलोट

 

५)

द गर्ल हू काउंटेड द स्टार्स – द स्टोरी ऑफ कैथरीन जॉनसन

 विजय गर्ग 

1950 के दशक में, जब विज्ञान और गणित की दुनिया में लगभग पूरी तरह से पुरुषों का वर्चस्व था – और अलगाव अभी भी संयुक्त राज्य अमेरिका के अधिकांश हिस्सों में कानूनी था – कैथरीन जॉनसन नाम की एक युवा अफ्रीकी-अमेरिकी महिला नासा में चली गई और इतिहास बदल गया।

 

कैथरीन कम उम्र से ही संख्याओं के साथ शानदार थीं। 13 तक, वह पहले से ही हाई स्कूल में थी। 18 तक, उन्होंने गणित में सर्वोच्च सम्मान के साथ कॉलेज में स्नातक किया था। लेकिन एक ऐसी दुनिया में जो महिलाओं पर विश्वास नहीं करती थी – विशेष रूप से काली महिलाएं – वैज्ञानिक हो सकती हैं, उसकी सड़क कुछ भी आसान थी।

 

वह “कंप्यूटर” के रूप में नासा (फिर एनएसीए) में शामिल हो गई – एक मानव कैलकुलेटर। उसकी नौकरी? हाथ से उड़ान प्रक्षेपवक्र के लिए संख्याओं को क्रंच करना। लेकिन कैथरीन सिर्फ गणना करने के लिए संतुष्ट नहीं थी। उसने सवाल पूछे, गणित की जाँच की, और अक्सर अपने पुरुष सहयोगियों के काम में गलतियाँ पाई। एक दिन, जब पृथ्वी की परिक्रमा करने वाले पहले अमेरिकी जॉन ग्लेन लॉन्च की तैयारी कर रहे थे, तो उन्होंने एक सरल लेकिन शक्तिशाली अनुरोध पूछा:

 

“लड़की को नंबरों की जांच करने के लिए जाओ। अगर वह कहती है कि वे अच्छे हैं, तो मैं जाने के लिए तैयार हूं

 

वह लड़की कैथरीन थी। उनकी गणना ने जॉन ग्लेन को कक्षा में सुरक्षित रूप से भेजा और उन्हें वापस लाया। बाद में उसने चंद्रमा पर अपोलो 11 को उतारने में मदद की। अपने गणित के बिना, नासा का अंतरिक्ष कार्यक्रम कभी नहीं उठा होगा।

 

Matters उसकी कहानी मायने रखती है कैथरीन जॉनसन सिर्फ एक गणितज्ञ नहीं थीं – वह एक अग्रणी थीं जिन्होंने साबित कर दिया कि प्रतिभा का कोई लिंग या रंग नहीं है। उनके काम ने विज्ञान, प्रौद्योगिकी, इंजीनियरिंग और गणित (STEM) में महिलाओं और अल्पसंख्यकों के लिए दरवाजे खोल दिए। 2015 में, उन्हें राष्ट्रपति पद के स्वतंत्रता पदक से सम्मानित किया गया।

 

गणित केवल संख्याओं के बारे में नहीं है – यह बाधाओं को तोड़ने, वास्तविक समस्याओं को हल करने और दुनिया को बदलने के बारे में है। विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्राचार्य शैक्षिक स्तंभकार प्रख्यात शिक्षाविद् स्ट्रीट कौर चंद एमएचआर मलोट पंजाब

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पत्र सूचना कार्यालय द्वारा ‘काशी तमिल संगमम 4.0’ के आयोजन के क्रम में वाराणसी में ‘वार्तालाप कार्यक्रम’ (मीडिया कार्यशाला) का किया गया आयोजन

दिसम्बर 7, 2025

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