संजय सक्सेना,लखनऊ
उत्तर प्रदेश में मिली शानदार और यादगार जीत के बाद समाजवादी पार्टी के प्रमुख अखिलेश यादव के हौसले पूरी तरह से बुलंदी पर हैं। अब एक और नया अध्याय लिखते हुए लोकसभा चुनाव की सफलता 2027 में होने वाले उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में भी दोहराना चाहते हैं। 2024 के आम चुनाव में जहां उनके सामने मुख्य रूप से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चेहरा थे तो वहीं 2027 में उनका मुकाबला तेज तर्रार नेता और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से होगा। मोदी की तरह योगी को भी परास्त करने के लिये समाजवादी पार्टी पिछड़ा,दलित, अल्पसंख्यक(पीडीए) पर ही दांव लगायेगी,लेकिन उसको मुद्दे बदलने पड़ेगें। योगी से मुकाबला करते समय अखिलेश संविधान बदलने और आरक्षण खत्म करने की सियासत को अमलीजाना नहीं पहना पायेंगे। क्योंकि की यह मुद्दे केन्द्र के अधीन आते हैं। लाॅ एंड आर्डर के मामले पर भी वह योगी सरकार को नहीं घेर पायेंगे। ऐसे में उनके पास अगड़े-पिछड़ें और दलित की राजनीति ही शेष बचेगी। परंतु बीजेपी कहती है कि काठ की हांडी बार-बार नहीं चढ़ती है। बीजेपी ने अभी से दलितों और पिछड़ों को साधना शुरू भी कर दिया है। मोदी सरकार के तीसरी बार शपथ ग्रहण के साथ इस खाई को पाटने का काम शुरू भी हो गया है।यूपी में बीजेपी को इस बार सीटें भले ही कम मिली,परंतु मोदी मंत्रिमंडल में यूपी के सांसद जगह बनाने में कुछ ज्यादा ही कामयाब रहे। यूपी से जिन सांसदों को मंत्री बनाया गया ,उनमें से कई पिछड़े और दलित समाज से आते हैं, जिनके सहारे बीजेपी प्रदेश में एक बार फिर से सामाजिक समीकरण अपने पक्ष में करने के प्रयास में है। मंत्रिमंडल में जातीय भागीदारी बनाए रखी गई है। पिछली बार के तीन की बजाए इस बार सिर्फ दो दलित चेहरों को जगह दी गई है। इनमें धनगर जाति के डाॅ, एसपी सिंह बघेल को फिर से रिपीट किया गया है। तो पासी जाति से आने वाले कौशल किशोर की जगह कमलेश पासवान को जगह दी गई है। कुर्मियों में फिर से अनुप्रिया पटेल और पंकज चौधरी को रिपीट किया गया हैै। तो लोध चेहरे के तौर पर बीएल वर्मा को दोबारा मंत्री बनाया गया है। हालांकि उन्नाव से तीन बार और सात बार सांसद रह चुके साक्षी महाराज को लोध चेहरे के रूप में जगह नहीं दी गई है। इसके अलावा क्षत्रियों की नाराजगी को देखते हुए इस बार भी इस बिरादरी के राजनाथ सिंह और कीर्तिवर्धन सिंह को जगह दी गई है।
बहरहाल,लोकसभा चुनाव में पीडए के जरिए सामजिक समीकरण साध ऐतिहासिक जीत दर्ज करने के बाद सपा मुखिया अखिलेश यादव जमीन पर केमिस्ट्री ठीक करने की रणनीति में जुट गए है। 2027 के विधानसभा चुनाव के पहले अखिलेश की सबसे अधिक नजर पार्टी की अवधारणा बदलने पर है, जिससे साथ आए वोटरों को सहेजा और नए वोटरों को जोड़ा जा सके। यही वजह है कि अखिलेश अपने नेताओं और कार्यकर्ताओं को संयम, संवाद और कनेक्ट की सीख हर बैठक में दे रहे है।
सपा के हिस्से में दस साल के बाद इतनी बड़ी जीत आई है। 2022 के विधानसभा चुनाव में सपा को पहली बार 32 प्रतिशत से अधिक वोट मिले थे। 2.95 करोड़ से अधिक वोटरांें ने ईवीएम पर साइकल का बटन दबाया था। 2024 के लोकसभा चुनाव में सपा को कांग्रेस का साथ मिला, लेकिन तब साथ लड़े रालोद, सुभासपा, अपना दल सहित कुछ और छोटे दलों ने साथ छोड़ दिया। बावजूद इसके अखिलेश अपनी वोट की पूरी पूंजी बरकरार रखने में सफल रहे। बसपा के साथ ही भाजपा कके कोर वोटों में सेंध लगाकर सपा ने विधानसभा चुनाव की अपेक्षा 1 प्रतिशत वोटों की बढ़त बनाते हुए 33,59 प्रतिशत वोट हासिल किए हैं। पार्टी को एक फिर 2.95 करोड़ से अधिक वोट हासिल हुए है। अपने दम पर ही सपा 45 प्रतिशत से अधिक विधानसभा क्षे़त्रों में आगे रही है। इसलिए 2027 की तैयारियों को लेकर उम्मीद और हौसला दोनों ही सपा को मिला है।
