कठिन चुनौती बनती बाल भुखमरी
विजय गर्ग
भूख वैश्विक समस्या बन चुकी है। मगर इसे लेकर कोई ठोस नीति नहीं बन पाई है। सुविधा संपन्न परिवार जहां भोजन की बर्बादी करता है, वहीं गरीब परिवार भूखे पेट सोने को मजबूर है। हाल में में आई ‘यूनिसेफ’ की ‘बाल पोषण रपट 2024 बेहद चौंकाने वाली है। दुनिया के बानवे दशा देशों से बाल पोषण को लेकर आए आंकड़े डराते और सोचने को विवश करते हैं। सबसे चिंताजनक स्थिति भारत की है। यहां चालीस फीसद बच्चे भूख और कुपोषण का शिकार हैं। भारत जैसे कृषि-प्रधान देश में यह स्थिति ज्यादा चिंता की बात है। भारत को भुखमरी की उच्च श्रेणी में रखा गया है। पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान से भी कुपोषण के मामले में भारत की स्थिति खराब है। सोमालिया में जहां यह स्थिति 63 फीसद है, वहीं बेलारूस सिर्फ एक फीसद पर है। दुनिया का हर चौथा बच्चा भूखे सोने को मजबूर है। जबकि एशिया में सबसे बदतर स्थिति अफगानिस्तान की है। भारत में | करोड़ लोगों को मुफ्त खाद्यान्न की सुविधा उपलब्ध होने के बाद भी यह चिंताजनक है। मगर इस पर कोई मंथन नहीं होगा, क्योंकि हमारे लिए यह वोट बैंक का विषय नहीं है।
दक्षिण अस्सी जब दुनिया का वर्तमान भुखमरी और कुपोषण का शिकार है, तो भविष्य की नींव कितनी मजबूत होगी, यह अपने आप में बड़ा सवाल है। क्या आने वाली दुनिया रुग्ण होगी या समता मूलक समाज और व्यवस्था की कल्पना बेमानी होगी। ऐसी स्थिति में आने वाले भविष्य में दुनिया की क्रियाशील आबादी कैसी होगी। फिर ‘श्रमेव जयते’ का क्या होगा। सवाल है है कि थके-हारे और बीमार लोग एक स्वस्थ वैश्विक समाज का निर्माण कैसे करेंगे। करग। थक-हार दुनिया का हर चौथा बच्चा सिर्फ भुखमरी का शिकार है। 18.1 करोड़ मासूम बच्चों में 65 फीसद भूख और भोजन के लिए संघर्ष कर रहे हैं। यह दुनिया के लिए बड़े विमर्श का विषय है। एक तरफ जहां हम बच्चों को भोजन नहीं उपलब्ध करा पा रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ कई देशों में चल रहे युद्ध में हम बाल अधिकार को संरक्षित करने में नाकाम हैं। वैश्विक स्तर पर गुटों में बंटी दुनिया के देशों ने अपनी सोच कूटनीतिक संबंधों तक सीमित कर लिया है। उन्हें गर्म होती धरती, बाल अधिकार, गृहयुद्ध, पर्यावरण, • जलवायु परिवर्तन जैसे मसले कोई मतलब नहीं रखते। वे रखते। वे सिर्फ हथियारों की होड़ और व्यपार में लगे हैं। दुनिया की तो एक दिखावा है। । इसकी | वजह से पूरी दुनिया भौतिक और प्राकृतिक समस्या से से चिंतित और परेशान है।
यह चिंता और बढ़ जाती है जब भारत जैसे कृषि प्रधान देश में कुपोषण और भुखमरी के हालात हैं। एक तरफ हम देश की अर्थव्यवस्था को पांच ट्रिलियन तक ले जाने का सपना देख रहे हैं, दूसरी तरफ मासूम बच्चों को भोजन और पौष्टिक आहार तक की सुविधा उपलब्ध नहीं करा पा रहे हैं। ऐसे हालत में हम देश को किस तरफ ले जा रहे हैं। भारत या दुनिया भर में जो स्थिति है उसमें अमीर और अमीर बनता जा रहा है, जबकि गरीब और गरीब हो रहा है। भारत में सरकारी आंकड़ों में गरीबी कम होने का दावा किया जाता है। मगर हकीकत है कि यहां चालीस फीसद बच्चे कुपोषण और भूख से परेशान हैं। दक्षिण एशिया में भारत, चीन, पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश जैसे बीस देश शामिल हैं, जहां बाल पोषण की समस्या पाता है.
