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अनदेखी से बिगड़ती पारिस्थितिकी

अनदेखी से बिगड़ती पारिस्थितिकी

विजय गर्ग
पर्यावरण को भारी नुकसान और जलवायु परिवर्तन के चलते दुनिया का ध्यान लगातार भविष्य की गंभीर चुनौतियों की ओर बना हुआ है। भारी विनाश के आसार नज़र आने के बावजूद, ‘स्टैटिस्टिकल रिव्यू आफ वर्ल्ड एनर्जी’ के एक ताजा अध्ययन में खुलासा हुआ है कि जीवाश्म ईंधनों की खपत और ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन उच्च स्तर पर पहुंच चुका है। हालांकि अक्षय ऊर्जा स्रोतों में हुई वृद्धि के कारण वैश्विक ऊर्जा क्षेत्र में जीवाश्म ईंधनों की हिस्सेदारी में मामूली गिरावट आई है। वैश्विक प्राथमिक ऊर्जा की खपत अब तक के सबसे ऊंचे स्तर 620 एक्साजूल पर पहुंच गई गई है। पहली बार कार्बन डाई आक्साइड का उत्सर्जन 40 गीगाटन के पार चला गया है। यह रपट विश्वमंच और पर्यावरण विश्लेषकों को यह समझने में मदद करती है कि निकट भविष्य की चुनौतियां कितनी भयावह हैं।
वैश्विक तापमान में एक में एक डिग्री का हर अंश प्राकृतिक प्रणालियों, मानव समाजों और अर्थव्यवस्थाओं के लिए के लिए महत्त्वपूर्ण और दूरगामी परिणाम उत्पन्न सकता कर है। । वैश्विक तापमान वृद्धि को 1 सीमित करने के लिए 2022 के स्तर से 11.5 डिग्री सेल्सियस तक डाइआक्साइड उत्सर्जन में लगभग 37 गीगाटन की कटौती करने और 2050 तक ऊर्जा क्षेत्र में शुद्ध- शून्य उत्सर्जन प्राप्त करने की आवश्यकता है। कुछ प्रगति के बावजूद, ऊर्जा संक्रमण प्रौद्योगिकियों की वर्तमान तैनाती और इस सदी के अंत तक वैश्विक तापमान वृद्धि को पूर्व-औद्योगिक स्तरों के 1.5 डिग्री सेल्सियस के भीतर सीमित करने के पेरिस समझौते के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए आवश्यक स्तरों के बीच महत्त्वपूर्ण अंतर बना हुआ है। 1.5 डिग्री सेल्सियस के अनुकूल मार्ग मार्ग के लिए समाज द्वारा ऊर्जा के उपभोग और उत्पादन के तरीके व्यापक परिवर्तन की आव आवश्यकता है।
दीर्घकालिक निम्न ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन विकास रणनीतियां और शुद्ध-शून्य लक्ष्य, अगर पूरी तरह से क्रियान्वित किए जाते हैं, तो 2022 के स्तर की तुलना में 2030 तक कार्बन उत्सर्जन में छह फीसद और 2050 तक 56 फीसद की कमी आ सकती है। हालांकि, अधिकांश जलवायु प्रतिज्ञाओं को अभी विस्तृत राष्ट्रीय रणनीतियों और योजनाओं में तब्दील और क्रियान्वित किया जाना है, जिसके लिए पर्याप्त आर्थिक संसाधन चाहिए। नियोजित ऊर्जा परिदृश्य के अनुसार, ऊर्जा से संबंधित उत्सर्जन अंतर 2050 तक 34 गीगाटन तक पहुंचने का अनुमान है। डेढ़ डिग्री सेल्सियस पर बने रहने के लिए हर साल करीब एक हजार गीगावाट अक्षय ऊर्जा की जरूरत होती है। दो साल । दो साल पहले वैश्विक स्तर पर 300 गीगावाट अक्षय ऊर्जा जोड़ी गई, जो नई क्षमता का 83 फीसद है, जबकि जीवाश्म ईंधन और परमाणु ऊर्जा लिए संयुक्त हिस्सेदारी 17 फीसद है। अक्षय ऊर्जा की मात्रा और हिस्सेदारी दोनों में पर्याप्त वृद्धि की जरूरत है, है, जो तकनीकी रूप से संभव है।
करीब सन 2022 में रेकार्ड अक्षय ऊर्जा क्षमता में वृद्धि हुई, इस वर्ष जीवाश्म ईंधन सबसिडी का उच्चतम स्तर भी देखा गया, क्योंकि कई सरकारों ने उपभोक्ताओं और व्यवसायों के लिए उच्च ऊर्जा कीमतों के झटके को कम करने की कोशिश की। सभी ऊर्जा संक्रमण प्रौद्योगिकियों में वैश्विक निवेश 2022 में 1.3 ट्रिलियन अमेरिकी डालर के उच्च स्तर पर पहुंच गया, फिर भी जीवाश्म ईंधन में पूंजी निवेश अक्षय ऊर्जा निवेश से लगभग दोगुना था। जलवायु प्रतिबद्धताओं को पूरा करने के लिए अक्षय ऊर्जा और ऊर्जा दक्षता के साथ-साथ ऊर्जा सुरक्षा और ऊर्जा सामर्थ्य उद्देश्यों को पूरा करने के लिए सबसे अच्छी स्थिति में होने के कारण, सरकारों को यह सुनिश्चित करने के लिए कि निवेश सही रास्ते पर हैं, अपने प्रयासों को दोगुना करने की आवश्यकता है।
