आकांक्षाओं के बोझ तले दबते युवा
इन दिनों विद्यार्थियों के बीच आत्महत्या की खबरें बढ़ रही हैं। पिछले पांच वर्षों में आत्महत्या करने वालों में प्रतियोगी परीक्षाओं में विफल होने के अलावा, आइआइटी में पढ़ने वाले और ‘नीट’ पास करके मेडिकल की पढ़ाई करने वाले भी शामिल हैं। तो क्या प्रतियोगी परीक्षा पास करने से खुश होने की जगह तनाव से छात्र परेशान हैं?
दिल्ली से लेकर कानपुर और कोटा तक कोचिंग का बाजार फैल चुका है। अब कोचिंग संस्थान छात्रों को अपने ‘लोगो’ वाला बैग और टी-शर्ट भी पहना रहे हैं। इनमें ज्यादा संख्या उन छात्रों की है, जो मेडिकल इंजीनियरिंग से अलग कुछ करना चाहते थे, लेकिन माता- पिता के दबाव में डाक्टर, कंप्यूटर इंजीनियर बन कर और सरकारी नौकरी के भंवर जाल में घूम रहे हैं। स्कूल से लेकर कोचिंग तक सिमटी दिनचर्या में बच्चों के पास अपनी प्रतिभा पहचानने का मौका नहीं है, बस ‘टेस्ट’ की तैयारी का दबाव है। क्या अभिभावक कभी रुक कर सोचते हैं कि बच्चे से भी पूछ लिया जाए कि वह इस रास्ते चलना चाहता है या नहीं? होता यह है कि बड़ी संख्या में गांवों से शहर आए अभिभावक, अपने अतीत के चश्मे से बच्चों का भविष्य देखने की कोशिश करते हैं। ऐसे में अनजाने ही बच्चे, उनको अपना सपना पूरा करने का साधन दिखते हैं।
अगर मां-बाप अपनी अधूरी ख्वाहिशें बच्चों पर लादने का प्रयास करते हैं, ऐसी स्थिति में बच्चों में एक असमंजस बना रहता है कि वह अपने मन का काम करें या माता-पिता का कहा मानें ? इस तरह उनकी अपनी प्रतिभा दब जाती है और वे भावनात्मक रूप से कमजोर हो जाते हैं। विफलता का हल्का झटका भी उन्हें गंभीर तनाव की स्थिति में ला देता है। अभिभावकों को याद रखना चाहिए कि 2019-2023 3 के बीच आठ हजार से अधिक छात्रों ने आइआइटी की पढ़ाई बीच में छोड़ दी, आइआइएम में भी आठ सौ से अधिक छात्रों ने अपनी पढ़ाई पूरी नहीं की और संस्थान छोड़ दिया। वैसे, छात्र तनाव की जिंदगी जीने के बजाय अपनी पसंद का रचनात्मक कार्य करें और अपने जीवन का लक्ष्य प्राप्त करें, तो अभिभावकों को खुश होना चाहिए।
राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के मुताबिक 2021 में तेरह हजार से अधिक विद्यार्थियों ने आत्महत्या कर ली। यानी हर महीने एक हजार से अधिक ने ने मृत्यु का वरण किया। जिस देश में मेडिकल कालेजों में प्रवेश के लिए गलाकाट प्रतियोगिता हो, वहां आखिर क्यों पिछले पांच वर्षों में 119 मेडिकल छात्रों ने आत्महत्या कर ली ? अगर किसी उत्कृष्ट संस्थान में प्रवेश के लिए प्रतियोगिता में उत्तीर्ण होना ही जीवन में खुशहाली का पैमाना है, तो फिर आइआइटी, एनआइटी और आइआइएम से भी आत्महत्या तथा पढ़ाई बीच में छोड़ने की खबरें क्यों आ रही हैं? देश में आत्महत्या करने वाले विद्यार्थियों में लड़के-लड़कियां दोनों शामिल हैं। इसमें भी लड़कों की संख्या लड़कियों से अधिक है। 2019 के आंकड़े देखें, तो उस वर्ष दस हजार से अधिक छात्रों ने आत्महत्या की थी, जिसमें लगभग चौवन फीसद लड़के और छियालीस फीसद लड़कियां थीं। देश में छात्रों के बीच आत्महत्या की दर पांच वर्ष में पैंतीस फीसद से अधिक बढ़ी है।
क्या इन संकेतों से अभिभावक और समाज कोई सबक सीख रहे हैं? क्या छात्रों के जीवन में स्कूल, कोचिंग, घर के अलावा खेलने और सामाजिक गतिविधियों में शामिल होने के लिए समय मिल रहा है ?