भारत के स्कूलों में मध्याह्न भोजन योजना और आंगनवाड़ी कार्यक्रम के बावजूद पोषण की समस्या का समाधान नहीं निकल रहा है। इस तरह की सरकारी योजनाओं पर करोड़ों खर्च के बाद भी हालात जस के तस तस हैं। | की आर्थिक, के पीछे लोगों की 1. कुपोषण के सामाजिक स्थिति के अलावा दूसरे कारण भी हैं। । देश में बढ़ती महंगाई और बेरोजगारी इस समस्या को और बढ़ा रही है। आर्थिक विपन्नता की वजह से आम आदमी बच्चों को पौष्टिक आहार नहीं दे क्योंकि उसकी आमदनी उतनी नहीं होती। वह कठिन परिश्रम के बाद भी जैसे-तैसे रोटी-दाल जुटा पाता है। कभी हालात ऐसे बनते हैं कि पूरे परिवार को भूखे पेट सोना पड़ता है। उसके सामने पहले पेट भरने की चुनौती होती है। वह ट आहार की कल्पना भी नहीं कर सकता। इस स्थिति में आम आदमी दूध, मछली, मांस, अंडे, और विटामिन: युक्त फल की व्यवस्था कहां से कर सकता है। आर्थिक विपन्नता की वजह से मध्यवर्गीय और आम साधारण परिवारों के हालात ऐसे हैं कि वह दिन-रात कड़ी मेहनत करने के के बावजूद किसी तरह परिवार और बच्चों की देखभाल कर पा रहा कर पा रहा है, फिर पौष्टिक आहार कहां से उपलब्ध कराएगा। क्योंकि उसकी आमदनी उतनी नहीं है। वह चाहता है कि जिंदगी किसी तरह चलती रहे। ‘यूनिसेफ’ की आहार सूची के अनुसार कम स र कम से कम आठ प्रकार के आहार बच्चों के समुचित पोषण के लिए चाहिए। अगर आठ न उपलब्ध हों तो कम से कम पांच आहार तो मिलने ही चाहिए। मगर हुए। मगर बहुत सारे लोगों के लिए पांच आहार जुटाना भी मुश्किल है, जिसके चलते बच्चे भुखमरी और कुपोषण के शिकार हैं। सरकारों के लिए भुखमरी और कुपोषण कभी मुद्दा कभी मुद्दा ही नहीं रहा। यूनिसेफ की रपट के मुताबिक हर तीन में से दो बच्चे कुपोषण का शिकार हैं। इस तरह के कुपोषित बच्चों की आबादी 66 फीसद है। यूनिसेफ की रपट के की रपट के अनुसार दुनिया के 44 के 44 करोड़ बच्चों की पहुंच निर्धारित आठ खाद्य समूहों तक नहीं है। कम से कम उन्हें पांच पौष्टिक आहार भी नहीं मिल पा रहे हैं। गिनी में 54 फीसद, बिसाऊ में 53 और अफगानिस्तान में 49 फीसद बाल भुखमरी है, जबकि सियरा सिलोन में 47 फीसद, इथियोपिया में 46 और लाइबेरिया में 43 फीसद बाल खमरी है। । अफगानिस्तान के के बाद भारत के हालात के हालात सबसे खराब हैं। बाल भुखमरी के मामले में पाकिस्तान भारत से बेहतर है, हालांकि के अच्छे हालात वहां भी नहीं हैं। यूनिसेफ की इस रपट को सरकार और संस्थाओं को गंभीरता से लेकर को ठोस नीतिगत फैसले किए जाने चाहिए। सुनिश्चित करना चाहिए कि बाल विकास के के लिए निर्धारित आठ आठ पौष्टिक समूह में अधिक से अधिक संतुलित आहार बच्चों को उपलब्ध कराए जाएं।’ जाएं।
