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वाणी की स्वतन्त्रता

वाणी की स्वतन्त्रता

वाणी में स्वतन्त्रता हो लेकिन साथ में संस्कारों का बीजारोपण व
प्रमाणिकता भी हो । कहते है कि विनम्रता से कही हुई कड़वी बात जो तार्किक हो समय के अनुकूल हो वो सामने वाले को
आघात नहीं पहुँचाती हैं और इसके विपरीत बात सामने वाले के हृदय में ठोस पहुँचा सकती है । वाणी की रस्सी को हमको जीवन मेंकसकर पकडे रखना है। मन की चट्टान पर सही से सहनशीलता की कीले ठोकते रहना हैं । बाहरी कटु शब्दो के पत्थर से स्वयं कोबचाना हैं जिससे बाहरी मिजाज से भी कैसे ही अप्रिय वचनो का न निकालना पड़े । हमारी बोली हो हमारे जीवन व्यवहार की सही सेपरिचायक है । बोली का मिठास या कटुता हमारी मुख मुद्रा की संवाहक है ।बोली में यदि कटुता हो तो वह दूसरे को किसी न किसी रूपमें चोट पहुँचाती है और मिठास हो तो वह सबके मन में सही से खुशियों के स्रोत बहाती है । हम ध्यान रखे हमारी वाणी न करे किसी केभावों में वैर भाव का कैसा ही सृजन ।ऐसा ही हो सदैव हमारे जीवन में सोचने व भाषा के संयम का मधुर विजन । हमारी वाणी-व्यवहार-आचरण जीवन में अमूल्य अनमोल सौग़ात है । यह ऐसा अमुल्य मोती है जिससे हमारे जीवन पर उसका सार्थक प्रभाव पड़ताहै । शांत व सहज जीवन एवं मज़बूत नींव वाली महा शक्ति सी एक इमारत बनती हैं । इसलिए विचार करने से पहले यह सजगता होकी जो हम सोच रहे है जो हम कर है वह कहीं अमंगलकारी तो नही है।हमारा हर विचार व वाक्य सरल-स्पष्ट-बोधगम्य होना चाहिए ।
प्रदीप छाजेड़
( बोरावड़ )

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