ऊर्जा संक्रमण संकेतक ऊर्जा क्षेत्रों और प्रौद्योगिकियों में महत्त्वपूर्ण तेजी की आवश्यकता दर्शाते हैं। भविष्य में ये स्थितियां निवेश की जरूरतों और जलवायु परिवर्तन के बिगड़ते प्रभावों की लागत को भी बढ़ाएंगी। दूसरी ओर, अक्षय ऊर्जा के उत्पादन में वृद्धि के बावजूद जीवाश्म ईंधनों की बढ़ती मांग भी गंभीर चिंता का विषय है। इससे पता चलता है कि स्वच्छ ऊर्जा की बढ़ती मांग का मुकाबला दुनिया नहीं कर रही है। यानी ग्लोबल वार्मिंग को सीमित करने की दिशा में दुनिया को ऊर्जा उत्पादन में जिस बदलाव की जरूरत है, उसकी गति अब भी अपेक्षित नहीं है।
महा जानकार, जीवाश्म ईंधनों के इस्तेमाल गिरावट न आने पर चिंता जताते हुए बताते हैं कि एक ऐसे वर्ष में, जहां हमने अक्षय ऊर्जा स्रोतों के योगदान को रेकार्ड स्तर बढ़ते देखा, दुनिया में ऊर्जा की मांग का स्तर भी पहले से कहीं ज्यादा बढ़ा है। इसका मतलब है कि जीवाश्म ईंधनों से प्राप्त ऊर्जा के हिस्से में कोई बदलाव नहीं आया है। भारत ऊर्जा मिश्रण में कोयले | की हिस्सेदारी करीब 55 फीसद है। भारत इसे अपने लिए सबसे अहम जीवाश्म ईंधन बताता है, क्योंकि देश में कोयले का बड़ा भंडार है। भारत ने सौर और पवन ऊर्जा में काफी विकास किया है, लेकिन ऊर्जा क्षेत्र में इनकी भागीदारी अब भी काफी कम है।
एक सच्चाई यह भी है कि दुनिया में जीवाश्म ईंधनों का इस्तेमाल एक जैसा नहीं है। मसलन, यूरोप में जीवाश्म ईंधन की खपत का रुझान बदल रहा है। औद्योगिक क्रांति के से पहली बार यहां जीवाश्म ईंधनों से मिलने वाली ऊर्जा स्तर 70 फीसद से नीचे रहा है। इसकी एक वजह यूक्रेन पर रूसी हमले के बाद रूसी गैस की खपत में आई कमी भी है। जर्मनी का कार्बन उत्सर्जन सात दशक में सबसे कम रहा है और कोयले की कम खपत ने इसमें बड़ी भूमिका निभाई है। अमेरिका में भी कोयले के इस्तेमाल में 17 फीसद तक की गिरावट आई है। भारत में जीवाश्म ईंधनों का इस्तेमाल बढ़ा है और इनकी कुल खपत में आठ फीसद की वृद्धि हुईं । में ऊर्जा की बढ़ी मांग का तकरीबन पूरा हिस्सा जीवाश्म ईंधन आधारित ऊर्जा से पूरा हो रहा है।
चीन में एक ओर जहां सौर और पवन ऊर्जा के क्षेत्र में काफी काम हुआ, वहीं पिछले वर्ष तक यहां भी जीवाश्म ईंधनों का उपभोग छह फीसद बढ़ा है। हालांकि, अक्षय ऊर्जा स्रोतों चीन के बड़े निवेश में जानकार काफी संभावनाएं देखते हैं। पिछले वर्ष
वर्ष दुबई जलवायु सम्मेलन में अंतरराष्ट्रीय समुदाय पहली बार तेल, , गैस और कोयले से दूरी बनाने पर सहमत हुआ था। इस बात पर भी सहमति बनी कि सदस्य देशों को 2030 तक वैश्विक स्तर पर अक्षय ऊर्जा क्षमता को तीन गुना करने और उसी अवधि के भीतर ऊर्जा दक्षता की दर को दोगुना करने का प्रयास करना चाहिए। 2050 तक, शुद्ध कार्बन उत्सर्जन को शून्य तक कम किया जाना चाहिए। इस प्रकार जीवाश्म ईंधन युग के अंत की शुरुआत को चिह्नित किया और मान्यता दी कि नवीकरणीय ऊर्जा जलवायु कार्रवाई और जलवायु न्याय के लिए वैश्विक समाधान है। सवाल है कि उस जलवायु सम्मेलन के निर्णयों की दिशा में अब तक कैसी पहल हो सकी है। बदलती जलवायु, धूसर पर्यावरण, मानसूनी विचलनों के बीच इस बार की गर्मी ने कहर बरपा दिए। तब भी आंखें खुल जाएं तो गनीमत है।

विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल शैक्षिक स्तंभकार मलोट पंजाब

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