हालांकि इस स्तर के हालात यूरोपीय देशों में नहीं देखे जाते। दक्षिण के देशों की हालत बेहद चिंतनीय है। इसके लिए वैश्विक स्तर पर एक संगठन बनना चाहिए। भारत में भी इसके लिए विशेष आयोग गठित कर बच्चों के लिए पौष्टिक आहार की व्यवस्था होनी चाहिए। अगर आने वाली पीढ़ी शारीरिक और मानसिक रूप से बीमार होगी, तो हम एक उन्नत और प्रगतिवादी राष्ट्र का निर्माण कैसे कर सकते हैं। यह हमारे लिए चिंता और चुनौती का विषय है।
विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य शैक्षिक स्तंभकार मलोट
2)संजाल और भ्रम का भंवर
विजय गर्ग
सूचना पारंपरिक जनसंचार माध्यमों में सूचना पाने के लिए व्यक्ति को अलग समय निकालना पड़ता था। मगर आज डिजिटल मीडिया के जरिए व्यक्ति का सूचनाओं से अनवरत जुड़ाव बना रहता है। इसमें ‘रील’, ‘शार्ट’ जैसे वीडियो प्रारूप पहुंच के मामले में सबसे प्रभावी हो चले हैं। हालांकि, सोशल मीडिया के उभार से सूचनाओं पर सांस्थानिक कब्जा कम होता गया और इस विकेंद्रीकरण का लाभ समाज में व्यक्तिगत स्तर तक पहुंचा है। डिजिटल मीडिया की सर्वाधिक उपयोगिता यह है कि इसके जरिए न्यूनतम समय में वैश्विक पहुंच संभव है। मगर यह भी है कि सोशल मीडिया की सूचनाएं ही सबसे अधिक संदिग्ध हैं। इन खतरों का कोई समाधान निकला भी न था कि इसमें कृत्रिम मेधा की रचनात्मकता और ‘डीप फेक’ की धूर्तताएं भी शामिल हो गईं। अब हर व्यक्ति, जिसके हाथ में स्मार्टफोन है, वह पत्रकार भी है और प्रसारक भी अब कोई भी पेशा ऐसा नहीं है, जिसका विशेषज्ञ ‘यूट्यूब पर न मिल जाए।
सत्य इसकी सकारात्मकता तो उत्साहजनक हो सकती है, क्योंकि कोई चिकित्सक, वकील, चार्टड अकाउंटेंट, सिविल अभियंता, तकनीकी विशेषज्ञ जैसा अति व्यावसायिक व्यक्ति प्रायः निशुल्क वीडियो समाज के लिए परोस रहा है। बदले में उसकी अपेक्षा अपने दर्शकों से महज यह है कि वह उस वीडियो को पसंद और प्रसारित करे और उसके उस चैनल की सदस्यता ग्रहण करे। इन्हीं मानकों पर उस वीडियो का अर्थ-तंत्र संचालित होता है। ऐसे लोगों को ‘यूट्यूबर’ कहा जा रहा है, जो एक पूर्णरूपेण पेशा बन चुका “और अनेक ऐसे लोकप्रिय ‘यूट्यूबर’ या डिजिटल वक्ता, जिनकी सामाजिक उपयोगिता बनती है, उन्हें ‘सोशल मीडिया एन्फ्लूएंसर’ की संज्ञा दी जा रही है और सरकारें उनको उनकी सामाजिक भूमिकाओं को देखते हुए अलग से सम्मानित भी कर रही हैं। जाहिर है कि डिजिटल माध्यम सिर्फ एक वैकल्पिक माध्यम नहीं, बल्कि पूंजी, यश और सत्ता प्राप्ति का माध्यम भी बन चुका है। यही कारण है कि में सैकड़ों मुख्यधारा के पत्रकार, बुद्धिजीवी, दूसरे पेशे के लोग यूट्यूब आदि माध्यमों के लिए वीडियो, और ‘रील’ बनाने में व्यस्त हो चुके हैं, बल्कि स्थापित चैनलों के अपने यूट्यूब चैनल भी समांतर प्रसारण में हैं और लाभ कमा रहे हैं।
