विषय आमंत्रित रचना – जीवन संगिनी
विषय आमंत्रित रचना – जीवन संगिनी
नारी के त्याग को तोला जा सके ऐसी तुला आज तक कोई बना नहीं सका है।उस जैसी ममता,सेवा,समर्पण की दिव्य मशाल कोई जला नहीं सका है। वह सृजनकी,संवर्धन की अनमोल अनुपम अद्वितीय,धरोहर है। उसके नैसर्गिक सौंदर्य की सौम्य मूरत आज तक कोई बना नहीं सका है। पत्नी हमारी जीवन साथी है । जो सुख में हो या दु:ख में हर कदम का साथी हैं। सारी उम्र गुजारी हमने वो जन्म -जन्म का साथी है। पत्नी हमारी जीवन साथी है । दो घर की लाज निभाती है।जिस घर में जन्मी बड़ी हुई वहीं से पराई हो जाती है।सहनशीलता की मुरत जो सारे फ़र्ज़ निभाती है। कंधे पर सारा बोझ लिये ससुराल को स्वर्ग बनाती है। बच्चों की देखभाल में सारा दिन व्यस्त जो रहती है। घर में कुछ कमी हो या कहा सुनी मन ही मन में सब सहती है। सास ससुर की सेवा करके अपना फर्ज निभाती है। व्यवहारिक हर काम में जो अपनी हाजिरी लगाती है।अगर आये परिवार पर संकट अपना धर्म निभाती है।सोना-चांदी या अपनी बचत सब बेचकर कर्ज़ चुकाती है। अपना सारा जीवन ही जो परिवार को अर्पण कर जाती है। मत करो उपहास पत्नी का जो जीवन भर साथ निभाती हैं। त्याग और समर्पण की अद्भुत मूरत है ।ममता और वात्सल्य की अनोखी सूरत है । अपने लिए नहीं अपने पूरे परिवार के लिए श्रमशील अनवरत है । वह नारी है- जिसे नहीं किसी नाम या पुरस्कार की जरुरत ।मिले उलाहना या ताना उसे आता है हर स्तिथि को सहना ।बच्चों से लेकर बड़े तक सबका रखती है वो ख़्याल ।अपनी क़ाबिलियत से आता है उसे मकान को घर बनाना । हाँ ,वो नारी ही है जो जानती है -परिवार को चलाना ।एक आदर्श परिवार बनाना । नि:स्वार्थ सबमें खुशियाँ बाँटना । गृहलक्ष्मी बनकर गृह की शोभा बढ़ाना ।नारी शक्ति और समर्पण की गरिमा को रौशन करना जीवन संगिनी को आता है । आसमाँ को मुट्ठी में क़ैद करने की ख़्वाहिश ।अपनी पहचान तलाशने ।अपनी पहचान क़ायम करने का अरमान । रिश्ते-नाते,घर-आँगन को सहेजने का ज़िम्मा । रस्मों-रिवाजों को निभाने की कोशिश । हर ज़िम्मेदारी आज एक माँ, संगिनी, बेटी, बहु,पत्नी,जननी बन कर बख़ूबी निभा रही है।पूरा घर समेटते समेटते वह खुद बिखर सी जाती हैं । आधी रात में भी दूध की बोतलों से बतियाती हैं ।एक आवाज पर गहरी नींद छोड़ आती हैं ।टिफिन के पराठों संग स्कूल पहुँच जाती हैं । कमर दर्द, पीठ दर्द, हँस के टाल जाती हैं । जूड़े में उलझी हुई लटों को वह छुपाती हैं ।हल्दी लगे हाथों को साड़ी में छुपाती हैं । फिर भी हर परम्परा को बड़े प्यार से सहेजते हुए आज की गृहिणी ने यह साबित कर दिया सही मायने में वो है तो घर है । क्योंकि सुबह शाम रोटियों में प्यार बेल जाती हैं ।बारिश में भीग सूखे कपड़ो को बचाती हैं । अपनी फटी एड़ियों पे साड़ी लटकाती हैं ।नाखूनों में चिपका आटा चुपके से छुड़ाती हैं ।जब भी एक झलक अपने हाथ देख पाती हैं ।अपनी ख्वाइशों से ख्वाब में ही मिल आती हैं
। हर किरदार में वो फिट बैठ जाती हैं ।कभी प्रिंसिपल कभी बहु बन जाती हैं । जिसने अपने कर्तव्य के द्वारा सृजन के आकाश की अनेक ऊँचाइयाँ को चुने के साथ-साथ अपने धरातल से जुड़कर संस्कारों का सिंचन करते हुए अपने घरौंदे को विशाल आलम का रूप दिया है। अपनी क्षमताओं का सिंचन देकर अपनी नैसर्गिक गुणावली को क़ायम रखते हुए सुघड़ आकर दिया ।तभी तो कहा है की नारी तेरे रूप अनेक सभी युगों और कालों में है तेरी शक्ति का उल्लेख ।
प्रदीप छाजेड़
( बोरावड़ )