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गुम होता बचपन

गुम होता बचपन
विजय गर्ग
अक्सर कहते सुना जाता है कि आजकल बच्चे जल्द ही सयाने हो रहे हैं। यह सुनना थोड़ा सुखद भी लगता है कि बच्चे अब जल्दी समझदार हो रहे हैं। लेकिन इस उक्ति के पीछे छिपा सच बड़ा ही भयावह और दुखद है। सच यह कि आज बच्चों से उनका बचपन छिन रहा है। कम उम्र में ही बच्चों में ‘दुनियादारी’ की समझ अपने आप आ रही है या जबरन दी जा रही, यह विमर्श का विषय हो सकता है । पर दुनियादारी की इस समझ से बच्चों के बचपन का नैसर्गिक रंग लुप्त हो रहा है। अलसुबह घर से स्कूल जाना, फिर स्कूल से लौटकर होमवर्क पूरा करने में जुट जाना और इससे अगर कुछ समय बचा, तो टीवी के सामने बैठकर अपनी पसंद का कार्यक्रम देखना | बच्चों की दिनचर्या इसी में समाप्त हो जाती है। रही-सही कसर मोबाइल पूरा कर देता है । इस तयशुदा या तैयार दिनचर्या में जकड़े बच्चों से अगर अपेक्षा की जाए कि स्कूली ज्ञान से इतर भी उनका बौद्धिक विकास हो, तो यह बेमानी होगी। आज के बच्चों को गमले में लगे उस पौधे की तरह बना दिया गया है, जिसने धूप की तपिश, मूसलाधार बारिश और कड़ाके की ठंड को नहीं झेला और जिनमें तेज आंधी-तूफान के सामने डटकर खड़ा रहने की क्षमता नहीं है । फिर ये बच्चे अपने जीवन के झंझावात से कैसे मुकाबला करेंगे?
एक अच्छा, समझदार और जिम्मेदार इंसान बनने के लिए जरूरी है कि वह जीवन के यथार्थ को जाने-समझे और विपरीत स्थितियों से मुकाबला करने के लिए आत्मबल रखे। किसी भी कार्यक्षेत्र में व्यक्ति के सफल होने के लिए पहली शर्त होती है कि वह एक बेहतर इंसान हो। अगर धातु अच्छी होगी, तो उससे बना हर सामान मजबूत और टिकाऊ होगा। अगर लोहा अच्छी गुणवत्ता का और मिलावट रहित है, तो उससे बनी सुई भी मजबूत होगी और तलवार भी धारदार होगी। इसी तरह अगर बच्चे सुसंस्कृत, सभ्य, साहसी, कर्मठ और ईमानदार होंगे, तो बड़ा होकर वे किसान बनें या फिर कोई उद्यमी या राजनेता, वे जिस पद पर या जिस कार्य क्षेत्र में रहेंगे, वहां बेहतर ही करेंगे। इसलिए पहली प्राथमिकता होनी चाहिए कि बच्चे सबसे पहले अच्छे इंसान बनें, उनमें संवेदना हो, समाज और देश के प्रति वे अपनी जिम्मेदारी को समझें। यह तभी होगा, जब बच्चे स्कूल और किताबों से इतर बाहरी दुनिया से रूबरू होंगे। जब वे बाल सुलभ गलतियां करेंगे, तो उससे सीखेंगे भी और वे आगे उस तरह की गलतियों से बचने की कोशिश करेंगे।