शार्ट इस पूरी प्रक्रिया में पूंजी और सत्ता की सहभागिता ने डिजिटल मीडिया को संदिग्ध, उबाऊ और भ्रामक बनाया है। । आज इसमें शामिल शातिर लोगों ने इसे अपने निजी अभियानों की शरणस्थली बना दिया है, जिनकी मंशा सामाजिक सरोकार से अधिक भेड़चाल वाला दर्शक वर्ग तैयार करना है। लोकतंत्र में तथ्यपरक विश्लेषण, सत्याग्रही रिपोर्टिंग से अधिक अपनी तात्कालिक जरूरत और निष्ठा के अनुरूप जनमत तैयार करने का उपक्रम यहां सामान्य सी परिघटना होती जा रही है। टेलीविजन की टीआरपी वाली बीमारी का समाधान हम खोज भी नहीं पाए थे, कि इससे अधिक संक्रामक बीमारी यूट्यूब वाली पत्रकारिता में शामिल हो चुकी है, जिसमें कई बार हिंसक, सनसनी और उन्मादी ‘थंबनेल’ लगाकर वैसे पत्रकार भी अपना वीडियो परोस रहे हैं, जिनकी कभी अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा रही है।
दूसरी तरफ, इंटरनेट की दुनिया में सोशल मीडिया पर समाचारों के शीर्षक ऐसे तैयार किए जाते हैं, जिसमें सूचनाएं परोसने से अधिक छिपाने का यत्न होता है, ताकि पाठक तुरंत उस लिंक को खोले और अधिक समय तक खोले रखे। इन शीर्षकों को आकर्षक बनाने में न्यूनतम भाषाई संजीदगी बनाए रखना तो दूर, सामान्य स्पष्टता की कमी होती है। ऐसे डिजिटल सामग्री निर्माता पत्रकार या समाजसेवी से अधिक सूचनाओं के आखेटक लगते हैं, जिनकी प्राथमिकता में सब कुछ शामिल हो सकता है, समाज का हित नहीं। यह हाल तो शिक्षित तबके का है, जबकि यहां ऐसा तबका भी तेजी उभरा है, जो डिजिटल मीडिया को अपनी कुंठा, अश्लीलता, खुराफात, करतब को परोसने का सहज माध्यम बना चुका है। इसका दर्शक वर्ग भी है और फलस्वरूप पूंजी का लाभ भी ।
‘रील’ और ‘शार्ट’ के माध्यम से यह तबका डिजिटल मीडिया के लिए एक संक्रामक बीमारी सिद्ध हो रहा है। अधकचरी समझ के आधार पर धर्म, संप्रदाय, जाति का दंभ यहां खुलेआम तैर रहा है। फूहड़ चुटकुलों, शेरो-शायरी, अश्लील लोकगीतों से बनी ‘रील’ की भरमार ने इस प्रदूषण को और फैलाया है। खुराफात और करतब के नशे का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि एक रपट के अनुसार उत्तराखंड में रेल से होने वाली दुर्घटनाओं में 67 फीसद की वृद्धि हुई है। इसका कारण लोगों का ट्रेन के इर्दगिर्द ‘सेल्फी’ लेना और ‘रील’ बनाना है। एक शोध में पाया गया कि अक्तूबर 2011 से नवंबर 2017 के मध्य 137 मौतें सिर्फ सेल्फी लेने के क्रम में हुई थीं और मरने वालों की औसत उम्र लगभग 22 वर्ष थी। यह रहा है, कि कुछ दिनोंदिन नशा आकर्षक वीडियो और फोटो मिल जाए और इसे डिजिटल मीडिया पर डाल कर ‘वायरल’ हुआ जा सके। ऐसे अनेक शरारत भरे वीडियो बनाने के क्रम में आसपास के लोग भी दुर्घटना के शिकार होते हैं।
