चमकते शहरों में उपेक्षित बेघर लोग
डॉ विजय गर्ग
कड़ाके की ठंड में फुटपाथों पर बिखरी पुरानी रजाइयां, प्लास्टिक की फटी हुई चादरें और कभी-कभार धुंधली आग की लौ शहर की जगमगाती रोशनी से कटी हुई दुनिया जैसी लगती हैं। कहीं से आई कोई छोटी-सी खबर चुपचाप दब जाती है कि कड़ाके की ठंड ने फिर कुछ जिंदगियां लील लीं। ये जिंदगियां उन गुमनाम चेहरों की हैं, जो पुल के नीचे चे सिकुड़ कर लेटी रहती हैं, रेलवे स्टेशन के कोने में दुबकी रहती हैं या किसी पार्क की टूटी बेंच पर आखिरी सांस लेती हैं, लेकिन ये मौतें केवल मौसमी हादसे नहीं हैं। ये हमारी व्यवस्था की तल्ख सच्चाई हैं, समाज की संवेदनहीनता का क्रूर आईना हैं।
कुछ समय पहले एक आंकड़ा ‘सेंटर फार होलिस्टिक डेवलपमेंट’ ने जुटाया था कि नवंबर 2024 से जनवरी 2025 के बीच महज 56 दिनों में दिल्ली में 474 बेघर लोगों की ठंड मौत हो गई। | यह आंकड़ा जिला स्तर के डेटा, अस्पताल के दस्तावेज और सर्वे पर आधारित था । राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने इस पर स्वतः संज्ञान लेते हुए दिल्ली प्रशासन से विस्तृत रपट मांगी। मगर वास्तविक संख्या इससे कहीं ज्यादा हो सकती है। फुटपाथ पर पड़ी लाशों को अक्सर अज्ञात शव मान कर दफना दिया जाता है। विशेषज्ञों का अनुमान है कि 80 फीसद ऐसी मौतें बिना किसी पहचान के गुम हो जाती हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार, 2019 से 2023 तक
3 तक पूरे देश में शीतलहर से 3,639 मौतें हुई, जिनमें बेघर और गरीब तबका सबसे ज्यादा शिकार रहा। वर्ष 2024 में ही पूरे भारत 13,238 मौतें हुई, जो 2022 #1 हुई मौतों से 18 18 फीसद ज्यादा हैं। यानी शीतलहर अब पहले से अधिक घातक हो घातक हो रही है।
में
यह संकट दिल्ली तक सीमित नहीं है। कानपुर में जनवरी 2023 के दौरान एक हफ्ते में ही 98 लोगों की मौत हो गई थी। वर्ष 2024 में उत्तर प्रदेश में ही 1,200 से ज्यादा दा लोगों की मौत हुईं। ‘नेशनल फोरम फार होमलेस हाउसिंग राइट्स’ ‘ की रपट में यह जानकारी दी गई। लखनऊ, आगरा, पटना और जयपुर जैसे शहरों में भी यही कहानी दोहराई गई। एनएचआरसी ने अक्तूबर 2025 में 19 19 राज्यों और चार केंद्र शासित प्रदेशों को चेतावनी जारी की, जिसमें बेघरों, नवजातों, , बुजुर्गों और कमजोर वर्गों को ठंड से बचाने के लिए कदम उठाने को कहा गया, लेकिन ये चेतावनियां कागजों
गईं।
वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार, देश के शहरी क्षेत्रों में नौ लाख 38,348 लोग बेघर थे। मगर आज यह संख्या डेढ़ करोड़ पार कर चुकी है। दिल्ली में ही करीब तीन से चार लाख बेघर लोग हैं, जो मुख्य रूप से प्रवासी मजदूर, रिक्शा चालक, सब्जी विक्रेता, घरेलू कामगार और बुजुर्ग हैं। अगस्त 2024 में कराई गई गिनती में 1,56,369 लोग रात ग्यारह बजे सुबह 5.30 तक सड़कों पर सोते पाए गए। ये वे लोग हैं जो दिनभर शहर को चला रहे होते हैं। वे सुबह चार बजे से रिक्शा चलाते हैं, बाजारों में फल बेचते हैं, घरों में झाडू लगाते हैं, लेकिन शाम ढलते ही इनके लिए कोई जगह नहीं बचती। एक रपट के मुताबिक, महामारी के बाद प्रवासी मजदूरों की संख्या में 30 फीसद की बढ़ोतरी हुई, जिनमें से आधे से ज्यादा शहरी झुग्गियों या खुले आकाश तले रहने के लिए मजबूर हैं। आर्थिक मंदी, नौकरियों की
कमी और ग्रामीण पलायन ने इन्हें सड़कों पर धकेल दिया।
ये लोग हमारे बीच के ही हैं। एक समय वे किसानों के बेटे थे, मजदूर थे, छोटे व्यापारी थे। मगर सूखा पड़ने से और बाढ़, कर्ज तथा महंगाई ने उन्हें शहरों की ओर धकेल दिया। शहरीकरण की होड़ में गांव खाली हो रहे हैं।
शहर बड़े हो रहे हैं, लेकिन गरीबों के लिए जगह सिकुड़ रही है। दिल्ली मास्टर प्लान 2041 के तहत शहर को स्मार्ट बनाने का सपना है, लेकिन इसमें बेघरों
