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इरादे धुआं धुआं

इरादे धुआं धुआं

विजय गर्ग
जलवायु परिवर्तन का प्रकोप पूरी दुनिया को अपने पंजे में कस रहा है। हर कोई वैश्विक उत्सर्जन पर लगाम लगाने की जरूरत रेखांकित करता देखा जाता है। हर वर्ष होने बाले जलवायु सम्मेलन में जैव ईंधन की खपत कम करने, कार्बन उत्सर्जन पर कठोरता से काबू पाने के इरादे जताए जाते हैं। संकल्प लिया गया कि 2030 तक वैश्विक तापमान में वृद्धि को डेढ़ फीसद तक सीमित कर लिया जाएगा। मगर हकीकत यह है कि हर वर्ष तापमान में कुछ वृद्धि दर्ज होती है मौसम का मिजाज बिगड़ चुका है। कहीं अतिवृष्टि से लोग परेशान हैं, तो कहीं अनावृष्टि से बहुत सारे पहाड़ों पर बर्फ गिरनी कम हो गई है। वहां की झीलों का तल चिंताजनक स्तर तक घट गया है। नदियां सूख रही हैं, कृषि उत्पादन पर इसका नकारात्मक प्रभाव चिंता पैदा करता है। फिर भी कहीं कार्बन उत्सर्जन में उल्लेखनीय कटौती नजर नहीं आती। संयुक्त राष्ट्र की जलवायु का आकलन करने वाली संस्था ने अपने ताजा अध्ययन में कहा है कि कार्बन उत्सर्जन रोकने के मामले में अगर यही गति बनी रही, तो वैश्विक उत्सर्जन 2030 से पहले ही अपने चरम पर पहुंच जाएगा। इस संस्था का कहना है कि 2030 तक वैश्विक उत्सर्जन में 2019 के मुकाबले महज 2.6 फीसद की कमी आ सकेगी। अगर वैश्विक तपिश को डेढ़ फीसद पर सीमित रखना है तो 2030 तक वैश्विक उत्सर्जन में तैंतालीस फीसद और 2035 तक साठ फीसद की कमी लानी होगी।
दुनिया के लगभग सभी देशों ने पेरिस जलवायु समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं। उसमें जैव ईंधन के उपयोग में कटौती करने, हरित ऊर्जा का उपयोग बढ़ाने, अक्षय ऊर्जा स्रोतों का विकास करने का संकल्प लिया गया था। उसके बाद से हर वर्ष जलवायु सम्मेलन में इकट्ठा होकर सारे देश नई चुनौतियों से पार पाने के लिए मंथन करते और नए समझौतों पर हस्ताक्षर करते हैं। अब बड़ी चिंता यह है कि अगर बढ़ते वैश्विक ताप पर काबू नहीं पाया गया, तो बहुत सारी वनस्पतियां, जीव प्रजातियां समाप्त हो जाएंगी, पहाड़ उजड़ जाएंगे, प्राकृतिक जल स्रोत सूख जाएंगे। बढ़ती गर्मी और जलवायु में असंतुलन के कारण अनेक नई बीमारियां पैदा होंगी, महामारियों की आशंका बढ़ती जाएगी। मगर विकास की दौड़ में शामिल देश औद्योगिक उत्पादन पर किसी भी रूप में लगाम लगाने को तैयार नहीं हैं खनिजों की निकासी पर जोर दिनोदिन बढ़ता ही जा रहा है। ऐसे में जिन देशों से सबसे अधिक कार्बन उत्सर्जन में कटौती करने की उम्मीद की जाती थी, वे कोई न कोई गली निकाल कर इस जिम्मेदारी से बचते देखे जाते हैं। अमेरिका तो पेरिस समझौते पर हस्ताक्षर करने के कई वर्ष बाद तक इस जिम्मेदारी से बचता रहा।
दरअसल, दुनिया के तमाम विकसित और विकासशील देशों ने विकास का जो माडल अपना रखा है, उसमें कार्बन उत्सर्जन पर काबू पाना कठिन होता गया है। कोई भी देश अपने औद्योगिक विस्तार को रोकना नहीं चाहता। सारी दुनिया में आर्थिक विकास दर बढ़ाने पर जोर है। हालांकि अक्षय ऊर्जा स्रोतों का उपयोग बढ़ा है, पेट्रोल, डीजल, कोयला आदि की जगह विद्युत चालित वाहनों, उपकरणों का चलन बढ़ रहा है। मगर पर्यावरण को नुकसान केवल जैव ईंधन से नहीं, अतार्किक खनन, उत्पादन की होड़, इलेक्ट्रानिक कचरे के बढ़ते बोझ आदि की वजह से भी है। जब तक विकास का संतुलित, तार्किक और कुदरत से तालमेल बिठाने वाला माडल नहीं अपनाया जाता, वैश्विक उत्सर्जन रोकने के इरादे धुआं धुआं होते रहेंगे।
विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य शैक्षिक स्तंभकार मलोट

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