भारत में अपने जलवायु लक्ष्यों को पूरा करने और दूसरे देशों को उनके लक्ष्यों को पूरा करने में मदद करने की क्षमता है
सुमैरा अब्दुलाली
IPCC की रिपोर्ट चेतावनी देती है कि अगर दुनियाभर में CO2 का उत्सर्जन (Carbon Emmisions) मौजूदा दरों पर जारी रहा तो ग्लोबल वार्मिंग (Global Warming) को 1.5 डिग्री सेल्सियस पर ही रोकने के लिए बचा हुआ कार्बन बजट 2030 से पहले खत्म हो जाएगा. 2030 केवल 8 साल दूर है. इस बीच भारत (India) अब से 48 साल बाद 2070 तक नेट-जीरो उत्सर्जन (Net Zero Emissions) हासिल करने का लक्ष्य प्राप्त करने के लिए प्रतिबद्ध है. लेकिन इस लक्ष्य को पाने के लिए कोयले पर निर्भरता कम करने, निजी वाहनों को कम करने या जैव विविधता वाले जंगलों (Biodiversity Forests) की रक्षा करने के लिए कोई प्रारंभिक तिथि तय नहीं की गई है.
मल्टी-मॉडल कनेक्टिविटी के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का पीएम गति शक्ति-राष्ट्रीय मास्टर प्लान बड़े पैमाने पर नए सीमेंट-कंक्रीट के इंफ्रास्ट्रक्चर के लिए $1 ट्रिलियन (100 लाख करोड़) रुपए जुटाने पर फोकस कर रहा है. वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण का बजट नई सड़कों के लिए 20,000 करोड़ रुपये जुटाएगा. इसके विपरीत, सीतारमण की बजट स्पीच में पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन की रक्षा के लिए किसी विशेष बजट की घोषणा नहीं की गई थी. 2021-22 के लिए भारत का पर्यावरण बजट 2020-21 के 3,100 करोड़ रुपये के बजट से घटाकर 2,870 करोड़ रुपये कर दिया गया.
1 ट्रिलियन डॉलर के सीमेंट-कंक्रीट की इमारतों से जलवायु परिवर्तन पर पड़ने वाले प्रतिकूल प्रभावों को कम करने के लिए यह प्रावधान पर्याप्त नहीं हैं. IPCC की रिपोर्ट कहती है कि पूरे उत्सर्जन का 15 प्रतिशत केवल ट्रांसपोर्ट सेक्टर से होता है. यह बताता है कि “2020 से लागू COVID-19-प्रेरित आर्थिक लॉकडाउन का परिवहन उत्सर्जन पर किसी भी अन्य क्षेत्र की तुलना में बहुत अधिक प्रभाव पड़ा है.” निजी वाहनों के इस्तेमाल को कम करने के तत्काल फायदों को देखते हुए दुनिया के कई देश निजी वाहनों से सार्वजनिक परिवहन (पब्लिक ट्रांसपोर्ट) और साइकिलिंग आदि की ओर बढ़ रहे हैं. भारत भी इलेक्ट्रिक वाहनों को प्रोत्साहित कर रहा है.
मुंबई कोस्टल रोड को बताया गया था नुकसानदेह
हालांकि भारत की बिजली में कोयले की प्रधानता बनी हुई है. स्टडी से पता चला है कि जब इलेक्ट्रिक व्हीकल भारत में कोयले से चलने वाले होते हैं तो उत्सर्जन को केवल ट्रांसपोर्ट सेक्टर से एनर्जी सेक्टर में ट्रांसफर किया जाता है जिसमें बहुत कम फायदा होता है. वहीं, निर्माण की जा रही नई सड़कों के विशाल नेटवर्क के जरिए से निजी वाहनों को और प्रोत्साहित किया जा रहा है. इनमें से कुछ सड़कें न केवल जंगलों और तटों सहित इकोसिस्टम को नष्ट करती हैं बल्कि खासतौर से केवल निजी कारों को एक्सेस की परमीशन देती हैं. मार्च 2022 में IPCC द्वारा मुंबई कोस्टल रोड को जलवायु परिवर्तन के लिए नुकसानदेह कहा गया था.
IPCC रिपोर्ट वनों के महत्व और बड़े पैमाने पर जैव विविधता हानि, पर्यावरण को हो रहे नुकसान और संबंधित परिणामों की संभावना पर जोर देती है. भारत दुनिया के सबसे ज्यादा जैव विविधता पाए जाने वाले देशों में से एक है. यूनेस्को ने पारिस्थितिकी तंत्र और स्थानिक प्रजातियों के आधार पर कई विश्व जैव विविधता को यहां मान्यता दी है जो कहीं और नहीं पाई जाती हैं. हालांकि भारतीय पर्यावरण कानूनों में परिवर्तन और प्रस्तावित परिवर्तन वन संरक्षण अधिनियम, तटीय विनियमन क्षेत्र नियम और पर्यावरणीय प्रभाव आकलन अधिसूचना कई प्रमुख पर्यावरणीय सुरक्षा उपायों को कमजोर करते हैं.