डिजिटल मीडिया ने एक नई संस्कृति को प्रश्रय दिया है, जिसमें नए प्रतीक, प्रतिमान और मूल्यबोध के साथ नए मुहावरे और भाषा-शैली विकसित हो रही है, जो आम समाज के लिए सहज नहीं है, बल्कि कई मामलों में इसमें व्याप्त भाषिक और कथ्य के संक्षिप्तीकरण की प्रवृत्ति से सूचनाओं की अभिव्यक्ति से अधिक भ्रम फैल रहा है। सामाजिक बुराइयों का विस्तार अलग से हो रहा है। हालांकि डिजिटल मीडिया के सामग्री निर्माताओं में अनेक ऐसे भी हैं, जो अपने सत्याग्रही रुख और सकारात्मक भूमिकाओं के लिए प्रतिबद्ध हैं। मगर इनमें एक बहुत ही शातिर तबका हैं, जो अपने निजी एजेंडे, कुंठा को लेकर सक्रिय है, जो किसी सार्वजनिक बयान, तथ्य और प्रसंग से जुड़े वीडियो / तस्वीर को संपादित करके अपने उद्देश्य के अनुकूल बना लेता है। भारत जैसे लोकतंत्र में, जहां हर छपे रको सत्य और प्रसारित वीडियो को अकाट्य मानकर चलने वालों की कमी नहीं है, यही शातिर तबका डीप फेक तकनीक से जिम्मेदार नेताओं के मुख से अपना प्रत्यारोपित झूठ बोलवा कर प्रसारित कर देता है।” इससे डिजिटल मीडिया पर संदेह, कुप्रचार, पक्षधरता, अनैतिक लाभ की मंशा के साथ चालाकी चुहलबाजी वाली मानसिकता उभर कर सामने आती है। । हालांकि, सच्चाई इससे परे भी हो सकती है पर इसका वृहत्तर कि वह संवेदनशील जिज्ञासु समाज, जो तथ्यपरक और नुकसान यह तटस्थ सूचनाओं के लिए डिजिटल मीडिया से अपेक्षा पाल सकता था, उसे सिर्फ निराशा मिल रही है। लोकतंत्र में मीडिया की संसूचित और जागरूक समाज के निर्माण की आदर्श भूमिका से इतर डिजिटल मीडिया द्वारा सूचनाओं को अपनी निहित मंशा के अनुरूप मथने के बाद जो पानी सामने आ रहा है, उसे सजग व्यक्ति पीने से परहेज कर रहा और भोलीभाली जनता पीकर बीमार हो रही है। ऐसे में सत्ताओं की वह इच्छा अनायास ही पूरी होती दिख रही है, जिसमें वह अपने नागरिकों को सूचनाओं से वंचित करना चाहती हैं। जाहिर है, यह सब किसी भी स्वस्थ्य लोकतंत्र के लिए घातक और समाज के लिए बीमारी की तरह है।
विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य शैक्षिक स्तंभकार मलोट
3)
गाँवों, शहरों और कस्बों में पुस्तकालयों का होना बहुत जरूरी है
विजय गर्ग
लेकिन पिछले कुछ दशकों में तकनीकी क्रांति और लोगों के बदलते रुझान के कारण किताबों और पुस्तकालयों का महत्व कम होता जा रहा है।
