आज मनुष्य में अहंकार, बल, घमंड, कामना, क्रोध और दूसरों की निंदा करने की भावना लगातार प्रबल होती जा रही है, जो मनुष्य के लिए ठीक नहीं है। मनुष्य में इन सभी दुर्गुणों के कारण ही आज मनुष्य का साक्षात्कार ईश्वर से नहीं हो पा रहा है। वास्तव में ये सभी मनुष्य के पतन का सबसे बड़ा कारण बनते हैं।गीता में कहा गया है -‘अहंकारं बलं दर्पं कामं क्रोधं च संश्रिताः। मामात्मपरदेहेषु प्रद्विषंतोअभ्यसूयकाः।’ मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु तो अहंकार ही है। आज मनुष्य धन, पद-प्रतिष्ठा और यश पाकर अहंकारी होने लगता है। वह किसी दूसरे व्यक्ति को कुछ भी नहीं समझता है और यह सोचने लगता है उससे बड़ा(धन,पद, प्रतिष्ठा और यश में) दुनिया में कोई और नहीं। मनुष्य में जब अहंकार की भावना प्रबल होने लगती है तो मनुष्य का जीवन जटिलता की ओर बढ़ने लगता है। कहना ग़लत नहीं होगा कि अहंकार मनुष्य के जीवन को बहुत ज्यादा संघर्षपूर्ण बना देता है। अहंकार के कारण मनुष्य का व्यक्तिगत जीवन तो प्रभावित होता ही है, साथ ही साथ समाज और संस्कृति पर भी इसका गहरा असर पड़ता है। सच तो यह है कि यह अहंकार ही होता है जो मनुष्य जीवन से खुशियां छीन लेता है। वास्तव में स्वयं को हमेशा दूसरों से बेहतर मानना, सबसे अलग मानना, अहम् की भावना ही तो अहंकार है। मनुष्य की यह एक बड़ी कमी है कि वह स्वयं को सर्वोच्च और अनमोल समझने लगता है। अहंकार में आकर मनुष्य सिर्फ़ और सिर्फ़ अपने बारे में ही सोचता है और मनुष्य अन्य लोगों के व्यक्तित्व और उनके दृष्टिकोण को नजरंदाज कर देता है। सरल शब्दों में कहें तो अहंकार स्वयं को दूसरों से श्रेष्ठ मानने के कारण उत्पन्न हुआ एक व्यवहार है। वास्तव में एक अहंकारी व्यक्ति स्वयं को ही सर्वज्ञ व सर्वगुणसंपन्न समझने लगता है।वह सीखने का प्रयास नहीं करता और इस कारण से वह निरंतर सीखते रहने की प्रक्रिया से कट जाता है और वास्तव में अल्पज्ञ व अनुभवहीन बना रहता है। कहना ग़लत नहीं होगा कि अहंकार व्यक्ति को उसकी वास्तविकता से दूर कर देता है। सच तो यह है कि अहंकार मनुष्य में एक प्रकार की आसुरी प्रवृत्ति है, जो मनुष्य को निकृष्ट एवं पाप कर्म करने की ओर अग्रसर करता है। अहंकार मनुष्य जीवन में उन्नति की सबसे बड़ी बाधा है।एक अहंकारी और दंभी मनुष्य परिवार और समाज को अधोगति की ओर ले जाता है।जब किसी व्यक्ति में अहंकार की भावना घर कर जाती है तो वह अपनी गलतियों को स्वीकार करने में असमर्थ होता है। बड़े ही सुन्दर शब्दों में हम अहंकार (बड़प्पन) को एक दोहे के माध्यम से बखूबी समझ सकते हैं।एक दोहे में क्या खूब कहा गया है-‘औघट घाट पखेरुवा, पीवत निरमल नीर।गज गरुवाई तैं फिरै, प्यासे सागर तीर॥’ इसका सीधा सा तात्पर्य यह है कि-‘ उथले या कम गहरे घाटों पर भी पक्षी तो निर्मल पानी पी लेते हैं, पर हाथी बड़प्पन के कारण समुद्र के तट पर भी (जहाँ पानी गहरा न हो) प्यासा ही मरता है।’ कहना ग़लत नहीं होगा कि यह मनुष्य का अहंकार ही होता है जिसके कारण से न केवल उसके व्यक्तिगत जीवन में संघर्ष और कठिनाईयां बढ़तीं है बल्कि उसके सामाजिक संबंध भी बिगड़ने लगते हैं। एक अहंकारी और दंभी व्यक्ति कभी भी अपनी कमजोरी या गलती मानने को लिए तैयार नहीं होता और यही कारण है कि उसे हमेशा दूसरों की आलोचनाओं का लगातार सामना करना पड़ता है। कहना ग़लत नहीं होगा कि जब मनुष्य के मन में ‘मैं’ की भावना पैदा हो जाती है, तो वह ‘मैं’ की भावना उसे प्रभु से दूर ले जाती है। हमें यह चाहिए कि हम अपने अंदर सद्गुणों को विकसित करें, क्यों कि मनुष्य की सबसे बड़ी पूंजी सद्गुण हैं। दया, संतोष,शील, परोपकार, त्याग, सहिष्णुता,संयम,नम्र वाणी सद्गुण हैं,जो मनुष्य को ऊंचाइयों पर ले जाने की अभूतपूर्व क्षमताएं रखते हैं।वहीं दूसरी ओर काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार ये सब हमें डस लेते हैं। इनसान अहंकार में सच्चाई से बहुत दूर चला जाता है। याद रखिए कि मनुष्य जीवन में नम्रता बहुत जरूरी है। अहं किसी भी व्यक्ति को ईर्ष्या और द्वेष का शिकार बना सकता है। जब कोई व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति को नीचे गिराने की कोशिश करता है तो उसकी आत्मिक शांति समाप्त हो जाती है। मनुष्य को यह बात अपने जेहन में रखनी चाहिए कि फल पेड़ का कर्म है, वैसे ही मनुष्य का आचार ही उसके जीवन का फल है। बहरहाल, पाठकों को जानकारी देना चाहूंगा कि संस्कृत में बड़े ही खूबसूरत शब्दों में कहा गया है कि-‘अहंकारः सदा त्याज्यः साक्षात् नरकस्य कारणम्।’ इसका तात्पर्य यह है कि ‘अहंकार अर्थात् घमंड का सर्वथा त्याग कर देना चाहिए। नहीं तो यह नरक ले जाने वाला होता है।’ वास्तव में मनुष्य कर्तव्यनिष्ठ हो, विनम्र हो, चरित्रवान हो, उदार हो तथा परिश्रमी हो, अहंकार तो रावण का भी टूट गया था। वास्तव में जिस मनुष्य की इन्द्रियाँ और मन वश में है वह सारे संसार का राज्य कर सकता है।आचार्य चाणक्य के अनुसार जिस व्यक्ति के पास ज्ञान की कमी है, लेकिन उसका स्वभाव अच्छा है, तो ऐसे व्यक्ति को समाज में बहुत सम्मान मिलता है। इतना ही नहीं,जिस व्यक्ति के पास दया भाव होता है, वो व्यक्ति ईश्वर के बहुत करीब होते हैं. ऐसे व्यक्ति हर जगह खुशी फैलाते हैं और लोगों के चेहरे पर मुस्कान भी लाते हैं। वास्तव में मनुष्य का जीवन संयमित होना चाहिए। संयमित जीवन से तात्पर्य है मनुष्य की भलाई, आत्म-खोज और एक सार्थक और पूर्ण अस्तित्व की खोज के लिए एक समग्र प्रतिबद्धता। संयमित जीवन हमें जीवन के प्रति सकारात्मक बनाता है।सच तो यह है कि संयमित जीवन जीने से आत्म-चिंतन और आत्मनिरीक्षण का एक अनूठा अवसर मिलता है। बहरहाल,अहंकार हमेशा डर की जगह से आता है; प्रशंसा न मिलने का डर, सत्ता खोने का डर, पसंद न किए जाने का डर, या गलती करने का डर। कहना ग़लत नहीं होगा कि अहंकार सचमुच तुलना करके जीता है। जब हम किसी से ईर्ष्या करते हैं, तो यह हमारा अहंकार ही होता है। जब हम बीच में बोलते हैं और खराब श्रोता होते हैं, तो यह भी हमारा अहंकार ही होता है। जब हम किसी का ध्यान आकर्षित करने के लिए लालायित होते हैं, तो यह भी हमारा अहंकार है। इसलिए हमें यह चाहिए कि हम हर हाल में अहंकार से बचें और संयमित जीवनशैली और सद्गुणों को अपनाकर जीवन में आगे बढ़ें।
सुनील कुमार महला, फ्रीलांस राइटर, कालमिस्ट व युवा साहित्यकार, उत्तराखंड।
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