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हर समस्या का समाधान है गीता

admin
Last updated: दिसम्बर 11, 2024 3:01 अपराह्न
By admin 10 Views
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6 Min Read
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हर समस्या का समाधान है गीता

डा. विनोद बब्बर

विश्व के श्रेष्ठ ज्ञान के रूप में प्रतिष्ठित गीता महाभारत के भीष्मपर्व का एक अंश है। किन्तु इसका प्रभाव भारत ही नहीं, सम्पूर्ण विश्व में है। विश्व की अधिकांश प्रमुख भाषाओं के साहित्य को प्रभावित करने वाली गीता के महत्व को इसी बात से जाना जा सकता है कि श्रीकृष्ण जैसे प्रबंध शास्त्री का सर्वाेत्तम शोध-ग्रंथ है। कारागार में जन्म से एक ग्वालो के बीच पलने वाले श्रीकृष्ण ने अपने प्रबंधन कौशल के बल पर ही सम्पूर्ण ब्रज क्षेत्र को संगठित करने में सफलता हासिल की। यह श्रीकृष्ण का प्रबंधन कौशल ही था कि कंस के राज्य में रहते हुए भी समस्त संसाधनों के बल पर कंस की शक्ति को कमजोर करते रहे। बिना गद्दी पर बैठे महाभारत जैसे युद्ध के सूत्रधार बने। हम कृष्ण को एक विचारक व प्रबंध शास्त्री मानते हुए अपने कर्तव्यों का निर्धारण करें ताकि हम किसी भी प्रकार किंकर्तव्यविमूढ़ न हों।

त्यजेद् एकं कुलंस्यार्थे, ग्रामस्यार्थे कुलं त्यजेद्।
ग्रामं जनपदस्यार्थे, आत्मार्थे पृथ्वी त्यजेद्।।
अर्थात हमें कुल या परिवार के हित के लिए अपने हित का त्याग करने, ग्राम के हित के लिए कुल के हित का त्याग करने व जनपद के हित के लिए ग्राम के हित का त्याग करने व आत्मा अर्थात समस्त प्राणी-मात्र के हित के लिए पृथ्वी का त्याग करने के लिए भी तैयार रहना चाहिए।
वर्तमान को ज्ञान और प्रबंधन का युग माना जाता है। प्रबंधन की न्यूनता, अव्यवस्था, भ्रम, बर्बादी, अपव्यय, विलंब ध्वंस तथा हताशा को जन्म देती है। सफल प्रबंधन हेतु मानव, धन, पदार्थ, उपकरण आदि संसाधनों का उपस्थित परिस्थितियों तथा वातावरण में सर्वाेत्तम संभव उपयोग किया जाना अनिवार्य है। किसी प्रबंधन योजना में मनुष्य सर्वप्रथम और सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटक होता है। अतः, मानव प्रबंधन को सर्वाेत्तम रणनीति माना जाता है।
वैज्ञानिक, सूचना प्रोद्यौगिकी, सेवा ही नहीं, आध्यात्मिक क्षेत्र में ज्ञान और उसके प्रसार के नित्य नये साधन सामने आ रहे हैं। परंतु बढ़ती भौतिक सुविधाओं के बावजूद जीवन लगातार बहुआयामी व जटिल से जटिलतर होता जा रहा है। कहीं भी शान्ति एवं संतुष्टि दिखाई नहीं देती। कारण प्रबंधन की अनुपस्थिति अथवा कमजोर प्रबंधन। प्रबंधन केवल बाहरी ही नहीं आतंरिक भी। हम प्रबंधन को आधुनिकता की देन माना जाता हैं जबकि राम और कृष्ण साहित्य प्रबंधन के श्रेष्ठ स्रोत हैं। आवश्यकता है इस तथ्य कोे जानने और व्यवहार में लाने की कि स्नेह और सद्भाव की बांसुरी से काम चलाने की हरसंभव कोशिश करो। और मजबूरी में बांसुरी को छोड़ ‘बांस’ भी घुमाना पड़े तो उसके लिए भी स्वयं को सक्षम बनाओं।
जनसामान्य गीता को धार्मिक, आध्यात्मिक ग्रंथ मानता है। अधिकांश घरों में गीता तो है पर अलमारी की शोभा बढ़ाने के लिए। पढ़ी बहुत कम जाती है। जितना पढ़ी जाती है, समझी उससे भी कम जाती है। जितनी समझी जाती है आचरण में उससे भी कम दिखाई देती है। इसीलिए किसी शोकसभा में पंडित जी को ‘आत्मा की अमरता और संसार की नश्वरता’ पर गीता के श्लोक बोलते देख अक्सर यह मान लिया जाता हैं कि गीता शोक को दूर भगाने वाला ग्रन्थ है। जबकि योगीराज श्रीकृष्ण ‘क्लैव्यं मा स्म गमः’ (कायरता और दुर्बलता का त्याग करा)े का उदघोष करते हुए आत्मविश्वास जगाते हैं कि ‘क्षुद्रं हृदय दौर्बल्यं त्यक्त्वोतिष्ठ परंतप’ (हृदय में व्याप्त तुच्छ दुर्बलता को त्यागे बिना सफलता संभव नहीं है) वास्तविक में गीता केवल धार्मिक ग्रन्थ मात्र नहीं, बल्कि कालजयी प्रबंधन ग्रन्थ हैं। जिसकी उपादेयता आचरण में ढालने पर ही सिद्ध हो सकती है।
आज के युग में हर क्षेत्र में प्रबंधन का महत्व बढ़ता जा रहा है। सामान्यतः प्रबंधन व्यवसाय से ही जोड़ा जाता है परंतु जीवन का भी प्रबंधन किया जाना चाहिए। जीवन प्रबंधन का विशद ज्ञान देने वाले समसामयिक प्रबंधक व युग प्रवर्तक प्रबंधशास्त्री श्रीकृष्ण को रासलीला तक सीमित कर स्वयं को ज्ञान से वंचित करने जैसा है। हालांकि गीता पर दुनिया भर के विद्वानों ने टीका लिखी है। यह गीता की विशेषता है कि सभी को उसमें कुछ विशिष्ट प्राप्त होता है। यदि हम महाभारत के महानायक द्वारा कुरुक्षेत्र के मैदान में अर्जुन को दिये संदेश के निहितार्थ को सीमित अर्थो में ग्रहण करते हैं तो हम अप्रतिम ज्ञान से स्वयं को पृथक करने के अतिरिक्त कुछ और नहीं करते।
अनुभव साक्षी हैं कि हम अपनी क्षमताओं का सम्पूर्णता के साथ सदुपयोग नहीं कर पाते। वास्तव में कोई भी अवतार अपने समय की विसंगतियों को दूर करने के लिए ही आते हैं जैसाकि गीता के चतुर्थ अध्याय के 7वें और 8वें श्लोक में योगीराज श्रीकृष्ण उद्घोष करते हैं-
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।। (हे भारत! जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपने रूप को रचता हूँ अर्थात साकार

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