अभिभावकों के दबाव के साथ-साथ सामाजिक अपेक्षाओं पर खरा उतरने की परीक्षा के चलते छात्र अपनी पसंद का व्यवसाय और पढ़ाई नहीं चुन पाते हैं। कुछ समय बाद उन्हें लगने लगता है कि वे जो कार्य कर रहे हैं, वास्तव में उससे उन्हें खुशी नहीं मिल रही है। कोरोना के बाद दुनिया भर में लोगों ने अपनी नियमित नौकरी छोड़ दी और अपनी पसंद का काम शुरू किया। जर्मनी, अमेरिका और जापान के साथ भा में भी ‘फ्लेक्सिबल वर्किंग आवर’ का चलन शुरू हुआ है।
हमारे समाज में छात्रों पर किसी दूसरे की तरह बनने का सामाजिक दबाव कब खत्म होगा ? महंगी होती शिक्षा के साथ, कोचिंग का तंत्र, बच्चों को पैसा लेकर ‘अन्य’ लोगों से आगे निकलने का ‘मंत्र’ और ‘सफलता का शार्टकट’ दिखाता है। जिसमें अक्सर विद्यार्थी अपने को ठगा महसूस करते हैं महत्त्वाकांक्षा के आवेग में छात्र इतने व्यस्त हो जाते हैं कि उन्हें यह याद ही नहीं रहता कि वे स्कूल कोचिंग के चक्र में अनिद्रा और मानसिक अवसाद का शिकार हो रहे हैं। शहरी अभिभावक कहते हैं कि बच्चे घर से बाहर खेलने नहीं जा रहे हैं, लेकिन अभिभावक भी बच्चों के साथ सिनेमा, यात्रा और स्टेडियम जाने के लिए छुट्टी लेने या कोई विशेष प्रयास करने से बचते हैं। शहरी अभिभावक यह भूलते जा रहे हैं कि बचपन क्या होता है? है ? प्रतियोगी परीक्षा का ऐसा दबाव है कि बच्चे को बचपन में ही वयस्क बनाने की तैयारी चल चल रही है। । प्राथमिक कक्षा के बाद ही अभिभावक बच्चे के लिए स्कूल कोचिंग और ट्यूशन का समय निर्धारित कर रहे हैं। बच्चों के लिए साप्ताहिक अवकाश, कोचिंग में ‘टेस्ट’ का दिन हो चला है। बहुत से लोग चाहते हैं कि उनका बच्चा उच्च शिक्षा ले और ऊंचे पद पर जाए। इस फेर बैंक से कर्ज लेकर डिग्री लेने और विदेश जाने का चलन भी बढ़ रहा है। अगर कोई छात्र बैंक से कर्ज लेकर एमबीए, एमबीबीएस और इंजीनियरिंग करे, तो फिर उसकी प्राथमिकता पैसा कमाना होगी या कुछ और ? ऐसे छात्र, जो कर्ज लेकर विदेश जा रहे हैं, मकान और कार खरीद रहे हैं, क्या वे तनाव मुक्त जीवन जी पाएंगे? इंडियन मेडिकल एसोसिएशन के 2023 के अध्ययन के मुताबिक 82 फीसद डाक्टर अत्यधिक थकान महूसस करते हैं और 48 फीसद डाक्टरों के काम का तनाव उनके निजी जीवन पर प्रभाव डालता है। ‘एशियाई जर्नल आफ साइकेट्री’ की 2022 की रपट बताती है कि 30 फीसद मेडिकल छात्रों में उदासी के लक्षण दिखे हैं और 17 फीसद छात्रों में कभी न कभी आत्महत्या का विचार आया। देश में चिकित्सा महंगी हो रही है। डाक्टरों को अच्छे पैसे मिल रहे हैं, तो फिर उनमें आत्महत्या दर, सामान्य आबादी से अधिक क्यों है?
इससे अधिक चिंताजनक क्या होगा कि दूसरों का इलाज करने वाले डाक्टर खुद तनाव में हैं। क्या तनाव की जड़ें हमारी शिक्षा व्यवस्था में हैं या जीवन शैली में ? तनाव का कारण विफल होने का है या बढ़ती महत्त्वाकांक्षा ? क्या माता-पिता और अध्यापक बचपन से ही छात्रों को बताते हैं कि परीक्षा, खेल या प्रतियोगिता में विफलता एक सामान्य बात है। सफलता तो बच्चे के प्रयास करने में है। अभिभावकों को अपने बच्चों को समय देना होगा, उनकी बातें सुननी होंगी और उनकी पसंद- रुचि के साथ समन्वय बिठाना होगा। बच्चे का तनाव बढ़ा कर अगर कोई सफलता मिल भी जाए तो वह अस्थायी होगी।
विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल शैक्षिक स्तंभकार स्ट्रीट कौर चांद एमएचआर मलोट पंजाब