ज्ञान और मनोरंजन के अनंत अन्य साधनों के आगमन के साथ, लोगों ने प्रौद्योगिकी का अधिक से अधिक उपयोग करना शुरू कर दिया है। यह अक्सर देखा जाता है कि पुस्तकालय एक समय सबसे व्यस्त स्थान थे जहाँ लोग घंटों तक बैठ सकते थे। विभिन्न विषयों पर अध्ययन करते थे। लेकिन आजकल ये चलन पूरी तरह से बदल गया है. यहां तक कि स्कूल-कॉलेज के पुस्तकालयों में भी अब उतनी रौनक नहीं रही, जितनी पहले हुआ करती थी। छात्र लाइब्रेरी में बैठकर भी अपने मोबाइल फोन में व्यस्त रहते हैं। वे किसी किताब, विषय या लेख के बारे में सोचने के बजाय अपने मोबाइल पर ही लगे रहते हैं। घर में जो चीजें टीवी, इंटरनेट, कंप्यूटर आदि में बिताई जाती हैं, वही गुण नए बच्चों में फिर से आ रहे हैं। तकनीक का इस्तेमाल न केवल हमेशा गलत उद्देश्यों के लिए किया जाता है, बल्कि इंटरनेट, कंप्यूटर, मोबाइल आदि जहां मनोरंजन का साधन है, वहीं ज्ञान का भी स्रोत हैं।
इसमें कोई शक नहीं कि इसके कई फायदे हैं और हर इंसान को इसका इस्तेमाल जरूर करना चाहिए। क्योंकि जितना ज्यादा फायदा, उतना ज्यादा नुकसान. आजकल तकनीकी साधनों के बिना रहना बहुत मुश्किल है, इंटरनेट पर हर तरह की जानकारी सेकंडों में उपलब्ध है जिससे समय की काफी बचत होती है और कम समय में अधिक जानकारी प्राप्त की जा सकती है। लेकिन यह भी ध्यान रखना जरूरी है कि सूचना और ज्ञान में अंतर होता है, सूचना तो किसी चीज को पढ़कर तुरंत प्राप्त की जा सकती है लेकिन ज्ञान अध्ययन का परिणाम है जिसे निरंतर सावधानीपूर्वक अध्ययन से ही प्राप्त किया जा सकता है। मेरा कहना यह है कि हम चाहे कितनी भी प्रगति कर लें, किताबों के प्रति हमारा प्रेम कभी नहीं टूटना चाहिए क्योंकि दुनिया में अनगिनत आविष्कार हुए हैं, लेकिन किताबें सदियों से हमारे जीवन का हिस्सा रही हैं और हमेशा रहनी चाहिए।
गाँवों, शहरों, कस्बों में पुस्तकालयों का होना बहुत जरूरी है जहाँ हर विषय पर अधिक से अधिक पुस्तकें हों। युवा पीढ़ी और बच्चों को पुस्तकालय में आने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। हम सभी को खुद को, अपने बच्चों और अपने आस-पास के लोगों को जितना संभव हो सके पढ़ने के लिए प्रेरित करने का प्रयास करना चाहिए क्योंकि शिक्षा ही एकमात्र तरीका है जो हमेशा हमारे जीवन को रोशन करेगी, ”उन्होंने कहा। ज्ञान एक ऐसा खजाना है जिसे कभी कोई लूट नहीं सकता।
किताबों से जुड़ना बहुत जरूरी है वरना हम जड़ों से दूर हो जाएंगे और जड़ों के बिना पेड़ की क्या हालत होती है ये तो हम सभी जानते हैं। इसलिए किताबें साझा करते रहें, अपने से जुड़े लोगों को किसी न किसी मौके पर अच्छी किताबें पढ़ने के लिए देते रहें, अगर इस तरह का लेन-देन शुरू हो जाए तो हर कोई बुद्धिमान और विवेकशील हो सकता है जिससे हमारे जीवन की मुश्किलें आसान हो सकती हैं। आइए हम सब मिलकर पुस्तक को कक्षा में पाठ्यक्रम के रूप में न पढ़कर उसके अस्तित्व को अपने जीवन का हिस्सा बनाने का प्रयास करें और स्वयं पुस्तक के अस्तित्व को बचाएं।
विजय गर्ग शैक्षिक स्तंभकार
सेवानिवृत्त प्रिंसिपल, मलोट पंजाब।