मान
मान पाप कर्म कि भीतर में छुपी हुई वह वृत्ति हैं जिसका कर्ता को भी कितनी – कितनी बार भान नहीं होता हैं ।कहते है कि मृदुता से मान को जीतो । मानव के भीतर अहंकार की वृत्ति होती है जो उसको जीवन के हर व्यवहार में बाधा पैदा करती रहती है ।अहंकार दीमक के समान होता है जो भीतर से मानव को खोखला
कर खा जाता है । एक हल्की सी ठेस लगी चकनाचूर हो जाते पल – भर में । सिलाई मशीन में धागा न डालने पर वो चलती जरुर है पर सिलती कुछ नहीं हैं ठीक इसी प्रकार जिंदगी में हम अहंकार में ही रहेंगे तो जिंदगी चलेगी जरूर पर स्वयं को सबसे दूर करती जायेगी वह किसी को जोड नहीं पायेगी| केवल मुख से चुप रहने से भी शांति नहीं मिलती है क्योंकि कि मन में अहंकार आदि का जाल बिछा रहता है। जबकि सच्ची सुख शांति तो तभी हमको मिलती है जब व्यक्ति का मन शांत रहे। मन मंदिर को साफ रखो । जीवन के खेल में सत्य का उजाला है ।मन मंदिर में ज्योति ज्वाला है ।अहंकार रूपी मन को दूर करो ।यह जीवन का सवेरा है ।नई ऊंचाइयों का सफर है।जीवन भाग दौड़ खेल है ।जिंदगी के हर पन्ने में प्रेम भावना हैं। प्रेम की भावना दिल में जगाना है। अनात्मवान पुरुष के लिए अहंकार अहित का साधन बढ़ाने के समान हैं ।आत्मवान पुरुष के लिए विनम्र साधन के समान हैं । सामाजिक दृष्टि से देखे तो जहां अनेकों का सहवास होता हैं । वहां अहंकार का विग्लन आवश्यक होता हैं । यदि परिवार का हर सदस्य अपने आपको बड़ा मानने लगे और सबसे सम्मान पाने कि इच्छा रखे , किन्तु सम्मान देने की इच्छा न रखे तो परिवार में शांतिपूर्ण सहवास नहीं हो सकता है । अहंकार के मुख्य दो रूप हैं – मैं और मेरा ।जहां मेरापन या अपनापन जुड़ जाता हैं , वहां दुःख होता हैं। शास्त्रों में अहंकार के आठ स्थान माने गए हैं – जाति , कुल ,बल , रूप , तप , श्रुत , लाभ और ऐश्वर्य । किसी को जाति का मद हो सकता हैं , किसी को अपने रूप का मद हो सकता है तो किसी को ऐश्वर्य आदि – आदि का । आदमी इस सच्चाई को जानता हैं कि यह धन – वैभव आज तक किसी का नहीं बना और न ही किसी के साथ गया , फिर भी इतना मेरापन का भाव जुड़ जाता हैं कि वह धन के मद में अन्धा बना हुआ किसी भी प्रकार का अवांछनीय काम कर सकता हैं । अहंकारी व्यक्ति किसी से कोई भी परामर्श लेना पसन्द नहीं करता हैं । क्योंकि उसकी सोच पर अहंकार हावी रहता है ।अहंकार का भाव मन में आते ही उन सब चीजों का क्षरण शुरू हो जाता हैं , जिनके कारण व्यक्ति विशिष्ट बना होता हैं । लेकिन यह व्यक्ति के भीतर मौजूद विजातीय तत्वों का प्रभाव हैं कि आदमी अहंकार में चला जाता हैं । अहंकार के बजाय आदमी अपनी योग्यता को बढ़ाने का प्रयास करे । अगर पात्रता हैं तो कई बार संपदा स्वयं व्यक्ति के पास आ जाती हैं । अगर योग्यता नहीं हैं और संपदा आ गई तो उसके टिकने और उसके सही उपयोग में सन्देह रहता हैं । नम्रता एक ऐसा गुण हैं जो व्यक्ति को जोड़ना जानता हैं । जो झुकना जानता हैं वह विकास को प्राप्त कर सकता हैं और जो अकड़कर रहता हैं वह टूट जाता हैं , उसका विकास अवरुद्ध हो जाता हैं । फलयुक्त वृक्ष और गुणगान / ज्ञानी व्यक्ति झुक जाते हैं , किन्तु सूखा काष्ठ ( अकड़ा हुआ ) और मूर्ख टूट जाते हैं , कभी झुकते नहीं है ।अहंकार विकास में बाधा पैदा करने वाला तत्व हैं , इसलिये जितना जल्दी हो सके उसे छोड़ देना चाहिए ।
प्रदीप छाजेड़
( बोरावड़)