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लेख

ईमान का दौर डोलते ईमान

admin
Last updated: अगस्त 2, 2024 7:53 पूर्वाह्न
By admin 5 Views
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7 Min Read
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ईमान का दौर डोलते ईमान

विजय गर्ग

कुछ बातें इस युग की नहीं, बीते युग की बातें लगती हैं। इनमें से एक प्रमुख सूत्र वाक्य है- रिश्वत लेना और देना अपराध है। पुराने जमाने में जब कहीं ऐसे रिश्वत के अखाड़े में जाते थे तो वहां, हथकड़ियों में बंधे हुए हाथों के चित्र इस सूत्रवाक्य के साथ दिखाई दे जाते थे। ऐसे चित्र तो आज भी नजर आते हैं, लेकिन इनके हाथों में हथकड़ियां नहीं, बल्कि आशीर्वाद की मुद्रा है कि हे तात! अगर इस राह पर चलोगे, तो ही मंजिल पाओगे । मंजिल जो उनका प्रासाद है । छोटी गाड़ी के बदले बड़ी गाड़ी का चुनाव है और ऐसा लक्ष्य पाणिग्रहण है कि जिसके हाजमे में इस देश का कोई रमणीक स्थल नहीं आता, ऐसी शादियां करने के लिए विदेशी पर्यटन स्थल ललचाने लगे और यहां ये शादियां होती हैं, तो होती ही चली जाती हैं।
अब बहुत कुछ बदल गया है। खैर, देश की बात करें। देश की ईमानदारी, कर्त्तव्यनिष्ठा और नैतिक मूल्यों की बात करें । देखते ही देखते कहां खो गए ये सब ? जब से इस देश ने होश संभाला है, आजादी के खुलेपन में सांस ली है, तब से यहां हर सरकारी कार्यालय में ऐसे-ऐसे सूचनापट्ट लगे रहते थे कि जिन्हें पढ़कर लगता था कि इस घोर कलियुग में यह सतयुग कहां आ गया ? इस सतयुग के एक स्वस्थ और मुक्त सजग प्रहरी बनने की लालसा तब मन में जाग उठती थी। आज किसी के मन में जागती है तो उसे ‘बौड़म’ कहा जाता है। कभी एक ऐसा साफ-सुथरा माहौल बनाने का सपना था कि जिसमें नैतिक मूल्यों को समर्पित समाज लोगों के दृष्टि बिंब में सदा उभरता रहे और उन्हें ‘रामराज लौट आया’ कहने की जरूरत भी न पड़े। लोग आदर्श जीवन जीते हुए देश के नव-निर्माण में जुटे रहें । मगर धीरे- धीरे समय की धूल आदर्शों के इस धुले – पुंछे चेहरे पर पड़ती रही। नेता लोग भाषणों, दावों और नारों के साथ आईने साफ करते रहे, लेकिन धूल तो उनके अपने चेहरों पर पड़ी थी। यही कारण रहा कि वक्त बदला और रिश्वत की मनाही करने वाले ये सूचनापट्ट कहीं अपना प्रभाव दिखाते नजर भी नहीं आते।
नए शोध ग्रंथों को टटोलते हैं तो पाते हैं कि सच्चाई बदल गई। उसके बदसूरत आंकड़े सबको स्वीकार हो गए। एक बड़ा आंकड़ा यह कि एशिया के सत्रह देशों में रिश्वतखोरी में भारत अव्वल नंबर पर है। जिंदगी तेजी से बदल रही है । कितनी नई बातें हमारी जिंदगी का सामान्य हिस्सा बन गई हैं ।
उसमें एक बात यह भी है कि इस देश के अधिकांश नागरिक उन सब आजाद बरसों में एक नया सत्य पा गए कि यहां कोई भी काम सीधे और सच्चे रास्ते से नहीं हो सकता। ऐसे रास्तों की तलाश उन फुटपाथी लोगों के लिए बच गई है, जो हर मंजिल को पाने के लिए ‘शार्टकट’ या संक्षिप्त रास्ते की तलाश करते हैं और सफल होते हैं।
कभी कहा जाता था ‘प्यादे से फर्जी भयो टेढ़ो-टेढ़ो जाए । ‘ अब बात बदल गई। कहते हैं कि प्यादे से सुल्तान भयो, हर टेढ़े और गलत को सीधा और सही बता कर । चले थे रामयुग की स्थापना के प्रयास में देश की आजादी के बाद। रामयुग तो कहीं आदर्शवाद के चुकते धुंधलके में खो गया । पल्ले आया ऐसा राज, जिसमें भ्रष्ट नेताओं, अफसरों और माफिया की तिकड़ी, जो धड़ल्ले से मनमानी करती है और इसे नव समाज का नाम देती है। तरक्की का मार्ग प्रशस्त होता जा रहा है। अब तो रातोंरात बिसात उलट देने की तरह पांसा बदल देने वाले रंग बदल देते हैं और फिर खुलेआम कामचलाऊ घोड़ों की बोली अरबी घोड़ों के दाम पर लग जाती है। पांच साल राज करने का सपना देख कर आए भद्रपुरुष तड़ीपार हो जाते हैं और मध्यावधि चुनावों का बैंड बाजा बजाने वाले फिर नए ढोल पीटने में व्यस्त होते हैं ।

किसी ने कहा कि अरे यहां तो राष्ट्रीय एकता का सप्ताह मनाने के लिए वंदनवार अभी सूखे भी नहीं। अभी तो ‘एक देश एक कर, एक देश एक बाजार’, ‘एक देश एक ड्राइविंग लाइसेंस’ का नारा लगाने वालों ने ‘एक देश एक चुनाव’ का नारा उठाया ही है कि यह अपने नाती-पोतों तक अपनी गद्दी की विरासत सुरक्षित रख देने का सपना देखने के नीचे से उनकी बैसाखियां किसने खींच दी ? अभी तक नहीं जानते कि आजकल नए दावों, नई घोषणाओं और नए वचनों का कोई मोल नहीं रह गया। जमाना इतनी तेजी से बदल रहा है कि कल की घोषणा आज एक ऊल-जलूल प्रहसन बन कर रह जाती है ।
और जिन्हें कल जिंदगी में घटते हुए विरोधाभास और अप्रासंगिक ह देते थे, वही आज निष्ठुर सत्य बन गए हैं। पेशेवर संपर्क लोग आजकल मध्यजन नहीं कहलाते, उनमें सम्मानजनक जनसंपर्क अधिकारियों की उपाधियां बांट दी जाती हैं । कल जिन्हें अपने लिए दलाल शब्द सुनना एक गाली जैसा लगता था, आज वही जनसंपर्क अधिकारी बन इतराते नहीं थकते। जनाब आजकल तो चंद नव-उन्मेषी विश्वविद्यालयों में इनकी डिग्रियां भी बंटने लगी हैं। लोग इसके डाक्टर भी हो गए हैं, बाकायदा शोध करके । खोजी संस्थान ने बताया कि रिश्वत के भी नए-नए रूप उभरने लगे हैं। जरूरी नहीं है कि वे नोटों की गुलाबी झलक ही दिखाएं। उसका कोई ऐसा रूप भी दिख सकता है जिस पर लोग आसानी से विश्वास न करें ।

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विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य शैक्षिक स्तंभकार मलोट

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