264 वें तेरापन्थ स्थापना दिवस के उपलक्ष्य में मेरी भावपूर्ण -विनयांजलि ……..
264 वें तेरापन्थ स्थापना दिवस के उपलक्ष्य में मेरी भावपूर्ण -विनयांजलि ……..….
आचार्य भिक्षु लोह पुरूष थे। विरोधे के सामने झुकना उन्होंने कभी सिखा नहीं था। वे सत्य के महान उपासक थे। सत्य पर प्राण न्यौछावरकरने के लिए वे तत्पर थे। उन्ही के मुख से निकले हुए शब्द आत्मा राकारज सारस्यां मर पुरा देस्यां, वे महान आत्मबलि थे । वे जीवन मेंसुध साधुता को प्रतिष्ठित करना चाहते थे। वि. स. १८१७ आषाढ़ शुक्ला पूर्णिमा को केलवा(मेवाड़) में बारह साथियों सहित उन्होंनेशास्त्र सम्मत दीक्षा ग्रहण की। यही तेरापंथ स्थापना का प्रथम दिन था। इसी दिन आचार्य भीक्षु के नेतृत्व में एक सुसंगठित साधु संघ कासूत्र पात हुआ और वह संघ तेरापंथ के नाम से प्रख्यात हो गया। वि.स.१८१७ से लेकर वि.स. १८३१ तक पन्द्रह वर्ष का जीवन आचार्यभीक्षु का महान संघ संघर्षमय रहा। यहां तक कहा जाता है कि उन्हें पांच वर्ष तक तो पेट भर पुरा आहार नहीं मिला था ।कभी मिलता तोकभी नहीं भी मिलता। इस महान संघर्ष की स्थति में भी आचार्य भिक्षु ने कठोर साधना, तपस्या, शास्त्रों का गंभीर अध्यन एवं संघ कीभावी रूप रेखा का चिंतन किया।
वि.स. १८३२ में आचार्य भिक्षु ने अपने प्रमुख शिष्य भारमल जी को अपना उतराधिकारी घोषित किया। उस समय संघीय मर्यादाओं काभी निर्माण किया। उन्होंने पहला मर्यादा पत्र इसी वर्ष मार्ग शीर्ष कृष्णा सप्तमी को लिखा। उसके बाद समय समय पर नई मर्यादाओं केनिमार्ण से संघ को सुदृढ करते रहे। उन्होंने अन्तिम मर्यादा पत्र लिखा स. १८५९ माद्य शुक्ला सप्तमी को। एक आचार्य में संघ की शक्तिको केन्द्रित कर उन्होंने सुदृढ संगठन की नींव डाली। इससे अपने अपने शिष्य बनाने की परम्परा का विच्छेद हो गया। भावी आचार्य केचुनाव का दायित्व भी उन्होंने वर्तमान आचार्य को सौंपा। आज तेरापंथ धर्म संघ अनुशासित मर्यादित और व्यवस्थित धर्म संघ है, इसकाश्रेय आचार्य भिक्षु कृत इन्हीं मर्यादाओं को है। आचार्य भिक्षु ने अपने मौलिक चिंतन के आधार पर नये मूल्यों की स्थापना की। आचार्यभिक्षु की अहिंसा सार्वभौमिक क्षमता पर आधारित थी। बडों के लिए छोटो की हिंसा और पंचेन्द्रिय जीवों की सुरक्षा के लिए एकेन्द्रियप्राणीयों का हनन आचार्य भिक्षु की दृष्टि में आगम समत नहीं था।अध्यात्म व व्यवहार की भूमिका भी उनकी भिन्न थी। उन्होंने कभी ओरकिसी भी प्रसंग पर दोंनो को एक तुला से तोलने का प्रयत्न नहीं किया। उनके अभिमत से व्यवहार व अध्यात्म को सर्वत्र एक कर देना घीओर तम्बाकू के सम्मिश्रण जैसा अनुपादय है।दान दया के विषय में लैकिक एवं लौकतर भेद रेखा प्रस्तुत कर आचार्य भिक्षु ने जैन समाजमें प्रचलित मान्यता के समक्ष नया चिंतन प्रस्तुत किया। उस समय समाजिक समान का माप दण्ड दान दया पर अवलंबित था।सर्वर्गोपलब्धि और पुण्योपलब्धि की मान्यताएं भी दान दया के साथ जुडी हुई थी। आचार्य भिक्षु ने लौकिक दान दया की व्यवस्था कोकर्तव्य व सहयोग बता कर मौलिक सत्य का उद्घाटन किया। साध्य साधन के विषय में भी उनका दृष्टिकोण सपष्ट था। उनके अभिमतसे शुद्ध साधन के द्वारा ही शुद्ध साध्य की प्राप्ती सम्भव है। उन्होंने कहा रक्त से सना वस्त्र कभी रक्त से शुद्ध नहीं होता। वैसे ही हिंसाप्रधान प्रवृति कभी अध्यात्म के पावन लक्ष्य तक नहीं पहुंचा सकती। आचार्य भिक्षु एक कुशल वक्ता होने के साथ साथ एक सहज कविऔर महान साहित्यकार थे। तेरापन्थ स्थापना दिवस के उपलक्ष्य में मेरी आचार्य भिक्षु को हार्दिक भावांजली, विनयावनत वंदन एवं कोटि- कोटि नमन।
प्रदीप छाजेड़
( बोरावड़ )