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अतार्किक दोहन से बिगड़ता जल – चक्र

अतार्किक दोहन से बिगड़ता जल – चक्र

विजय गर्ग

खाद्य एवं जल विशेषज्ञों के समूह ‘ग्लोबल कमीशन आन द इकोनामिक्स आफ वाटर’ की ताजा रपट में पाया गया है कि जल संकट से वैश्विक खाद्य उत्पादन का पचास फीसद से अधिक हिस्सा संकट में है। इससे 2050 तक कई देशों के सकल घरेलू उत्पाद में औसतन आठ फीसद की कमी आ सकती है, जबकि कम आय वाले देशों में यह नुकसान 15 फीसद तक हो सकता हैट अनुसार, दशकों से हो रहे विनाशकारी भूमि उपयोग और जल कुप्रबंधन ने मानव जनित जलवायु संकट के साथ मिल कर वैश्विक जल- जल चक्र पर गहरा दबाव बना दिया है। यह कई देशों
की अर्थव्यवस्था, खाद्य उत्पादन और जन जीवन पर गहरा संकट सकता है। दुनिया भर में करीब तीन अरब लोग पहले से ही पानी की कमी का सामना कर रहे हैं। एक तरफ फसलें पानी की कमी से मुरझा रही हैं, , तो दूसरी तरफ नगर नगर डूब रहे हैं। अगर इस संकट को नहीं तो परिणाम भयावह होंगे। सुलझाया गया इस त्रासदी को जल खर्च के संतुलित उपयोग से ही नियंत्रित किया जा सकता है। । इसलिए पानी के मोल को पहचानने की जरूरत है। जल चक्र को समझने के लिए इसका वर्गीकरण नीले और हरे पानी में किया गया है। झीलों, नदियों और तालाबों में एकत्रित पानी को नीला पानी कहा जाता है। मिट्टी और पौधों में संचित पानी को हरा पानी कहा जाता है। जल-चक्र उस जटिल प्रणाली को कहते हैं, जिसके द्वारा पानी पृथ्वी के चारों ओर घूमता है। पानी भाप बन कर वायुमंडल में जाता है, जिससे जल वाष्प की बड़ी धाराएं बनती हैं, जो ठंडी एवं संघनित होने के बाद बारिश या बर्फ के रूप में धरती पर गिरती हैं। हरे पानी की आपूर्ति को जिस तरह से नजरअंदाज किया जा है, उसे गंभीरता से लेने और सुरक्षित बनाए रखने की जरूरत है। जल चक्र के लिए यहू पानी उतना ही महत्त्वपूर्ण है, जितना नीला पानी माना जाता है, क्योंकि जब ब पौधे जल वाष्प छोड़ते हैं, तो यह वायुमंडल में चला जाता है, इससे धरती पर होने वाली कुल वर्षा का आधा हिस्सा लौट आता है। दुर्भाग्यपूर्ण पहलू यह भी है कि पेड़-पौधों व वनस्पतियों में प्रदूषण अवषोशित करने की क्षमता निरंतर घट रही रही है।
भविष्य में जल चक्र बिगड़ता है, तो भारत में इसका असर कहीं ज्यादा दिखाई देगा। यह स्थिति खाद्य उत्पादन तो घटाएगी ही, पानी की उपलब्धता में भी कमी आ सकती है। दरअसल, हमारी कुछ नीतियां ऐसी हैं, जो जल-चक्र को परिवर्तित कर असंतुलित बना सकती हैं। किसी भी वस्तु में छूट देखने-सुनने में अच्छी लगती है, लेकिन कृषि के के लिए डीएपी खाद पर दी जा रही सबसिडी पानी और राष्ट्र की सकल पूंजी को हानि पहुंचा रही है। दशकों से किसानों को कृषि विभाग और वैज्ञानिक समझा रहे हैं कि नाइट्रोजन का अधिक प्रयोग खेत में न करें। इससे मिट्टी की उर्वरा क्षमता घटती है और फसलों में पानी भी अधिक लगता है धान, गेहूं, कपास और गन्ना मिट्टी की उर्वरा शक्ति कमजोर होने पर ज्यादा पानी सोखती हैं। इसीलिए किसानों को मोटा अनाज, दालें व तिलहन पैदा करने और एनपीके खाद डालने को कहा जाता है।
