आत्मा को दर्पण बना
आत्मा को दर्पण बना
हम दर्पण में स्वयं को देख कर भव्य से भव्य सुन्दर होने को लालायित रहते हैं । परन्तु क्या कभी हमने अपने भीतर ही निवास कर रही आत्मा को दर्पण बना देखने को प्रयास किया है । इस जीवन में ज़िंदगी जीने के अलावा भी बहुत कुछ है यों ही जीवन जीने के अलावा भी इसमें बहुत कुछ होना चाहिए । जीवन का कोई ऊँचा हेतु लक्ष्य होना चाहिए । जीवन का हेतु इस प्रश्न के सही जवाब तक पहुँचना है कि मैं कौन हूँ ,कहां से आया हूँ,क्या गति ,जाति क्या मेरी पहचाण है । भीतर आत्मा का शुद्ध स्वरूप विद्यमान है । हम भव भवान्तर से इसकी खोज में सतत प्रयत्नशील रहे होंगे और अब भी होंगे लेकिन अभी तक वो अनमोल रत्न हाथ नहीं लगा क्योंकि हमारी सच्ची लगन अभी इसमें नहीं जुड़ी है लेकिन जुड़ने की अपेक्षा है । ये अनमोल भव मिनख जमारो पायो है तो इसका अनमोल सार निकालकर अपना भव सुधारकर तीसरे भव को पक्का सीमित कर लें और इस ओर सतत प्रयास जारी रहें।हमारे मनोबल मजबूत हो तो सब कुछ सम्भव है ।मन के हारे हार है ,मन के जीते जीत ये हम सब जानते हैं बस जरूरत है तो इसे किर्यान्वित करने की तो शुरुआत आज से हीनहीं प्रथम कदम अभी इसी पल से शुरू हो जाएं। अतः परमात्मा है ? परमात्मा है ही और वह हमारे पास ही है, बाहर कहाँ खोजते हैं ? पर कोई हमें यह दरवाज़ा खोल दे तो दर्शन कर पायें न, यह दरवाज़ा ऐसे बंद हो गया है कि खुद से खुल पाये, ऐसा है ही नहीं, वह तो जो खुद पार हुए हो, ऐसे तरणतारण, तारणहार ज्ञानी पुरुष का ही काम है । हम भी उस पथ की और अग्रसर हो । आत्मा के साथ मन का रिश्ता बहुत ही गहरा है। आत्मा पर अच्छे-बुरे कृतकर्मों का सख्त पहरा है। जो हमको प्रतिबिंबित हो रहा है जीवन दर्पण मे हर पल वो किसी दूसरे का नहीं हमारा ही आत्मा का दर्पण है।
प्रदीप छाजेड़
( बोरावड़ )