सपा प्रमुख अखिलेश ने जीत के बाद कार्यकर्ताओं से मुलाकात व सांसदों से संवाद में जमीन से कनेक्ट रहने के साथ सतर्कता की नसीहत भी दी है। यह नसीहत व्यवहार, भाषा से लेकर सार्वजनिक आचरण तक ये जुुड़ी हुई है। दरअसल, भाजपा की कई सीटों पर पिछड़ने की एक वजह उसके सांसदों का घमंडिया व्यवहार और जनता से उनकी दूरी थी। अखिलेश इस बीमारी को अपनी पार्टी में नहीं पनपन देना चाहते। सोशल मीडिया के दौर में हर वायरल विडियो-आॅडियों भी पार्टी व प्रत्याशी का परसेप्शन बनाते-बिगाड़ते हैं। सपा ने सरकार और विपक्ष में रहते हुए इसका खूब नुकसान झेला है। 2012 में अखिलेश के सीएम की शपथ लेने के दौरान कार्यकर्ताओं के हंगामे से बनी अवधारणा न केवल सरकार में पार्टी के लिए मुसीबत बना था, बल्कि विधानसभा चुनाव में भी कानून-व्यवस्था को भाजपा ने सबसे बड़ा मुद्दा बनाकर बाजी पलट दी थी। 2022 के विधानसभा चुनाव में कार्यकर्ताओं और पार्टी के कोर वोटरों के अति उत्साह और प्रतिक्रिया कि चलते हुए सामाजिक धु्रवीकरण का नुकसान उठाना पड़ा था। लोकसभा चुनाव के प्रचार के बीच भी अखिलेश ने कार्यकर्ताओं की ट्रेनिंग की बात कही थी। सपा के एक वरिष्ठ नेता के अुनसार सांसद, पदाधिकारी, कार्यकर्ता सबसे अखिलेश सतर्क रहने कह रहे है। जिससे पार्टी सरकार से जवाब मांगने की जगह अपनों को ही लेकर सवालों में न उलझे।
इस बार के आम चुनाव में एक बात और खास हुई सपा प्रमुख ने मुस्लिम-यादव कोर वोटरों तक ही सीमित पार्टी के टैग को पीडए के प्रयोग से तोड़ दिया है। विधानसभा चुनाव में जहां गैर यादव ओबीसी वोट का विस्तार किया था, लोकसभा चुनाव में दलित वोटों में पार्टी ने खूब सेंध लगाई है। 1993 में बसपा के साथ हुए गठबंधन के बाद यह पहली बार है, जब सपा की ओर इतने बड़े पैमाने पर दलित वोट शिफ्ट हुए है। यहां तक कि 2019 में मायावती के साथ आने के बाद भी दलित वोटों में बिखराव के कयास लगे थे और नतीजे भाजपा के पक्ष में गए थे। लेकिन इस बार आरक्षण संविधान जैसे मसलों को उठाने के साथ ही भागीदारी बढ़कार अखिलेश दलित वोटरों को जोड़ने में सफल रहे। अब पार्टी की सारी कवायद इस साथ को बरकरार रखने की है। इसलिए सड़क से सदन पार्टी उनसे जुड़े मुद्दों को आक्रामक ढंग से उठाने की रणनीति पर काम कर रही है। जमीन पर कार्यकर्ताओं और पदाधिकारियों को भी दलित समाज के नेताओं व समाज में प्रभावी लोगों से समन्वय ठीक रखने को कहा गया है। संगठन से लेकर सदन तक पार्टी के दलित समाज के चेहरे इस बार अधिक मुखर दिखेंगे, जिससे साथी स्थायी बन सके।
खैर, यह तो सच है कि अखिलेश के पीडीए (पिछड़ा, दलित, अल्पसंख्यक) फार्मूले ने उत्तर प्रदेश में बड़ा काम किया। 37 सीटें जीतकर सपा प्रदेश में सबसे बड़ी पार्टी बन गई है। सपा पीडीए की जुटान को सामाजिक एकजुटता का सकारात्मक आंदोलन मान रही है। यही कारण है कि पार्टी पीडीए की एकजुटता व जोश वर्ष 2027 के विधानसभा चुनाव तक कम नहीं होने देना चाहती है। सपा 2027 को लक्ष्य बनाकर पीडीए को और धार देगी। सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने संविधान, लोकतंत्र, आरक्षण, समता-समानता, सौहार्द की रक्षा जैसे मुद्दों पर भी लगातार भाजपा सरकार को घेरने की रणनीति बनाई है। पीडीए के सहारे इस बार सपा को सर्वाधिक 37 सीटों के साथ ही 33.59 प्रतिशत वोट मिले हैं। इससे पहले वर्ष 2004 में उसे सबसे अधिक 35 सीटें मिली थीं उस समय उसे मात्र 26.74 प्रतिशत ही मत मिले थे। वर्ष 2022 के विधानसभा चुनाव में भी उसे 32 प्रतिशत वोट मिले थे। इस बार सपा ने पीडीए के जरिए जातियों का ऐसा तानाबाना बुना जिसकी काट भाजपा भी नहीं कर पाई। वहीं बीजेपी के कुछ सूत्र यह मानने को तैयार नहीं है कि समाजवादी पार्टी को पीडीए के चलते इतनी बढ़ी कामयाबी मिली है।बल्कि इसके उलट बीजेपी के नेता कहते हैं कि अबकी से हम टिकट वितरण सही से नहीं कर पाये,जिसके खामियाजे के रूप में सपा के सिर जीत का सेहरा बंध गया।करीब ढाई दर्जन सांसदों के टिकट काटे जाने थे,सबको पता था कि जनता इनसे नाराज है,लेकिन पार्टी में बगावत या सामाजिक समीकरण खराब नहीं हो जाये जायें,इसलिए सबको टिकट थमा दिया गया,जो बीजेपी के लिये आत्मघाती साबित हुआ।