मगर एनपीके पर सबसिडी न होने के कारण यह खाद महंगी मिलती है। नतीजतन, किसानों ने इसे लगभग खारिज कर दिया है। सरकार डीएपी पर सबसिडी इसलिए दे रही है कि उसे राजनीतिक हानि न उठानी पड़े। यूरिया डीएपी पर प्रतिवर्ष लगभग दो लाख करोड़ रुपए से ज्यादा की प्रत्यक्ष सबसिडी दी जाती है। इस कारण धान और गेहूं की फसल ज्यादा उगाई जाती हैं, क्योंकि ये फसलें ज्यादा मात्रा में पैदा होती हैं और इन्हीं का ज्यादा निर्यात होता है। तमाम प्रोत्साहन के बावजूद किसान बहुफसलीय खेती करने से भी कतरा रहे हैं। इस वजह से देश को दलहन और तिलहन बड़ी मात्रा में आयात करने होते हैं। इनके आयात में बड़ी मात्रा में विदेश पूंजी भी खर्च होती है। यही नहीं, गेहूं-चावल की फसलों में जल प्रबंधन और बिजली व्यवस्था में जो धन खर्च होता है, वह भी अप्रत्यक्ष निर्यात के जरिए नुकसान का सबब बन रहा है। मगर राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में इस हकीकत का न तो खुलासा होता है और न ही विपक्ष इन मुद्दों को संसद में उठाता है।
खेती और कृषिजन्य औद्योगिक उत्पादों से जुड़ा यह ऐसा मुद्दा है, जिसकी अनदेखी के चलते पानी का भी निर्यात हो रहा है। इस पानी को ‘वर्चुअल वाटर’ भी कह सकते हैं। दरअसल, भारत से बड़ी मात्रा में चावल, चीनी, वस्त्र, जूते-चप्पल और फल व सब्जियों का निर्यात होता है। इन्हें तैयार करने में बड़ी मात्रा में पानी खर्च होता है। अब । तो जिन बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने हमारे यहां बोतलबंद पानी के संयंत्र लगाए हुए हैं, वे भी इस पानी को अरब देशों को निर्यात कर रही हैं। इस तरह से निर्यात किए जा रहे पानी पर लगाम नहीं लगाई गई तो संकट और बढ़ेगा। जबकि देश के तीन चौथाई घरेलू रोजगार पानी पर निर्भर हैं। आमतौर शुद्ध पानी, तेल और लोहे यह भुला दिया मूल्यवान लोहे की तुलना में कहीं क्योंकि पानी पारिस्थितिकी संतुलन बनाए रखने के लिए वैश्विक अर्थव्यवस्था में बीस हजार डालर प्रति हेक्टेयर की दर से सर्वाधिक योगदान करता करता है। इस दृष्टि भारत | कृषि और इससे संबंधित उत्पादों के जरिए पानी का जो अप्रत्यक्ष निर्यात हो रहा है, वह हमारे भूतलीय और भूगर्भीय दोनों ही प्रकार के जल भंडारों का दोहन करने को बड़ा सबब बन रहा है। दरअसल, एक टन अनाज उत्पादन में एक हजार टन पानी की आवश्यकता होती है। धान, गेहूं, कपास और गन्ने की खेती में सबसे ज्यादा पानी खर्च होता है। इन्हीं का हम सबसे ज्यादा निर्यात करते हैं।
खेत की मिट्टी और स्थानीय जलवायु भी पानी की कम-ज्यादा खपत से जुड़े अहम पहलू हैं। पानी का अप्रत्यक्ष निर्यात न हो इसके लिए फसल प्रणाली में व्यापक बदलाव और सिंचाई में आधुनिक पद्धतियों को अपनाने की जरूरत है। ऐसा अनुमान है कि धरती पर 1.4 अरब घन किलोमीटर पानी पानी है, , लेकिन इसमें से महज दो फीसद पानी मनुष्य के पीने और सिंचाई के लायक है। इसमें 70 फीसद खेती-किसानी में खर्च होता है। इससे जो फसलें और फल-सब्जियां उपजती हैं, निर्यात के जरिए 25 फीसद पानी अंतरराष्ट्रीय बाजार में चला जाता है। इस तरह से 1050 अरब वर्गमीटर पानी का अप्रत्यक्ष कारोबार होता है। एक अनुमान के मुताबिक इस वैश्विक कारोबार में लगभग दस हजार करोड़ घनमीटर वार्षिक जल भारत से फसलों के रूप में निर्यात होता है जल के इस अप्रत्यक्ष व्यापार में भारत दुनिया में अव्वल है। जल का संतुलन बना रहें, भविष्य की नीतियां इस दूरदर्शी दृष्टिकोण से बनाना चाहिए।
विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल शैक्षिक स्तंभकार स्ट्रीट कौर चंद एमएचआर मलोट पंजाब

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