बहुत देर से पिंटू देख रहा था। एक अम्मा क्रिकेट के मैदान के एक कोने से दूसरे कोने पर आ-जा रही थीं। उनके सिर पर सामान की गठरी भी थी। शायद वह रास्ता भूल गई थीं। पिंटू से जब रहा न गया तो अपने मित्र जीतू से कहा, ‘यार! चल बूढ़ी अम्मा की मदद करते हैं। बेचारी न जाने कब से भटक रही हैं’।
‘हां, बे! हां, चलते हैं’।
जीतू बोला था। हालांकि उसने बल्लेबाजी वाले पैड पहन रखे थे। उसकी बारी कभी भी आ सकती थी, लेकिन एक बुजुर्ग को परेशान होते हुए देखते भी नहीं बन रहा था। आदर भाव में दोनों अम्मा जी के समक्ष थे। पिंटू ही बोला, ‘आंटी जी! आपको जाना कहां है ?”
अम्मा जी एकटक उन्हें देखती रह गई। फिर तनिक मुस्कराते हुए बोलीं-
‘बच्चो ! मैं आंटी कहां से दिख रही हूं। तुम दादी नहीं बुला सकते ?”
इस पर दोनों उलझन में पड़ गए। दोनों कुछ कहते इससे पहले वे ही बोलीं, ‘बच्चो ! मैं रास्ता भूल गई हूं । मुझे अपने बेटे के घर जाना है। उफ्फ! जिस कागज के टुकड़े पर पता लिखा था वह मिल नहीं रहा। मैं मथुरा से आई हूं। छह महीनों में सब बदला-बदला सा लग रहा है यहां इस मौजी बाग में। कुछ समझ नहीं आ रहा कि इतने जाने-पहचाने रास्ते को भूल कैसे गई’।
जीतू पूछने लगा, ‘दादी जी! मौजी बाग यहां तीन हैं। आपको कौन से बाग में जाना है। मौजी बाग एक, मौजी बाग दो या साऊथ मौजी बाग ?’
‘बेटे! गुरद्वारा है उधर । सीधे मेन रोड पर ही सरकारी फ्लैट है नीचे का’ ।
‘वो तो ठीक है, दादी जी ! ‘ बीच में बोल पड़ा था पिंटू, ‘आपके पास कोई पता है नहीं तो पहुंचेंगी कैसे आप ?’
तभी जीतू बल्लेबाजी के लिए चल पड़ा था। उधर अरुण आउट हो कर जब आया तो पूछने लगा, ‘क्या बात है ? अम्मा जी को क्या हुआ ?’ उसे
पूरी बात बताई गई तो वह तपाक
• से बोल पड़ा, ‘अम्मा जी ! हमारे जैसा आपका भी कोई
पोता होगा जो क्रिकिट फिर्किट खेलता होगा’ ।
इस पर वे बोलीं, ‘हां, हां, गोपाल है मेरा पोता। वो भी
जबर बैट -बाल खेलता है’।
नाम सुन कर बच्चे असमंजस में थे। एक-दूसरे की
शक्ल देख कर चुप थे।
तब अरुण ही बोला, ‘वो पढ़ता कहां है, दादी ?’
‘पता नहीं, बेटा! मुझे तो बस इतना ही पता है कि जहां बस खत्म होती है वहां से सीधा जाना है गुरुद्वारे के पास । कम्बख्त, ये मरा पुल कब बन गया। उधर, बेवकूफ बस वाले ने भी यहां किधर उतार दिया मुझे जबकि मैं पहले यहां आती-जाती रही हूं। मगर जरा भी याद नहीं आ रहा कि मुझे किधर जाना है।’
तभी बल्लेबाजी कर रहे एक बच्चे के सिर में जोर से . बाल लगी। वह वहीं तिलमिला
कर गिर गया था। बच्चे आपस में बातें कर रहे थे। बालिंग कर रहा लड़का गायब हो गया था। एक बच्चा बोल पड़ा, ‘बाउंसर मारी है’।
तभी एक दूसरे बच्चे ने कहा, ‘यार, सर ने बाउंसर के
लिए मना किया हुआ है’।
उसी वक्त वो अम्मा जी चिल्लाई, ‘अरे बच्चो ! याद आया मेरे गोपाल को भी तो बाक्सर कहते हैं’। ‘दादी! बाक्सर नहीं बाउंसर’ अरुण उछल कर बोला था । तब दादी ने तुरंत दोहराया, ‘शायद बाउंसर ही । ‘
‘वाह दादी ! बाउंसर को तो
हम खूब अच्छे से जानते हैं। अगर वही आपका पोता है तो चलिए, दादी ! मैंने उसका यानी आपका घर देखा हुआ है। वह हमारे साथ खेलता भी है।’
पांच मिनट में ही वे घर पहुंच गए थे। दादी को अचानक देख गोपाल चीख पड़ा-दादी ! मेरी दादी दादी के चरण स्पर्श कर उसकी नजर पिंटू की ओर गई । अबे, मेरी दादी तुझे कहां मिलीं। ‘
तब पिंटू ने पूरा किसा सुनाया। फिर जोर से बोला, ‘अरे यार, तुझे बाउंसर जो पुकारते हैं, ना । इसी नाम से हम तुझ तक पहुंचे हैं। रास्ते में तेरी दादी भी ठीक कह रही थीं, बेटा, काम ऐसा करो कि लोग तुम्हें नाम से नहीं बल्कि तुम्हारे काम से पुकारें ।
सच में बात तो मजेदार है। बाउंसर नाम ने ही दादी को बिना पते के घर पहुंचा दिया था।
विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल मलोट पंजाब