का कोई जिक्र नहीं। उल्टे, झुग्गी-झोपड़ियां तोड़ी जा रही हैं। कुछ समय पहले यमुना किनारे सैकड़ों झुग्गियों पर बुलडोजर चला दिया गया। लोग मलबे पर सोने लगे। बच्चे ठिठुरे, महिलाएं रोई, लेकिन विकास का पहिया रुका नहीं। एक सर्वे के अनुसार, दिल्ली में 40 फीसद बेघर लोग झुग्गी तोड़ने के बाद सड़कों आ गए। मौसम विभाग चेतावनी देता है, एनएचआरसी निर्देश देता है, संगठन आवाज उठाते हैं, लेकिन प्रशासन सोता रहता है।
हैं। असल में बेघरों को इन घरा
सरकार की योजनाएं इस संकट को दूर करने का दावा करती हैं, लेकिन जमीन पर वे खोखली साबित हो रही हैं। प्रधानमंत्री आवास योजना (पीएमएवाई) का नारा था सबको घर वर्ष 2015 में शुरू हुई यह योजना 2022 तक सभी को पक्का घर देने का वादा लेकर आई, लेकिन 2025 आ गया और इस योजना का विस्तार कर पीएमएवाई अर्बन 2.0 लाया गया। दूसरी ओर बेघरों की संख्या घटने के बजाय बढ़ रही है। सरकार दावा करती है कि 20 मिनट में 150 घर बन रहे लेकिन ये आंकड़े कागजों के में बेघरों को इन घरों तक पहुंच ही नहीं मिलती। सितंबर 2025 में मंत्रालय ने राज्यों के साथ समीक्षा की, लेकिन समय पर केंद्रीय सहायता जारी न होने से प्रगति ठप है। यह योजना गरीबों को सशक्त बनाने का दावा करती है, लेकिन वास्तव में भवन निर्माता कंपनियों की जेब भर रही है। रैन बसेरे इस समस्या का तात्कालिक हल माने जाते हैं, लेकिन इनकी हालत देख कर बेहद निराशा होती है। ‘दिल्ली अर्बन शेल्टर इम्प्रूवमेंट बोर्ड’ के अनुसार, शहर में 325 रैन बसेरे हैं, जिनकी कुल क्षमता 16,338 लोगों की है। लेकिन ‘विंटर एक्शन प्लान 2024-25′ के तहत 197 स्थायी बसेरों में से मात्र 82 कार्यरत हैं, क्षमता सिर्फ 7,092 की है। बाकी ‘पोर्टा केबिन’ और तंबुओं में चल रहे हैं। दिल्ली सरकार ने 250 नए अस्थायी बसेरे खोलने का वादा किया। लाहौरी गेट या सराय काले खां जैसी जगहों पर भीड़ इतनी कि लोग फर्श पर सोते हैं। महिलाओं के लिए 17 बसेरे । हैं, लेकिन असुरक्षित एक
रपट
ट के अनुसार, यहां चोरी, नशाखोरी और हिंसा आम है। मास्टर प्लान के मुताबिक 330-350 स्थायी रैन बसेरे होने चाहिए थे, लेकिन अभी 80 ही हैं। यह कमी केवल उदासीनता नहीं, बल्कि पारदर्शिता के अभाव को दिखाती है। हमारा समाज, जो ‘वसुधैव कुटुंबकम’ की बात करता है, सड़क पर ठिठुरते व्यक्ति को देख कर नजरें फेर लेता है। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की रपट कहती है कि बेघरों को भिखारी या नशेड़ी समझा जाता है। कोई सर्वे नहीं होता कि कितने लोग खुले रहे हैं। प्रशासन अनुमान पर चलता है। कानपुर की 98 मौतें टाली जा सकती थीं, अगर समय रहते बेघरों का पता लगा लिया जाता। वैश्विक नजरिए से देखें, तो न्यूयार्क या लंदन में रैन बसेरों में चिकित्सा और बुनियादी सुविधाएँ देना अनिवार्य है। मगर भारत में ? महज एक एक कंबल और चाय।
समाधान संभव है, अगर इच्छाशक्ति हो। सबसे पहले, हर शहर र में एक व्यापक सर्वेक्षण किया जाना चाहिए, ताकि बेघर लोगों की सटीक संख्या, उनकी जरूरतों का पता लगाया जा सके। इसके बाद रैन बसेरों का विस्तार करना चाहिए। रात में गश्त की जाए, ताकि ठिठुरते लोगों को बचा कर सुरक्षित स्थानों पर ले जाया जा सके। कंबल, गर्म कपड़े और सूप वितरण की व्यवस्था नियमित रूप से हो। प्रशासन को जवाबदेह बनाया जाए, हर जिले में एक नोडल अधिकारी नियुक्त हो। वहीं एनएचआरसी के निर्देशों को सख्ती से लागू करना होगा। कानूनी रूप से जीने का अधिकार मौलिक है और गरिमापूर्ण जीवन का अर्थ सिर पर छत और भोजन से भी जुड़ा है।
डॉ विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल मलोट पंजाब
चमकते शहरों में उपेक्षित बेघर लोग
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