जैवविविधता वनों में चालीस नए कोयला ब्लॉक प्रस्तावित हैं. कॉर्बेट टाइगर रिजर्व और हिमालय में देहरादून में एक एलिफेंट कॉरिडोर, पश्चिमी घाट में मोल्लेम राष्ट्रीय उद्यान, अंडमान और निकोबार कोरल रीफ हमारे पूर्वी तट से दूर हैं जहां सीमेंट-कंक्रीट इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट बनाए जाने की योजना है. इनमें हाईवे, सड़कें, रेलवे, बंदरगाह और हवाई अड्डे शामिल हैं. उत्तर पूर्व के प्राचीन जंगलों को ताड़-तेल (पाम-ऑयल) की खेती से बदलने की मांग की गई है. इनमें से कई परियोजनाओं का स्थानीय लोगों ने विरोध किया है. भारत में दुनिया में कहीं और से ज्यादा युवा लोगों ने जलवायु परिवर्तन के प्रति अपनी चिंता और पर्यावरण की विनाशकारी नीतियों के खिलाफ विरोध प्रदर्शन किया है.
तापमान में वृद्धि को रोकने के लिए शून्य उत्सर्जन जरूरी
IPCC का कहना है कि जलवायु के प्रति नागरिक और निजी जुड़ाव में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है. संयुक्त राष्ट्र ने दुनिया के भविष्य निर्धारण में युवाओं के महत्व को पहचाना है. दुर्भाग्य से भारत में यह स्थिति नहीं है. लॉकडाउन के दौरान युवा समूहों को उनके विरोध प्रदर्शन के लिए सोशल मीडिया पर ब्लॉक कर दिया गया था और व्यक्तिगत कार्यकर्ताओं को निशाना बनाया गया था. IPCC का कहना है कि 2019 में इतिहास का सबसे ज्यादा उत्सर्जन दर्ज किया गया था. तापमान में वृद्धि को रोकने के लिए हालांकि उत्सर्जन शून्य होना चाहिए. रिपोर्ट में चेतावनी दी गई है कि उत्सर्जन के नेट-जीरो लक्ष्य को पाने की बात तो की जा रही है लेकिन उन्हें प्राप्त करने के लिए आवश्यक नीतियां अभी तक लागू नहीं हैं.
2070 में नेट-जीरो उत्सर्जन के लिए भारत की प्रतिबद्धता के साथ-साथ हम भारी उत्सर्जन करने वाले इंफ्रास्ट्रक्चर में निवेश भी कर रहे हैं. लोग भूस्खलन, तूफान और सूखे जैसी गंभीर जलवायु घटनाओं का लगातार सामना कर रहे हैं जो वैश्विक जलवायु संकट (Global Climate Crisis) की ओर इशारा करती है. कोविड-19 लॉकडाउन ने हमें एक दूसरी तस्वीर दिखाई. प्रदूषणकारी गतिविधियों के रुकने का अंतर दिखाई देने लगा. दुनिया भर के प्रमुख शहरों में लोगों ने नीले आसमान और स्वच्छ हवा का अनुभव किया. पंजाब से हिमालय दिखाई दे रहा था और मुंबई की सड़कों पर मोर दिखाई दे रहे थे.
उत्सर्जन को 2030 तक कम करने का लक्ष्य
कई आम लोगों ने अपने बच्चों और पोते-पोतियों के भविष्य को लेकर गहरी चिंता व्यक्त की है जो जलवायु परिवर्तन की भयावह दुनिया में रहेंगे. आईपीसीसी का कहना है, ‘हमारी जलवायु हमारा भविष्य है. हमारा भविष्य हमारे हाथ में है.’ हालांकि भारत ने रिन्यूएबल एनर्जी सेक्टर सहित और इलेक्ट्रिक वाहनों को प्राथमिकता देकर सही दिशा में कई कदम उठाए हैं लेकिन इसकी समय-सीमा आईपीसीसी की चेतावनियों के मुताबिक नहीं है कि उत्सर्जन को 2030 तक कम किया जाना चाहिए.
IPCC की रिपोर्ट हमें बताती है कि अगर उत्सर्जन जारी रहा तो हमारा कार्बन बजट 2030 से पहले समाप्त हो जाएगा. लेकिन भारत न केवल इसे जारी रख रहा है बल्कि कोयले के बढ़ते इस्तेमाल, जंगलों के विनाश और निजी वाहनों के इस्तेमाल के लिए सड़कों के निर्माण के जरिए सक्रिय रूप से 2030 से पहले उत्सर्जन में तेजी ला रहा है. लेकिन विनाशकारी जलवायु घटनाओं और मानव जाति के लिए एक संभावित खतरे के बीच जीवन यूं ही चलता रहता है.
(लेखक आवाज फाउंडेशन की संयोजक हैं)
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