बच्चों से बचपन छिन जाना एक नैतिक अपराध जैसा है। असल में बच्चों से बचपन छिन जाने के पीछे एक बड़ा कारण उनके माता-पिता की बढ़ती महत्त्वाकांक्षा है। बच्चों के माता- पिता अपनी महत्त्वाकांक्षाओं का भारी बोझ बच्चों पर डाल देते हैं। ऐसा कहा जाता है कि माता-पिता की जो हसरतें पूरी नहीं होतीं, वे बच्चों के माध्यम से पूरी करना चाहते हैं। ऐसे में बचपन की दहलीज पर ही माता-पिता अपने बच्चों की पीठ पर अपनी उम्मीदों की बड़ी गठरी डाल देते हैं। फिर बच्चों से उनका बचपन तो छिन ही जाता है, उम्मीदों की गठरी से दबकर उनका भविष्य भी प्रभावित होता है। कोई भी पौधा बड़ा होकर एक स्वस्थ और छतनार वृक्ष का रूप तभी ले पाता है, जब वह स्वाभाविक और प्राकृतिक रूप से बड़ा होता है। जिस पौधे को नैसर्गिक वातावरण नहीं मिला, वह कभी भी स्वस्थ पेड़ नहीं बन सकता ।
बच्चों के साथ भी ऐसी ही बातें हैं। बच्चों को भी अगर स्वच्छ और स्वछंद माहौल मिलेगा, तभी वे स्वस्थ सोचवाले बेहतर इंसान बनेंगे। इसलिए बच्चों पर उतनी पाबंदी ही लगानी चाहिए, जितनी उनके भटकाव को रोकने के लिए जरूरी हो । ज्यादा पाबंदियों से बच्चों के बचपन पर असर पड़ सकता है। कुछ माता-पिता अपने बच्चों की शिक्षा और उनके स्कूल को अपनी हैसियत का प्रतीक बना लेते हैं। ऐसे लोगों को अपने मित्रों, सहकर्मियों और रिश्तेदारों के बीच अक्सर अपने बच्चों के स्कूलों और उनकी शिक्षा को काफी उत्कृष्ट बताकर चहकते हुए देखा जाता है। अपने बच्चों की अच्छी शिक्षा पर हर माता-पिता को गर्व होता है। लेकिन बच्चों की शिक्षा और उनके महंगे स्कूल की नुमाइश करना अच्छी बात नहीं, इससे बचना चाहिए। ऐसे ही लोग अपनी शान दिखाने के लिए अपने बच्चों पर पढ़ाई का अतिरिक्त दबाव बनाते हैं। उनके दबावों से बच्चे अतिरिक्त सफलता तो हासिल नहीं कर पाते, हां वे अवसाद के शिकार जरूर हो जाते हैं। जीवन की बुनियाद बचपन में ही पड़ती है, यह बुनियाद जितनी मजबूत होगी, जीवन उतना ही सफल होगा।
जब बच्चों पर अनावश्यक रूप से दबाव डाला जाता है, तो उनका बचपन तो बदरंग हो ही जाता है, उससे उनका जीवन भी प्रभावित होता है। माता-पिता के लिए यह भी जरूरी है कि बच्चों को मानसिक और भावनात्मक रूप से मजबूत बनाया जाए, क्योंकि जो बीज बच्चों के मन- मस्तिष्क में डाले जाते हैं, बच्चों के व्यक्तित्व के विकास में उसका बहुत प्रभाव होता है। अगर बचपन सिर्फ किताबों और टीवी पर प्रसारित मनोरंजक कार्टून तक सिमट कर रह जाएगा, तो उनमें न तो संवेदना का विकास हो पाएगा और न ही उनमें करुणा के भाव उत्पन्न होंगे। जबकि, एक अच्छा इंसान बनने के लिए उनमें करुणा और संवेदना के भाव जरूरी हैं। ये भाव स्वछंद और नैसर्गिक बाल-मन में ही उत्पन्न हो सकते हैं। बचपन जीवन का वह कालखंड होता, जिसमें बच्चों का मानसिक, शैक्षणिक, सामाजिक और भावनात्मक विकास होता है। जीवन के इस स्वर्णिम काल में न तो चिंता होती है, न ही कोई दायित्व का कोई बड़ा दबाव। अगर बच्चों को इस अनमोल काल से वंचित रखा जाता है, तो यह उनके साथ अन्याय करने से कम नहीं है।

विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल शैक्षिक स्तंभकार स्ट्रीट कौर चंद एमएचआर मलोट पंजाब

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