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चिंताजनक : भारत में लाखों बूढ़े माँ-बाप वृद्धाश्रमों में जिंदगी जीने को मजबूर ?

चिंताजनक : भारत में लाखों बूढ़े माँ-बाप वृद्धाश्रमों में जिंदगी जीने को मजबूर ?

लेखक : युद्धवीर सिंह लांबा

किसी ने रोजा रखा तो किसी ने उपवास रखा ।
कबूल होगा उसी का जिसने माँ-बाप को अपने पास रखा ।

भारतीय संस्कृति में माता-पिता को भगवान से भी ऊपर का दर्जा दिया जाता है। कहा जाता है कि अगर आप अपने मां-बाप की सेवा करते हैं तो उसका पुण्य चारों धामों की यात्रा से भी अधिक होता है । मां बाप हमारे जीवन में सबसे महत्वपूर्ण स्थान रखते है और मां बाप की वजह से हम आज इस दुनिया में हैं। मां बाप की सेवा जीता जागता तीर्थ है। भारतीय संस्कृति हमें अपने बजुर्ग माँ बाप का आदर सम्मान करना सिखाती है। अपने माता-पिता की सेवा करना ईश्वर की सेवा करने के बराबर है। माता-पिता की सेवा करना ही पुत्र का सबसे बड़ा धर्म है।

भारत देश में वृद्धाश्रमों की दिन-ब-दिन बढ़ती संख्या बेहद चिंताजनक है । बहुत ही शर्मनाक है कि भारत में वृद्धाश्रमों में न जाने ऐसे कितने बुजुर्ग रह रहे हैं, जिन्होंने अपने बच्चों को दिन रात मेहनत कर पढ़ा लिखाकर सफल इंसान बनाया, परन्तु जब बच्चों की बारी आई तो उन्हें अपनी जिम्मेदारियों से मुंह मोड़ लिया। समाज की यह कैसी विडंबना है कि जिन बच्चों के लिए मां-बाप पूरा जीवन खपा देते हैं, उम्र के आखिरी पड़ाव पर वही बच्चे उनकी परवरिश से हाथ खींच लेते हैं। हैरत की बात यह है कि हर रोज ऐसे-ऐसे मामले सामने आ रहे है कि आर्थिक रूप से सक्षम अपने बेटों और बहुओं के होते हुए भी बूढे माँ-बाप वृद्धाश्रमों में रहकर दिन गुजार रहे है । बेटो को अपने बूढ़े माता-पिता के खांसने की आवाज भी नागवार गुजरने लगती है।

पाश्चात्य सभ्यता के चलते आज भारत की युवा पीढ़ी भूलती जा रही है कि भारत में भगवान श्रीराम अपने पिता राजा दशरथ के वचनों को पूरा करने के लिए संपूर्ण वैभव को त्याग 14 वर्ष के लिए खुशी – खुशी वन चले गए थे और श्रवण कुमार अपने अंधे माता पिता को कांवर में बैठा कर तीर्थ यात्रा के लिए लेकर गए थे ।कहते है माँ बाप के क़दमों में स्वर्ग-जन्नत होती है।

आज समाज में नैतिक मूल्यों का इतना पतन हो गया है कि तिनका-तिनका जोड़कर अपने बच्चों के लिए आशियाना बनाने वाले बड़े बुजुर्ग जिंदगी के अंतिम दिन बिताने के लिए खुद आशियाने की तलाश में दर-ब-दर भटक रहे हैं । आज जिस तरह से पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव में आकर हमारी युवा पीढ़ी अपनी संस्कृति नैतिक मूल्यों को भूलकर अपने माँ बाप को वृद्धाश्रमों में छोड़ रहे रही है वह बेहद चिंता का विषय है। हालात यह हो गए कि भरा पूरा परिवार होने के बाद भी बुर्जुग वृद्धाश्रम में अपनी जिंदगी काटने के लिए मजबूर है। देश में शहर-दर-शहर बहुत ही तेजी से वृद्धाश्रमों की बढ़ती संख्या व्यापक सामाजिक स्तर पर नैतिक मूल्यों के पतन की कहानी है।

नास्ति मातृसमा छायाए नास्ति मातृसमा गतिरू नास्ति मातृसमं त्राणंण् नास्ति मातृसमा प्रियाश्। ‘महाभारत’ के रचयिता महर्षि वेदव्यास ने ‘माँ’ के बारे में लिखा है कि माता के तुल्य कोई छाया नहीं है, माता के तुल्य कोई सहारा नहीं है। माता के सदृश कोई रक्षक नहीं तथा माता के समान कोई प्रिय नहीं है।

जीवन में माँ बाप के योगदान को कोई भूल नहीं सकता, भारत के मिसाइलमैन के नाम से मशहूर देश के पूर्व राष्ट्रपति और भारत रत्न से सम्मानित वैज्ञानिक डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम ने अपनी सफलता का श्रेय अपनी माँ को देते थे, उनके अनुसार ‘मैं अपने बचपन के दिन नही भूल सकता, मेरे बचपन को निखारने में मेरी माँ का विशेष योगदान था।

रामायण में भगवान श्रीराम अपने श्रीमुख से कहते हैं ‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गदपि गरीयसी’ अर्थात जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर है।

माँ बाप की सेवा के लिए मनुस्मृति में मनु लिखते हैं, यं मातापितरौ क्लेशं सहेते संभवे नृणाम् । न तस्य निष्कृतिः शक्या कर्तुं वर्षशतैरपि ॥ अर्थात संतान की उत्पत्ति में माता-पिता को जो कष्ट-पीड़ा सहन करना पड़ता है उस कष्ट पीड़ा से संतान सौ वर्षों में भी अपने माँ बाप की सेवा करके मुक्ति नही पा सकते।।

आमतौर पर शहरों में देखा जाता है कि भारत में नैतिक मूल्यों का इस हद तक हस्र हो चुका है कि बेटे अपने आलीशान मकान में किरायेदार रख सकता है, लेकिन बूढ़े मां-बाप के लिए जगह नहीं है। जीवन के अंतिम मुकाम पर पहुंचकर मां-बाप खुद को ठगा सा महसूस कर रहे हैं क्योंकि जिन माता-पिता ने अपने बेटे को पाला-पोसा, पढ़ाया-लिखाया और उन्हें उनके पैरों पर खड़ा किया, वे ही बेटे आज के दौर में बूढ़े मां-बाप को बोझ समझने लगे हैं। आए दिन बच्चों द्वारा मां-बाप की हत्या की घटनाएं सामने आती रहती हैं।

वृद्धाश्रमों में ऐसे बहुत से बुजुर्ग हैं, जो संपन्न परिवार से हैं। जिनके बेटों के पास पैसों की कमी नहीं है लेकिन वह अपने मां-बाप को साथ नहीं रखना चाहते है । वृद्धाश्रम में रह रहे बुजुर्गों का एक ही बेडा दुख है। उनका कहना है कि इंसान भगवान से बेटे इसलिए मांगता है कि बुढ़ापे में बेटे उनकी लाठी बनकर सहारा दे, ताकि जिंदगी का आखिरी दौर आसानी से कट जाए। पर अगर मां-बाप के जिंदा रहते बेटे उन्हें न पूछें, ना सेवा करें तो मरने के बाद श्राद्ध करने का क्या फायदा? सेवा करनी है तो जीते जी करो, मरने के बाद क्या होगा, किसने देखा है।

लेखक : युद्धवीर सिंह लांबा, वीरों की देवभूमि धारौली, झज्जर – कोसली रोड, जिला झज्जर, हरियाणा

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