अति सर्वत्र वर्जयेत् हम अपने जीवन के किसी भी क्षेत्र में देख ले अति का परिणाम
अति सर्वत्र वर्जयेत्
हम अपने जीवन के किसी भी क्षेत्र में देख ले अति का परिणाम
अच्छा नहीं होता है । वर्तमान परिप्रेक्ष्य में मानव चिन्तन जो सर्वाधिक प्रचलित हैं वो यह हैं की धन में घड़ी के हर समय वृद्धि हो वो अतिऔर अति आदि हो सब ठीक हैं लेकिन उसमें इंच मात्र भी कमी नहीं पड़नी चाहिये ।इस तरह संसार के भोगो में आसक्ति या पापयुक्तकामों में हम गहरे से गहरे धँसते जा रहे हैं । अपच होने का कारण आवश्यकता से अधिक सेवन करना होता है ,वो चाहे किसी भी क्षेत्र मेंहो ।विवेकपूर्ण मर्यादा और सीमा में किया गया सदुपयोग हमें किसी भी चीज के अपच से बचाता है।अनावश्यक चिंतन,अनावश्यकबोलना,अनावश्यक कायिक प्रवृति करना अपच का कारण बनता है।अति सर्वत्र वर्जयेत क्योंकि वो अपच का कारण है। हम नए सिरे सेऔर कर्म बन्धन से बचें ,जागरूकता बरतते हुए और बंधे हुए को समतापूर्वक सहन करें आत्मविश्वास और मनोबल को मजबूत बनातेहुए। हर प्राणी दुःख से डरता है । दुःख को पैदा भी वह स्वयं करता है। अपने प्रमाद के कारण दुःख पैदा करता हैं ।
जीवन में दुःख यत्र तत्र सर्वत्र हैं । यह एक प्रक्रिया हैं दुःख, दुःख का कारण और उसका निवारण। दुःख होता है पाप के कारण। कर्म केगहन बन्ध करने से डरें, बंधे हुए को भोगने में नहीं,क्योंकि हम कर्मबांधने में स्वतंत्र है,भोगने में नहीं ,ये हमेशा हमारा चिंतन चलता रहे तोहम जागरूक रहते हुए कर्मबन्ध से काफी हद तक बच सकते हैं ।यहीं हमारे लिए काम्य है। अतः शतप्रतिशत सही है उक्ति अति सर्वत्रवर्जयेत् की।
प्रदीप छाजेड़
( बोरावड़ )