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नहीं खोजता अपना दोष

नहीं खोजता अपना दोष
मानव की एक प्रवृति होती हैं की वह स्वयं का दोष नहीं देखता हैं ।निज पर शासन फिर अनुशासन को अपना ले तो दोष मढ़ने की प्रवृति ही खत्म हो जायेगी । दुनिया का दस्तूर हैं और बहुत आसान हैं अपना दोष किसी ओर सर मढ़ना हैं ।अपना ही किया धरा पर दुःख का ठीकरा किसी और माथे फोड़ना एक फ़ेशन बन गया हैं ।क्योंकि जीवन मृत्यु एक किताब है और इस बीच का सफ़र पन्ने हैं ये हम पर निर्भर करता है की हमारी जीवन शैली हम कैसे जीते हैं । दो अक्षर की मौत और तीन अक्षर के जीवन में मनुष्य को उसका कर्म ही दण्डित या पुरस्कृत करते है । इस सृष्टि का आधार ही कर्म है । कोउ न काहु सुख दुःख कर दाता
निज कृत करम भोग सुनु भ्राता । कर्म के उत्तराधिकारी हम स्वयं ही होते है । इसे हम किसी ओर पर दोष देकर छूट नही सकते।कर्म भूमि की दुनिया में श्रम अपने को करना है ।भगवान सिर्फ लकीरें देता है रंग हमें ही भरना है । इसलिए दंड या पुरस्कार अपने अपने कर्म पर निर्भर है। तभी तो फलों का राजा होकर भी
आम किलो के भाव बिकता है जब कि श्री फल संख्या के हिसाब से सबका अपना कर्म अपना गर्व ।हम आज के समय के हिसाब से दोष निकालने की प्रक्रिया ही उल्टी दिशा से चला ले यानी पहले स्वयं का ही दोष खोजना शुरू करेगे तो समस्या का हल भी प्रायः वहीं मिल जाएगा ।
प्रदीप छाजेड़
( बोरावड़ )

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